यह बड़े दुख की बात है कि आज के तथाकथित सभ्य, शिक्षित एवं आधुनिक समाज में भी नारी उत्पीडन का शिकार हो रही है ! समाज के कुछ तथाकथित पुरोधा और चंद महिला संगठन कितने ही दावे कर लें आये दिन समाचारपत्रों में छपी घरेलू हिंसा की शिकार हुई स्त्रियों, दरिन्दगी और दुष्कर्म की शिकार हुई बालिग़ नाबालिग बच्चियों के समाचार स्वयमेव इन दावों को झुठला देते हैं !
सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि जब भी धर्म और
आस्था की बात आती है हीन मानसिकता वाले कुछ पुरुष अपनी इस दुर्भावना को बड़ी दक्षता
के साथ श्रद्धा और भक्ति के मुखौटे के नीचे छिपा कर देवी माँ की पूजा अर्चना
आराधना में डूबे दिखाई देते हैं ! नवरात्र के आरम्भ होते ही देवी की पूजा आराधना
का पर्व आरम्भ हो जाता है जिसे प्राय: अधिकांश सनातन धर्मावलम्बियों के यहाँ बड़े विधि
विधान से मनाया जाता है ! पहले ये पर्व बिना विशेष आडम्बर एवं दिखावे के घरेलू
स्तर पर श्रद्धा भाव से मना लिया जाता था लेकिन इधर कुछ समय से फिल्मों एवं
दूरदर्शन के प्रभाव के कारण इन छोटे छोटे अनुष्ठानों में भी बहुत अधिक आडम्बर और
प्रदर्शन की प्रवृत्ति का समावेश हो गया है ! लोगों के मन में जितनी आस्था, भक्ति या श्रद्धा यथार्थ में नहीं होती उससे कहीं अधिक उसका प्रदर्शन किया
जाता है ! अगर यह श्रद्धा सच्ची है तो प्रश्न यह उठता है कि धार्मिक आस्था बढ़ने के
साथ साथ महिला उत्पीडन के आँकड़े क्यों बढ़ रहे हैं ? यदि पुरुष सच्चे मन से देवी माँ के महत्त्व और
सम्मान के प्रति सजग हैं एवं सच्चे मन से उनकी पूजा करते हैं तो अपने घर परिवार
समाज की स्त्रियों के प्रति उनका सम्मान भाव कहाँ तिरोहित हो जाता है जब वे उन पर
अपनी कुदृष्टि डालते हैं ? क्या यह श्रद्धा भाव केवल मंदिरों में स्थापित पत्थर की
मूर्तियों के लिए ही होता है ! हाड़ माँस की जीती जागती स्त्री को वे केवल भोग की
दृष्टि से ही देखते हैं ? जहाँ तक मेरा
मानना है यहाँ वास्तविक यथार्थ एवं आडम्बर की समस्या है ! यह पूजापाठ व्रत उपवास
अधिकतर पुरुष घर परिवार में युगों से चली आ रही परम्परा के निर्वाह के लिए करते
हैं सच्चे श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर नहीं ! घर के बड़े बूढ़े खुश हो जाएँ और देवी
माँ भी भ्रमित होकर वरदान दे दें बस यही अभीष्ट होता है उनका स्त्रियों के प्रति
उनकी मानसिकता में कोई बदलाव नहीं होता !
धार्मिक आस्था सभी पुरूषों के लिए ढकोसला है
ऐसा तो नहीं कह सकते हाँ यह कहा जा सकता है कि यह एक आदत की तरह हो गयी है जिसे
लोग उसी तरह निभाते हैं जैसे सुबह उठ कर दाँत साफ़ करते हैं या स्नान करते हैं !
इसमें तर्क या बुद्धि का कोई हाथ नहीं होता ! दूर दराज़ के धार्मिक स्थलों पर जाने
के पीछे भी घूमने और सैर सपाटे की इच्छा अधिक होती है सच्चे भक्ति भाव से कम ही
लोग जाते हैं ! सम्पन्नता आने के बाद एवं पर्यटन स्थलों पर जाने व रहने ठहरने की
सुविधाओं में सुधार होने से यह प्रवृत्ति और बढ़ी है इसीलिये पर्यटन में वृद्धि हुई
है ! यह पर्यटन के दृष्टिकोण से शुभ संकेत है लेकिन आस्था के नाम पर पुरुषों का यह
दिखावा नारी के प्रति उनके मन में बसी सच्ची सद्भावना के प्रति उठे संशयों का शमन कदापि नहीं करता !
