Saturday, October 31, 2020
यह कौन सी नस्ल है
Tuesday, October 27, 2020
कितनी सुन्दर होती धरती
कितनी सुन्दर होती धरती, जो हम सब मिल जुल कर रहते
झरने गाते, बहती नदिया, दूर क्षितिज तक पंछी उड़ते
ना होता साम्राज्य दुखों का, ना धरती सीमा में बँटती
ना बजती रणभेरी रण की, ना धरती हिंसा से कँपती !
पर्वत करते नभ से बातें, जब जी चाहे वर्षा होती
सूखा कभी ना पड़ता जग में, फसल खेत में खूब उपजती
निर्मम मानव जब जंगल की, हरियाली पर टूट न पड़ता
भोले भाले वन जीवों के, जीवन पर संकट ना गढ़ता
जब सब प्राणी सुख से रहते, एक घाट पर पीते पानी
रामराज्य सा जीवन होता, बैर भाव की ख़तम कहानी
पंछी गाते मीठे सुर में, नदियाँ कल कल छल छल बहतीं
पेड़ों पर आरी ना चलती, कितनी सुन्दर होती धरती !
साधना वैद
Sunday, October 25, 2020
कब आओगे राम
आप सभीको विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
हाइकु शैली में राम कथा - कब आओगे राम
सतयुगी आदर्श
पूज्य आज भी
करता जग
हृदय से वन्दना
राम राज्य की !
न पाया सुख
सम्पूर्ण जीवन में
राजा राम ने
गले लगाया
वानप्रस्थी जीवन
युवा राम ने
धार के वेश
औघड़ सन्यासी सा
छोड़ा महल
मूँद ली आँखें
राजसी वैभव से
लगा न पल
कौल पिता का
भटके जंगलों में
सन्यासी राम
निभाते रहे
वादा दशरथ का
वैरागी राम
चले साथ में
सीता और लक्ष्मण
राम के संग
देख दृष्टांत
प्रेम और त्याग का
जग था दंग
विनाशे विघ्न
निर्भय ऋषी मुनि
वन महके
खिली प्रकृति
हर्षित वनचर
पंछी चहके
फैलाई माया
मोहान्ध सूर्पनखा
मुग्ध राम पे
लक्ष्मण पास
पठाई सूर्पनखा
भैया राम ने !
काट दी नाक
कुपित लक्ष्मण ने
अनर्थ हुआ
बदला लेने
रावण ने सीता का
हरण किया
हर ली सीता
क्रोधित रावण ने
बिलखे राम
जलने लगी
प्रतिशोध की आग
छिड़ा संग्राम
एकत्रित की
सेना शूरवीरों की
वीर राम ने
दिखाई शक्ति
वानर सेना संग
हनुमान ने
जला दी लंका
हार गया रावण
वैदेही आईं
मिली विजय
विजया दशमी को
खुशियाँ छाईं
था धर्मयुद्ध
जीत हुई धर्म की
अधर्म हारा
विजय मिली
विनाशा बुराई को
असत्य हारा
हुआ सुखान्त
राम की कहानी का
उल्लास छाया
लौटे अयोध्या
मनाई दीपावली
जग हर्षाया
राम हमारी
करबद्ध विनती
सुन पाओगे
शीश काटने
आज के रावण का
कब आओगे ?
