Tuesday, October 26, 2021

मन की बातें - सायली छंद


 


पुकारूँ

नित्य तुम्हें

कहाँ छिपे हो

मेरे प्यारे

गिरिधारी !

 

जब

मैं बुलाऊँगी

तुम आओगे ना

वादा करो

मुझसे !

 

लगता

कितना प्यारा

तुम्हारा सुन्दर मुखड़ा

बलिहारी जाऊँ

मैं !

 

खिले

रंग बिरंगे

फूल उपवन में

हवा लहराई

मदभरी !

 

विसंगति

कैसी अघोर

कविता कोमल तुम्हारी

किन्तु हृदय

कठोर !

 

जीतना

होगा इसे 

किसी भी तरह  

हारेगा नहीं

मन !  


चित्र - गूगल से साभार  

साधना वैद   

Sunday, October 17, 2021

सच्चा दशहरा

 



स्वागत है राम तुम्हारा

तुम्हारी अपनी अयोध्या में !

दशहरे के पावन अवसर पर

लंकाधिपति रावण को पराजित कर

तुम सगर्व सीता को अपने घर

सुरक्षित लौटा तो लाये हो !

लाखों दीप प्रज्वलित कर अयोध्यावासियों ने

दीवाली भी मना ली है !

लेकिन सच कहना राम क्या तुम

वास्तव में पूरी तरह से आश्वस्त हो कि

रावण का वध हो गया है ?

अब इस संसार में कोई भी रावण शेष नहीं ?

अगर ऐसा है राम तो वह कौन था

जिसने अप्रत्यक्ष रूप से

गर्भवती सीता का हरण कर लिया ?

तुम्हारे ही हाथों उसे निष्कासित करवा

दर दर जंगलों में भटकने के लिए और

दुष्कर जीवन जीने के लिए विवश कर दिया ?

क्या वह रावण का प्रतिरूप नहीं था ?  

नहीं राम तुम भ्रमित हो !

रावण एक शरीर नहीं जिसका वध कर

तुम आश्वस्त हो जाओ कि

अब इस संसार में कोई रावण नहीं बचा !

रावण तो एक दूषित मानसिकता है

एक भ्रमित विचारधारा है

जिसने नारी को केवल भोग्या ही माना

न कभी उसका सम्मान किया

न ही कभी उसे उचित संरक्षण दिया !

यह दूषित विचारधारा हर युग में

हर समाज में पैदा होती रहती है !

और इसके विनाश के लिए राम तुम्हें

हर घर में हर परिवार में

अपना एक प्रतिरूप पैदा करना होगा

ताकि समाज के कोने कोने में साँस ले रहे

रावणों का खात्मा हो सके और नारी को

उसकी गरिमा के अनुकूल उचित

संरक्षण और सम्मान प्राप्त हो सके !

जिस दिन समाचार पत्र में

किसी भी स्त्री के शोषण का समाचार नहीं होगा

उसी दिन मेरे लिए सच्चा दशहरा होगा राम

और तब ही तुम्हारे स्वागत में

पूरी श्रद्धा से मैं दीवाली के दीप जला पाउँगी !  

 

साधना वैद  


Wednesday, October 13, 2021

गुलामी

 



सदियों से गुलामी रही है

किस्मत भारत की !

एक बार विदेशी आक्रान्ताओं के सामने

पराजय का विष पीकर

युगों तक गुलामी के जुए के नीचे

गर्दन डाले रखने को विवश रहा है भारत !

पहले विदेशी आक्रमणकारियों की

गिद्ध दृष्टि का निशाना बना भारत !

फिर मुगलों ने इसे लूटा और

इस पर अधिकार जमाया  !

फिर यहाँ के वैभव और समृद्धि ने

अंग्रेजों की आँखों को चौंधियाया

और भारत सदियों तक

खिलौना बना रहा कभी इस हाथ का

तो कभी उस हाथ का !

लेकिन भारत के दुर्भाग्य का भी

एक दिन अंत तो होना ही था !

गुलामी की युगों लम्बी स्याह रात का

एक दिन तो खात्मा होना ही था !

अनेकों युगांतरकारी नेताओं, विचारकों,

क्रांतिकारियों, विद्रोहियों की योजनाओं ने

आज़ादी के प्रथम प्रभात की ओर कदम बढ़ाया

और १५ अगस्त १९४७ का बालारुण 

स्वतंत्र भारत के अभिनन्दन का थाल सजाये

पूर्व दिशा में नभ पर अवतरित हुआ !

हम स्वतंत्र हो गए !

गुलामी के बंधन कट गए !

लेकिन क्या सच में ?

क्या इसी लोकतंत्र का सपना देखा था

हमारे नेताओं ने ?

क्या आज भी हम मानसिक रूप से

गुलाम नहीं हैं उन्हीं प्रदूषित विचारधाराओं के

उसी विषैली मानसिकता के और

उसी अन्यायपूर्ण कार्य प्रणाली के ?  

जागना होगा हमें !

और इस बार हमें मुक्त करना होगा

स्वयं को ही अपनी ही

विदेशी मानसिकता की गुलामी से !

 

साधना वैद


Sunday, October 10, 2021

कटी पतंग

 



ज़िंदगी की धूप छाँव में

सिहरती सिमटती चलती ही जा रही हूँ

सुख दुःख की उँगलियाँ थामे !

साँझ के साथ साथ मन में भी

अन्धेरा घिर आया है

चहुँ ओर पसरा मौन सहमा जाता है मुझे

प्रतीक्षा है सवेरा होने की,

पंछियों के कलरव की मधुर आवाज़ की

मंज़िल दूर है और राह लम्बी

थके हुए हौसले को झकझोर कर

कभी स्वप्न आगे खींचते हैं

तो कभी हताशा पीछे से डोर खींचती है 

और मैं उड़ती ही जाती हूँ

डोर से कटी पतंग की तरह

कभी यहाँ तो कभी वहाँ !

साधना वैद


Saturday, October 2, 2021

विसर्जन

 




तुमसे आख़िरी बार मिलने के बाद

उसी नदी के किनारे कर आई हूँ मैं विसर्जन 

उन सभी मधुर स्मृतियों का

जिन्होंने मेरे हृदय में घर बना लिया था,

उन सभी खूबसूरत पलों का

जिनसे हमारी हर सुबह उजली और

हर शाम रंगीन हो जाया करती थी !

कर आई हूँ तर्पण उन वचनों का

जो कभी हमने एक दूसरे का साथ

जन्म जन्मान्तर निभाने के लिए

एक दूसरे का हाथ थाम लिये थे और

कर दिया है श्राद्ध उन सभी सुखानुभूतियों का

जिनके बिना यह जीवन अब एकदम से

बेनूर, बेरंग, बेआस हो जाने वाला है !

तुम्हारी लिखी जिन चिट्ठियों को मैं

अब तक हृदय से लगा कर संजोती आई थी

उनकी राख और चुन चुन कर तुम्हारे दिए

सभी स्मृति चिन्ह और उपहारों के फूल

एक पोटली में बाँध विसर्जित कर आई हूँ

मैं उसी नदी में जिसके किनारे

हमारे प्रेम भरे गीतों के मधुर स्वर

हवाओं में तैरा करते थे !

आज मैं श्राद्ध कर आई हूँ

एक बहुत ही खूबसूरत रिश्ते का

जो मेरे दिल के सबसे करीब था !

 

साधना वैद