Saturday, October 31, 2020

यह कौन सी नस्ल है

 



सुनते हैं
लड़कियों की शिक्षा के मामले में
हमारे देश में खूब विकास हुआ है !
लडकियाँ हवाई जहाज उड़ा रही हैं,
लडकियाँ फ़ौज में भर्ती हो रही हैं,
लड़कियाँ स्पेस में जा रही हैं,
लड़कियाँ डॉक्टर, इंजीनियर,
प्राध्यापक, वैज्ञानिक सब बन रही हैं,
अभिनय, नृत्य, गायन, वादन, लेखन
सभी कलाओं में पारंगत होकर
अपना परचम लहरा रही हैं !
फिर यह कौन सी नस्ल है लड़कियों की
जिनका आये दिन बलात्कार होता है,
जिनके चेहरों पर एसिड डाल उन्हें
जीवन भर का अभिशाप झेलने के लिए
विवश कर दिया जाता है,
जो कम दहेज़ लाने पर आज भी
हमारे इसी विकसित देश में
सूखी लकड़ी की तरह
ज़िंदा जला दी जाती हैं,
जिन्हें प्रेम करने के दंड स्वरुप
‘ऑनर किलिंग’ के नाम पर
सरे आम मौत के घाट उतार दिया जाता है,
जो कम उम्र में ही ब्याह दी जाती हैं
और जिनके हाथों से किताब कॉपी छीन
कलछी, चिमटा, चकला, बेलन
थमा दिया जाता है !
जो बारम्बार मातृत्व का भार ढोकर
पच्चीस बरस की होने से पहले ही बुढ़ा जाती हैं !
हाँ, हमारे सैकड़ों योजनाओं वाले देश में
लड़कियों की एक नस्ल ऐसी भी है
जिनके बेनूर, बेरंग, बेआस जीवन में
जीने का अर्थ सिर्फ समलय में
साँसों का चलते रहना ही होता है !
बस, इसके सिवा कुछ और नहीं !


चित्र - गूगल से साभार


साधना वैद

Tuesday, October 27, 2020

कितनी सुन्दर होती धरती

 



कितनी सुन्दर होती धरती, जो हम सब मिल जुल कर रहते

झरने गाते, बहती नदिया, दूर क्षितिज तक पंछी उड़ते

ना होता साम्राज्य दुखों का,  ना धरती सीमा में बँटती

ना बजती रणभेरी रण की, ना धरती हिंसा से कँपती !

पर्वत करते नभ से बातें, जब जी चाहे वर्षा होती

सूखा कभी ना पड़ता जग में, फसल खेत में खूब उपजती

निर्मम मानव जब जंगल की, हरियाली पर टूट न पड़ता

भोले भाले वन जीवों के, जीवन पर संकट ना गढ़ता

जब सब प्राणी सुख से रहते, एक घाट पर पीते पानी

रामराज्य सा जीवन होता, बैर भाव की ख़तम कहानी

पंछी गाते मीठे सुर में, नदियाँ कल कल छल छल बहतीं

पेड़ों पर आरी ना चलती, कितनी सुन्दर होती धरती !




साधना वैद

Sunday, October 25, 2020

कब आओगे राम

 आप सभीको विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं 

हाइकु शैली में राम कथा - कब आओगे राम 


राम जानकी

सतयुगी आदर्श

पूज्य आज भी

करता जग

हृदय से वन्दना

राम राज्य की !

 

न पाया सुख

सम्पूर्ण जीवन में

राजा राम ने

गले लगाया

वानप्रस्थी जीवन

युवा राम ने

 

धार के वेश

औघड़ सन्यासी सा

छोड़ा महल

मूँद ली आँखें

राजसी वैभव से

लगा न पल

 

कौल पिता का

  भटके जंगलों में  

सन्यासी राम

निभाते रहे

वादा दशरथ का

वैरागी राम

 

चले साथ में

सीता और लक्ष्मण

राम के संग

देख दृष्टांत

प्रेम और त्याग का

जग था दंग

 

विनाशे विघ्न

निर्भय ऋषी मुनि

वन महके

खिली प्रकृति

हर्षित वनचर

पंछी चहके

 

फैलाई माया

मोहान्ध सूर्पनखा

मुग्ध राम पे

लक्ष्मण पास

पठाई सूर्पनखा

भैया राम ने !