नारी उत्पीडन के मामलों में वृद्धि का एक अन्य
कारण यह भी है कि आज की नारी शिक्षित तो अवश्य हुई है लेकिन साहस और दुस्साहस में
अंतर करने की समझ उसमें विकसित नहीं हुई है ! वह आधुनिक तो हुई है और हर क्षेत्र
में पुरुषों को चुनौती देकर विजेता भी बनी है लेकिन इस मद में अपनी सीमाओं और
मर्यादाओं का भी कई बार अतिक्रमण कर जाती है और घात लगाए बैठे दरिंदों की कुत्सित
मनोवृत्ति का शिकार हो जाती है !
संस्कार और नैतिकता का पाठ लोगों को घोल कर
नहीं पिलाया जा सकता ! इसके लिए आज के युवाओं को आत्म चिंतन कर अपनी सोच को परिमार्जित करना होगा, अपनी जीवन शैली और आदतों को बदलना होगा ! सुरुचिपूर्ण साहित्य से नाता जोड़ना
होगा और पारिवारिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों और धार्मिक मान्यताओं को सही
अर्थ के साथ फिर से समझना होगा तब ही कुछ बात बन सकेगी ! घर परिवार, शिक्षा संस्थान, एवं समाज के नीति नियंताओं को
भी नए सिरे से पुनर्विचार कर ऐसी व्यवस्था को स्थापित करना होगा कि आज के युवक युवतियों में एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना जागृत हो और वे एक दूसरे को शिकार और
शिकारी के भाव से न देख कर एक दूसरे के सहयोगी और मित्र बन कर सामने आयें तब ही
सकारात्मक परिवर्तन की संभावनाएं पैदा होंगी और समाज में स्त्री पुरुष के स्वस्थ सहअस्तित्व
की आदर्श परम्परा की नींव पड़ सकेगी !
साधना वैद
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteआज के युवा जो कुछ सीखेंगे वो तो बीते हुए कल के युवाओं से ही सीखेंगे.
ReplyDeleteदेखने की बात यह है कि हम बुज़ुर्गों ने अपनी युवावस्था में क्या किया है और आज अपने बुढ़ापे में हम क्या कर रहे हैं.
हम भारतीय एक ओर पाश्चात्य जीवन-मूल्यों का अन्धानुकरण कर रहे हैं तो दूसरी हम पौर्वात्य प्राचीन रूढ़ियों और विवेकहीन मान्यताओं-आस्थाओं का पालन कर रहे हैं.
इस वातावरण में हम युवा पीढ़ी से अपेक्षा कर सकते हैं?
बहुत ही सुन्दर चिंतनपरक प्रतिक्रिया आपकी गोपेश जी ! नारी उत्पीड़न पहले भी होता था आज भी हो रहा है ! चिंता इसी बात की है कि इस क्षेत्र में हमारी सोच हमारे विचारों में स्थिरता क्यों आ गयी है ! या तो मूल्यों का क्षरण हो रहा है या हम आज भी अज्ञान के उसी अँधेरे में कैद हैं जिसमें से बाहर निकलने की शायद हमने कभी कोशिश ही नहीं की ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteनिसंदेह सत्य ..पूजा अर्चना का सम्बंध मात्र परम्पराओं का निर्वाह ही नहीं ..मन की निर्मलता शुभ संस्कार भक्ति का आधार ... सही आने वाली युवा पीढी को कुछ अच्छा और शुभ जो परोसना है .. इस पर काम करने की आवयशकता है ...
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ऋतु जी ! बहुत बहुत आभार आपका सार्थक प्रतिक्रिया के लिए !
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (30-03-2023) को "रामनवमी : श्रीराम जन्मोत्सव" (चर्चा अंक 4651) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
Deleteकुंठित मानसिकता वाले पुरुष देवी के मंदिर में भी सामने देवी की मूर्ति की पूजा अर्चना करते हैं और साथ खड़ी स्त्री/ लड़की पर कुदृष्टि रखते हैं। कुछ लोगों की घृणित मानसिकता के कारण समाज में नारी उत्पीड़न है।
ReplyDeleteसौ प्रतिशत सहमत हूँ आपसे रूपा जी ! बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार आपका सार्थक प्रतिक्रिया के लिए !
Deleteसार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ओंकार जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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