उखड़ा है मन
क्षुब्ध हैं विचार
रौंदे हुए हैं सपने
टूटे हुए हैं हार
स्तब्ध हैं भावनाएं
मुरझाये हैं फूल
हारा हुआ है हौसला
छूटा हुआ है कूल
बेख़ौफ़ हैं मौजें
हैं तूफ़ान के आसार
डूबी जाती है कश्ती
कमज़ोर हैं पतवार
सच यह है कि
किसी भी बात में अब
मन नहीं रमता
क्या कहें कि अब
ऊब और विरक्ति का
दौर नहीं थमता
न कोई मंज़िल है
न कोई रास्ता ही है
न कोई लक्ष्य है
न कोई वास्ता ही है
जिंदगी जैसे दर्द की
रवानी बन कर
रह गयी है
क्या कहें कि ज़िंदगी
बेवजह बेस्वाद सी
कहानी बन कर
रह गयी है !
साधना वैद
चित्र - गूगल से साभार
शायद भूतकाल में ही विचरण करने के कारण ऐसी परिस्थिति आ जाती है ।
ReplyDeleteमन के भावों को ज्यों का त्यों लिख दिया है ।
हार्दिक धन्यवाद संगीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ओंकार जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार(०४-११-२०२२ ) को 'चोटियों पर बर्फ की चादर'(चर्चा अंक -४६०२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका ! सप्रेम वन्दे !
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