 

काट दी नाक

कुपित लक्ष्मण ने

अनर्थ हुआ

बदला लेने

रावण ने सीता का

हरण किया

 

हर ली सीता

क्रोधित रावण ने

बिलखे राम

जलने लगी

प्रतिशोध की आग

छिड़ा संग्राम

 

एकत्रित की

सेना शूरवीरों की

वीर राम ने

दिखाई शक्ति

वानर सेना संग

हनुमान ने 

 

जला दी लंका

हार गया रावण

वैदेही आईं

मिली विजय

विजया दशमी को

खुशियाँ छाईं


था धर्मयुद्ध 

जीत हुई धर्म की 

अधर्म हारा 

विजय मिली 

विनाशा बुराई को 

असत्य हारा  

 

हुआ सुखान्त

राम की कहानी का

उल्लास छाया

लौटे अयोध्या

मनाई दीपावली

जग हर्षाया

 

 राम हमारी  

करबद्ध विनती

सुन पाओगे  

शीश काटने 

आज के रावण का

कब आओगे ?

 

मर्यादा धनी

पुरुषोत्तम राम

कथा तुम्हारी

बनी हुई है

युग युगांतर से

शक्ति हमारी

 

साधना वैद

  

 


Thursday, October 22, 2020

राम ने कहा था



    

हे पति अनुगामिनी सीता, हे परम आदर्श सहधर्मिणी !
संसार के हर अर्थ में सर्वोच्च पति परायणा पत्नी सिद्ध होने के बाद भी क्या बताओगी कि अशोक वाटिका से मुक्त होने के बाद अपने निष्कलुष चरित्र पर लोगों के घिनौने आक्षेप तुमने क्यों सहे? अपनी पवित्रता को सिद्ध करने के लिये तुमने अपमानजनक अग्नि परीक्षा देने का प्रस्ताव क्यों स्वीकार किया?

शांत और संयत सीता का उत्तर -“राम ने कहा था !”

अच्छा तो क्या तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारे आत्म नियंत्रण, तुम्हारी आस्था, तुम्हारे आत्म समर्पण, तुम्हारे चरित्र, तुम्हारे पातिव्रत धर्म किसी पर भी तुम्हारे पति मर्यादा पुरुषोत्तम राम को तनिक भी विश्वास न था जो अग्नि परीक्षा के लिए धधकते अंगारों पर चलने के लिए तुम्हें विवश करते हुए उन्हें तनिक भी दुःख न हुआ? चलो मान लेते हैं ! शत्रु के उद्द्यान में इतने दिनों अपहृत होने के बाद एक बंदिनी की तरह रहने के कारण और अन्य सभी उपस्थित समाज के गणमान्य व्यक्तियों की शंका के निवारण हेतु राम ने एक बार तुम्हारी अग्नि परीक्षा ले ली और तुम्हारी पवित्रता को सिद्ध कर तुम्हें अपने साथ अयोध्या ले जाने का मार्ग भी प्रशस्त कर लिया ! अत्यंत त्रासदायक यह समस्त प्रक्रिया व्यर्थ ही सही लेकिन इससे कम से कम तुम्हारी शुचिता तुम्हारी निष्कलंकता तो सिद्ध हो गयी इतनी बात तो समझ में आती है ! लेकिन एक नितांत अनपढ़, असंवेदनशील और मूढ़ मति धोबी की बात पर विचलित हो उन्होंने बिना विचारे तुम्हारा परित्याग कर छल के साथ जो तुम्हें वन में भेज दिया उस बारे में तुम क्या कहोगी ? तुम उस समय गर्भवती थीं उन्होंने इसका भी विचार नहीं किया ? तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम पति, भक्त वत्सल एवं प्रजा प्रेमी श्रीराम इतने कच्चे कानों के निकले कि कायरों की तरह वे स्वयं महल में कपाट बंद कर बैठे रहे और तुम्हें दर दर की ठोकरें खाने के लिए और वन के हिंसक जानवरों के बीच उनका निवाला बन जाने के लिए छोड़ आने का आदेश उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को दे दिया ? क्या श्रीराम का यह आचरण पुरुषोचित था ? क्या प्रजा के प्रति ही उनका कर्तव्य था पत्नी के लिए उनका कोई दायित्व नहीं था ? बोलो सीता तुमने इसका प्रतिकार क्यों नहीं किया ? क्यों तुम बिना कोई प्रतिवाद किये बिना कोई सवाल किये लक्ष्मण के साथ वन में चली गयीं ?” 

अधीर और विचलित सीता का उत्तर – “राम ने कहा था !”

