‘मौन का दर्पण’--एक समीक्षा
मेरी बात निश्चित ही एक दिन अवश्य सिद्ध होगी कि साधना जी का लेखन स्त्री जाति के लेखन का प्रतिबिम्ब है. मेरा और उनका परिचय उनके लेखन के प्रथम सोपान से ही है. हर छह माह में उनकी एक नयी पुस्तक आना उनके लेखन की निरंतरता का प्रतिमान है. उनकी लेखनी की नोंक पर सरस्वती आकर बैठ जाती है. बहुत बहुत सोचा मैंने पर नहीं खोज पाई जो विषय उनसे अछूते रहे हों. छोटी से छोटी घटना उनकी निगाहें ताड़ लेती हैं. मुझे उनकी स्मरण शक्ति पर गर्व है.
‘मौन का दर्पण’ कविता संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए कई बार आँख गीली हुई,दिल में बहुत कुछ बिखरा है, उसे सहेज कर फ़िर पढ़ने की हिम्मत जुटाई. बार बार मन अपने से सवाल करता रहा कि हम स्त्रियाँ इतने ज्वालामुखी के बाद भी शान्त चित्त कैसे रह लेती हैं कैसे सहेज लेती हैं सब कुछ और फ़िर कैसे चल देती हैं नई राह पर. सचमुच साधना जी के पात्र बहुत दुस्साहसी हैं.
इस संकलन की एक और विशेषता कि बारह खड़ी का कोई वर्ण छूटा नहीं जिसे कविता की मुख्य पंक्ति बनने का सौभाग्य न मिला हो. एक एक वर्ण से कई कई कविताएँ. पहले लगा शायद मुझे भ्रम हुआ है दोबारा पढ़ने बैठी तो आश्चर्य जनक सत्य यही था कि अनोखा दर्पण, आराधना,इन्द्रधनुष,उसके हिस्से का आसमान, एक कहानी, ऐसी ही होती है माँ, ओ कालीदास के मेघदूत, किसे सहेजू, खामोशी, गठरी, चल रही हूँ, छलना,जीवन नौका, झूला, तुझे देखा तो जाना, दिल दरिया, नियति, पिता, प्रश्न और रिश्ते, बह जाने दो, मेरा ‘मैं’, रोज़ देते हैं नया इक इम्तहाँ, वितान, शब्द वाण, श्रमिक दिवस, संकल्प, हर सिंगार की अभिलाषा, हरसिंगार सी यादें कितना बडा फ़लक है उनकी रचनाओं का, पूरी की पूरी ज़िन्दगी सिमट आई है.
कुछ पंक्तियाँ दिलो दिमाग पर छा गई हैं.....
ये धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ा कर नहीं, चलते हैं जिह्वा की कमान से.
हौसला
हार कर यूँ बैठना तेरी तो यह आदत नहीं, भूल अपना पन्थ पीछे लौटना फ़ितरत नहीं.
जिस दिन मेरी नज़र में मेरे इस ‘मैं’ का अवमूल्यन हो जायेगा, उस दिन सब समाप्त हो जायेगा.
सच तो यह है कि अब मैंने हर हाल में जीना सीख लिया है.
रोज़ मिट मिट कर सँवर जाते हैं हम.
पिता.. एक ऐसा प्रेम पुंज जिसका प्यार हमारे व्यक्तित्व को दबाता नहीं, विकसित करता है, निखारता है, उभारता है, हमें सम्पूर्ण बनाता है बिलकुल अपनी ही तरह.
बच्चा चाहे कैसा भी हो माँ तो बस होती है माँ. हो कोई भी देश विश्व में ऐसी ही होती है माँ.
और जब एक स्त्री पूछती है उसका खूँटा कहाँ गढ़ा हुआ है यहीं कहीं जमीन में या फ़िर मेरे मन में.
तो सारी कायनात स्तब्ध रह जाती है.
और ये अंतिम पंक्तियाँ तो नारी की सारी शक्ति का ही प्रदर्शन कर देती हैं... स्वार्थ किसी का भी सिद्ध हो रहा हो निमित्त नारी ही बनती है.
जिसके पास हारने के लिए कदाचित कुछ नहीं. जब वह कुपित होती है तो उसका रौद्र रूप देख, देवता भी काँप जाते है समस्त विश्व को भयहीन कर देती है नारी.
ये कविताएँ जीवनी शक्ति हैं जो डूबते को तिनके का सहारा हैं. रचनाकार बहुत बहुत बधाई की पात्र हैं मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ.