मर्यादा धनी
पुरुषोत्तम राम
कथा तुम्हारी
बनी हुई है
युग युगांतर से
शक्ति हमारी
साधना वैद
Thursday, October 22, 2020
राम ने कहा था
Monday, October 19, 2020
Thursday, October 15, 2020
एकाकी मोरनी
Friday, October 9, 2020
नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
स्वर्ण किरण के
तारों से नित बुनी सुनहरी धूप की चादर
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
शेष हुआ
साम्राज्य तिमिर का संसृति में छाया उजियारा
भोर हुई चहके
पंछी गण मुखरित हुआ तपोवन सारा
लुप्त हुए
चन्दा तारे सब सुन तेरे अश्वों की आहट
जाल समेट
रुपहला अपना लौट चला नि:शब्द सुधाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
स्वर्णरेख चमकी
प्राची में दूर क्षितिज छाई अरुणाई
वन उपवन में
फूल फूल पर मुग्ध मगन आई तरुणाई
पिघल पिघल
पर्वत शिखरों से बहने लगी सुनहली धारा
हो कृतज्ञ
करबद्ध प्रकृति भी करती है सत्कार दिवाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
जगती के कोने
कोने में भर देते आलोक सुनहरा
पुलक उठी वसुधा
पाते ही परस तुम्हारा प्रीति से भरा
झूम उठीं कंचन
सी फसलें खेतों में छाई हरियाली
आलिंगन कर कनक
किरण का करता अभिवादन रत्नाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
चित्रकार न कोई
तुमसा इस धरिणी पर उदित हुआ है
निश्चल निष्प्राणों
को गति दी निज किरणों से जिसे छुआ है
सँवर उठा वसुधा
का अंग-अंग सुरभित सुमनों की शोभा से
इन्द्रधनुष की न्यारी सुषमा से पुलकित हर प्राण प्रभाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
स्वर्ण किरण के
तारों से नित बुनी सुनहरी धूप की चादर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
साधना वैद
Sunday, October 4, 2020
सौ टके की बात - लघुकथा
दिन भर जंगल में घूम घूम कर और बाँख से झाड़ियों को काट कर गाँव की औरतों ने तमाम सारी सूखी लकड़ी जमा कर ली थी ! अब सब जल्दी जल्दी इनके बड़े बड़े गट्ठे बाँध कर घर जाने की हडबडी में थीं ! सब एक दूसरे की सहायता भी कर रही थीं और उनके सर पर गट्ठर लदवा भी रही थीं ! सुमरिया इन सबमें सबसे बड़ी बूढ़ी और सयानी थी ! गाँव की औरतें सब सलाह मशवरे के लिए उसीका मुख देखतीं !
“काहे अम्माँ का फ़ायदो भयो परधान मंतरी जी ने गाँव में सबके काजे गैस तो भेज दई लेकिन हमें तो लकड़ियन के काजे रोजई जंगल में आनो पड़त है ! का करें गैस हैई है इत्ती महंगी !”
“अरे नहीं रधिया ! जे बात ना है ! जे बात तो सही है कि गैस को सलंडर महँगो है ! लेकिन फिर भी कोयला से सस्तो पड़त है ! खानों जल्दी बनत है ! धुआँ धक्कड़ नहीं होत है गैस में ! आँखें खराब नईं होत हैं और जब चाही रात बिरात हर समय गैस को चूल्हो तैयार रहत है खाना बनायबे को ! नईं तो औचक से कोई मेहमान आय जइहैं रात बिरात तो आधी रात को बीन बटोर के चूल्हा सिगड़ी जलाओ तौऊ कछु कच्चो पक्को बनि पइहै खायबे को ! है कि नईं ?”
सुमरिया की बात पर सबने समर्थन में सिर हिलाया !
“तो फिर हमें भी तो थोड़ा जुगत से चले की पड़ी है कि नाहीं ? गैस बचायबे के काजे ही तो यह लकड़ी बीनने आनो पड़त है जंगल में ! बच्चों के नहायबे धोयबे के काजे और घर के और सिगरे काजन के लिए तो चूल्हा जलाय सकत हैं ना ! किफायत से गैस जलइहें तो गैस ही सबसे सस्ती पड़त है ! घर जाके हिसाब लगा लीजो तुम सब !”
“अम्मा जे बात तो सच्चई तुमने सौ टका की की है !”
सुमरिया की बात से सब के चहरे पर मुस्कान आ गयी थी और सबकी चाल तेज़ हो गयी थी !
साधना वैद