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Friday, October 28, 2022

ऊब

 


 

उखड़ा है मन

क्षुब्ध हैं विचार

रौंदे हुए हैं सपने

टूटे हुए हैं हार

स्तब्ध हैं भावनाएं

मुरझाये हैं फूल

हारा हुआ है हौसला

छूटा हुआ है कूल

बेख़ौफ़ हैं मौजें  

हैं तूफ़ान के आसार

डूबी जाती है कश्ती

कमज़ोर हैं पतवार

सच यह है कि

किसी भी बात में अब

मन नहीं रमता

क्या कहें कि अब

ऊब और विरक्ति का

दौर नहीं थमता

न कोई मंज़िल है

न कोई रास्ता ही है

न कोई लक्ष्य है

न कोई वास्ता ही है

जिंदगी जैसे दर्द की

रवानी बन कर

रह गयी है

क्या कहें कि ज़िंदगी

बेवजह बेस्वाद सी

कहानी बन कर

रह गयी है !

 

साधना वैद


चित्र - गूगल से साभार 


6 comments :

  1. शायद भूतकाल में ही विचरण करने के कारण ऐसी परिस्थिति आ जाती है ।
    मन के भावों को ज्यों का त्यों लिख दिया है ।

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    1. हार्दिक धन्यवाद संगीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !

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  2. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद ओंकार जी ! बहुत बहुत आभार आपका !

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार(०४-११-२०२२ ) को 'चोटियों पर बर्फ की चादर'(चर्चा अंक -४६०२) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका ! सप्रेम वन्दे !

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