‘मौन का दर्पण’ कविता संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए कई बार आँख गीली हुई,दिल में बहुत कुछ बिखरा है, उसे सहेज कर फ़िर पढ़ने की हिम्मत जुटाई. बार बार मन अपने से सवाल करता रहा कि हम स्त्रियाँ इतने ज्वालामुखी के बाद भी शान्त चित्त कैसे रह लेती हैं कैसे सहेज लेती हैं सब कुछ और फ़िर कैसे चल देती हैं नई राह पर. सचमुच साधना जी के पात्र बहुत दुस्साहसी हैं.
इस संकलन की एक और विशेषता कि बारह खड़ी का कोई वर्ण छूटा नहीं जिसे कविता की मुख्य पंक्ति बनने का सौभाग्य न मिला हो. एक एक वर्ण से कई कई कविताएँ. पहले लगा शायद मुझे भ्रम हुआ है दोबारा पढ़ने बैठी तो आश्चर्य जनक सत्य यही था कि अनोखा दर्पण, आराधना,इन्द्रधनुष,उसके हिस्से का आसमान, एक कहानी, ऐसी ही होती है माँ, ओ कालीदास के मेघदूत, किसे सहेजू, खामोशी, गठरी, चल रही हूँ, छलना,जीवन नौका, झूला, तुझे देखा तो जाना, दिल दरिया, नियति, पिता, प्रश्न और रिश्ते, बह जाने दो, मेरा ‘मैं’, रोज़ देते हैं नया इक इम्तहाँ, वितान, शब्द वाण, श्रमिक दिवस, संकल्प, हर सिंगार की अभिलाषा, हरसिंगार सी यादें कितना बडा फ़लक है उनकी रचनाओं का, पूरी की पूरी ज़िन्दगी सिमट आई है.
कुछ पंक्तियाँ दिलो दिमाग पर छा गई हैं.....
ये धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ा कर नहीं, चलते हैं जिह्वा की कमान से.
हौसला
हार कर यूँ बैठना तेरी तो यह आदत नहीं, भूल अपना पन्थ पीछे लौटना फ़ितरत नहीं.
जिस दिन मेरी नज़र में मेरे इस ‘मैं’ का अवमूल्यन हो जायेगा, उस दिन सब समाप्त हो जायेगा.
सच तो यह है कि अब मैंने हर हाल में जीना सीख लिया है.
रोज़ मिट मिट कर सँवर जाते हैं हम.
पिता.. एक ऐसा प्रेम पुंज जिसका प्यार हमारे व्यक्तित्व को दबाता नहीं, विकसित करता है, निखारता है, उभारता है, हमें सम्पूर्ण बनाता है बिलकुल अपनी ही तरह.
बच्चा चाहे कैसा भी हो माँ तो बस होती है माँ. हो कोई भी देश विश्व में ऐसी ही होती है माँ.
और जब एक स्त्री पूछती है उसका खूँटा कहाँ गढ़ा हुआ है यहीं कहीं जमीन में या फ़िर मेरे मन में.
तो सारी कायनात स्तब्ध रह जाती है.
और ये अंतिम पंक्तियाँ तो नारी की सारी शक्ति का ही प्रदर्शन कर देती हैं... स्वार्थ किसी का भी सिद्ध हो रहा हो निमित्त नारी ही बनती है.
जिसके पास हारने के लिए कदाचित कुछ नहीं. जब वह कुपित होती है तो उसका रौद्र रूप देख, देवता भी काँप जाते है समस्त विश्व को भयहीन कर देती है नारी.
ये कविताएँ जीवनी शक्ति हैं जो डूबते को तिनके का सहारा हैं. रचनाकार बहुत बहुत बधाई की पात्र हैं मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ.
प्रोफ़ेसर बीना शर्मा.
कुलसचिव
केन्द्रीय हिंदी संस्थान
आगरा
कुलसचिव
केन्द्रीय हिंदी संस्थान
आगरा
https://www.amazon.in/…/ref=cm_sw_r_wa_awdo_t1_ly45DbGYRWWEQ
साथियों यह पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध है और यह है इसका लिंक !
साधना वैद
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-12-2019) को "आज मेरे देश को क्या हो गया है" (चर्चा अंक-3546) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सर्वप्रथम आपको आपकी नई पुस्तक के प्रकाशन हेतु बहुत-बहुत शुभकामनाएं आदरणीया साधना जी ! आपकी लेखनी से सभी परिचित हैं और यह पुस्तक आपके मौलिक चिंतन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। समीक्षा से पुस्तक की विशेषता साफतौर पर परिलक्षित होती है। अंत में आपको मेरी अशेष शुभकामनाएं। सादर 'एकलव्य'
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार ध्रुव जी ! आप जैसे प्रबुद्ध रचनाकारों की सराहना अनमोल है मेरे लिए ! इसे पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा ! मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी !
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