कितना अच्छा लगता है
जब अपने चहरे पर टँगी
औपचारिक मुस्कुराहटों को
सायास उतार मैं बाहर
खूँटी पर टाँग आती हूँ
और विशुद्ध रूप से भावहीन हो
अपने इस अंतरमहल में
प्रवेश करती हूँ
जिसकी दीवारों पर
अनगिनत भावभीनी
यादों के भित्ती चित्र बड़े करीने से
चप्पे-चप्पे पर सजे हुए हैं !
इसमें आने से पहले
मध्य से तार सप्तक में
तैरने वाली अपनी
चहकती आवाज़ को
मैं छत की अलगनी पर ही
लटका आती हूँ
क्योंकि यहाँ आने पर
मेरे स्वर स्वत: ही
मंद्र सप्तक पर उतर कर
फुसफुसाहट में बदल जाते हैं !
जिस तरह नौ से पाँच
ऑफिस में काम करने वाली
कामकाजी महिला घर लौटने पर
अपने चहरे पर लगाए हुए
प्रसाधनों को व्यग्रता से
धो डालती है
उसी तरह अपने निजी कक्ष में
प्रवेश करने से पहले मैं भी
अपने चहरे से
बनावटी हर्ष और उल्लास,
हँसी और खुशी तथा
औपचारिक शिष्टाचार
के दिखावटी प्रसाधनों को
मल-मलकर
छुड़ा देना चाहती हूँ !
मेरे इस आशियाने में
किसी का भी प्रवेश
सर्वथा वर्जित है
शायद इसीलिये यहाँ मैं
स्वयं को बहुत सुरक्षित पाती हूँ !
इस कमरे के एकांत में
बिलकुल अकेले
नि:संग, नि:शब्द, शिथिल
आँखें मूँदे यहाँ की खामोशी को
बूँद-बूँद पीना मुझे
बहुत अच्छा लगता है !
मुझे अपना यह कमरा
बहुत अच्छा लगता है
जहाँ मैं खुद से
रू-ब-रू हो पाती हूँ
जहाँ मेरे चहरे पर
कोई मुखौटा नहीं होता !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
No comments:
Post a Comment