चलो यह अत्यंत क्षीण सा तर्क भी मान लेते हैं कि एक राजा को अपनी प्रजा की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ता है ! राजा बनने के बाद उसका निजी जीवन, इच्छाएं, अपेक्षाएं गौण हो जाते हैं और उसका सम्पूर्ण जीवन अपनी प्रजा और समाज के लिए ही पूरी तरह से समर्पित हो जाता है लेकिन वर्षों अपना जीवन वन में अत्यंत विषम परिस्थितियों में बिताने के बाद जब तुम्हारे पुत्रों लव और कुश को उनके पिता का परिचय मिला और उन्हें पता चला कि वे आश्रम में रहने वाले अकिंचन ऋषिकुमार नहीं है वरन अयोध्या के राजवंश के कुलदीपक हैं और तुम एक साधारण स्त्री नहीं वरन अयोध्या की महारानी सीता हो तथा अयोध्या के राजमहल में तुम्हारा सम्मान और स्थान अभी भी सुरक्षित है फिर तुम्हें धरती माता की गोद में समा जाने की आवश्यक्ता क्यों पड़ गयी ? बोलो सीता ! यह समय तो तुम्हारे सभी दुखों के अंत का था ! तुम्हें तुम्हारा पति, बच्चों को उनका पिता और राजा राम को उनका बिछड़ा हुआ परिवार मिल रहा था ! फिर ऐसा क्यों हुआ कि राम को फिर से तुम्हारी शुचिता तुम्हारी पवित्रता की परीक्षा लेने की आवश्यक्ता हुई और एक बार फिर अपनी असहिष्णुता और असंवेदनशीलता का परिचय देते हुए मूढ़ प्रजा के तर्कहीन लांछनों को महत्त्व दे उन्होंने पुन: तुम्हें अस्वीकार कर दिया ? बोलो सीता तुमने माता धरती का आह्वान क्यों किया था ?”

व्याकुल और विह्वल सीता का उत्तर – “राम ने कहा था !“

जानती हो सीता इस तरह आँख मूँद कर पति की हर सही गलत बात का अनुसरण कर तुमने नारी जाति के लिए कितनी मुश्किलें पैदा कर दी हैं ! आज भी हर पुरुष स्वयं को राम समझता है और अपनी पत्नी से अपेक्षा रखता है कि वह आँख मूँद कर सीता के अनुरूप आचरण करे और अपने साथ हुए हर अन्याय, हर अपमान को चुपचाप बिना कोई प्रतिवाद किये, बिना कोई प्रतिकार किये उसी तरह सहन करती जाए जैसे तुमने जीवन भर किया था ! तुमने पति परायणता के नाम पर कायरता और भीरुता के ऐसे उदाहरण स्थापित कर दिए हैं कि इस परुष प्रधान समाज में नारी का स्थान अत्यंत शोचनीय हो गया है ! जो तुम्हें आदर्श मान तुम्हारे अनुरूप आचरण करे वह तो हर अन्याय, हर अपमान, हर आक्षेप सहने को उसी तरह विवश है ही जिस तरह तुमने किया है जीवन भर ! पर जो विरोध करे विद्रोह करे उसका परिणाम और भी भीषण होता है ! सीता आज की नारी शिक्षित होते हुए भी भ्रमित है कि वह तुम्हारे स्थापित किये आदर्शों को अपनाए या उन्हें सिरे से नकार दे क्योंकि परिणाम तो हर हाल में उसके विपरीत ही होंगे ! जानती हो सीता नारी का जीवन आज भी एक चिरंतन संघर्ष का पर्याय बन चुका है ! हर दिन हर लम्हा हर पल उसे स्वयं को स्थापित करने के लिए युद्धरत होना पड़ता है और हर पल अपनी पवित्रता अपनी शुचिता को बचाए रखने के लिए इस युग में भी भाँति भाँति के असुरों से जूझना पड़ता है ! काश सीता, राजा जनक की अत्यंत दुलारी विदुषी राजकुमारी एवं अयोध्या नरेश श्रीराम की सबल सशक्त महारानी होने के उपरान्त भी तुम इतनी अबला, इतनी अशक्त, इतनी कातर और इतनी निरीह न होतीं !

साधना वैद




Thursday, October 15, 2020

एकाकी मोरनी

 


बाट निहारूँ
कब तक अपना
जीवन वारूँ

आ जाओ प्रिय
तुम पर अपना
सर्वस हारूँ

सूरज डूबा
दूर क्षितिज तक
हुआ अंधेरा

घिरी घटाएं
रिमझिम बरसें
टूटे जियरा

कौन मिला है
कह दो अब नव
जीवन साथी

हम भी तो थे
इस धरती पर
दीपक बाती

कहाँ बसाया
किस उपवन में
नया बसेरा

मुझे बुझा के
पल पल अपना
किया सवेरा


साधना वैद

Friday, October 9, 2020

नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !



नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !

स्वर्ण किरण के तारों से नित बुनी सुनहरी धूप की चादर

नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !

 

शेष हुआ साम्राज्य तिमिर का संसृति में छाया उजियारा

भोर हुई चहके पंछी गण मुखरित हुआ तपोवन सारा

लुप्त हुए चन्दा तारे सब सुन तेरे अश्वों की आहट

जाल समेट रुपहला अपना लौट चला नि:शब्द सुधाकर ! 

नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !

 

स्वर्णरेख चमकी प्राची में दूर क्षितिज छाई अरुणाई

वन उपवन में फूल फूल पर मुग्ध मगन आई तरुणाई

पिघल पिघल पर्वत शिखरों से बहने लगी सुनहली धारा

हो कृतज्ञ करबद्ध प्रकृति भी करती है सत्कार दिवाकर !

नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !

 

जगती के कोने कोने में भर देते आलोक सुनहरा

पुलक उठी वसुधा पाते ही परस तुम्हारा प्रीति से भरा

झूम उठीं कंचन सी फसलें खेतों में छाई हरियाली

आलिंगन कर कनक किरण का करता अभिवादन रत्नाकर !

नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !

 

चित्रकार न कोई तुमसा इस धरिणी पर उदित हुआ है 

निश्चल निष्प्राणों को गति दी निज किरणों से जिसे छुआ है  

सँवर उठा वसुधा का अंग-अंग सुरभित सुमनों की शोभा से

इन्द्रधनुष की न्यारी सुषमा से पुलकित हर प्राण प्रभाकर !  

नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !

 

स्वर्ण किरण के तारों से नित बुनी सुनहरी धूप की चादर !

नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर !

 


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद

 


Sunday, October 4, 2020

सौ टके की बात - लघुकथा

 


दिन भर जंगल में घूम घूम कर और बाँख से झाड़ियों को काट कर गाँव की औरतों ने तमाम सारी सूखी लकड़ी जमा कर ली थी ! अब सब जल्दी जल्दी इनके बड़े बड़े गट्ठे बाँध कर घर जाने की हडबडी में थीं ! सब एक दूसरे की सहायता भी कर रही थीं और उनके सर पर गट्ठर लदवा भी रही थीं ! सुमरिया इन सबमें सबसे बड़ी बूढ़ी और सयानी थी ! गाँव की औरतें सब सलाह मशवरे के लिए उसीका मुख देखतीं !

“काहे अम्माँ का फ़ायदो भयो परधान मंतरी जी ने गाँव में सबके काजे गैस तो भेज दई लेकिन हमें तो लकड़ियन के काजे रोजई जंगल में आनो पड़त है ! का करें गैस हैई है इत्ती महंगी !”

“अरे नहीं रधिया ! जे बात ना है ! जे बात तो सही है कि गैस को सलंडर महँगो है ! लेकिन फिर भी कोयला से सस्तो पड़त है ! खानों जल्दी बनत है ! धुआँ धक्कड़ नहीं होत है गैस में ! आँखें खराब नईं होत हैं और जब चाही रात बिरात हर समय गैस को चूल्हो तैयार रहत है खाना बनायबे को ! नईं तो औचक से कोई मेहमान आय जइहैं रात बिरात तो आधी रात को बीन बटोर के चूल्हा सिगड़ी जलाओ तौऊ कछु कच्चो पक्को बनि पइहै खायबे को ! है कि नईं ?”

सुमरिया की बात पर सबने समर्थन में सिर हिलाया !

“तो फिर हमें भी तो थोड़ा जुगत से चले की पड़ी है कि नाहीं ? गैस बचायबे के काजे ही तो यह लकड़ी बीनने आनो पड़त है जंगल में ! बच्चों के नहायबे धोयबे के काजे और घर के और सिगरे काजन के लिए तो चूल्हा जलाय सकत हैं ना ! किफायत से गैस जलइहें तो गैस ही सबसे सस्ती पड़त है ! घर जाके हिसाब लगा लीजो तुम सब !”

“अम्मा जे बात तो सच्चई तुमने सौ टका की की है !”   

सुमरिया की बात से सब के चहरे पर मुस्कान आ गयी थी और सबकी चाल तेज़ हो गयी थी !

 

साधना वैद