कैथरीन और नागा
साधुओं की रहस्यमयी दुनिया
इस बार मेरी
इंदौर उज्जैन की यात्रा बहुत ही फलदायी सिद्ध हुई क्योंकि वहाँ से लौटते समय मैं जब
12 सितम्बर 2023 को भोपाल में आदरणीया संतोष श्रीवास्तव जी से मिलती हुई आई तब
उन्होंने अपने नए उपन्यास, ‘कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया’, की एक प्रति
मुझे बतौर सौगात भेंट की जो अब मेरे निजी पुस्तकालय की चंद अनमोल पुस्तकों की सूची
में शुमार हो गयी है ! सर्वप्रथम संतोष जी का बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार कि इस
पुस्तक के माध्यम से उन्होंने मेरे लिए एक ऐसी दुनिया के दरवाज़े खोल दिये जिसके
बारे में बचपन से ही जिज्ञासा तो बहुत थी लेकिन साथ ही शंकाएं भी बहुत थीं ! सिंहस्थ
के विश्व प्रसिद्ध मेले में जिस तरह से पूर्ण रूप से निर्वस्त्र ये नागा साधू
सार्वजनिक स्थलों पर घूमते दिखाई देते थे उन्हें देख कर मन में कहीं एक अजीब तरह
का संशय उठता था, संकोच भी होता था, अनेकों सवाल भी मन में सर उठाते थे और एक अजीब सी सिहरन और
जुगुप्सा की भावना भी मन को घेर लेती थी !
मेरा बचपन मध्य प्रदेश में ही बीता ! उज्जैन मेरा गृह नगर है जहाँ हर बारहवें वर्ष
में सिंहस्थ का विश्व प्रसिद्ध धार्मिक मेला आयोजित किया जाता है ! इस मेले के साथ
धर्म. आस्था, आध्यात्म और कर्मकांड का इतना सघन ताना बाना
बुना हुआ होता है कि इसके व्यावसायिक पहलू की ओर तो कभी ध्यान जाता ही नहीं ! मुझे
अपने बचपन की याद है ! उस समय के छोटे से उज्जैन शहर में जैसे आदमियों का समंदर उमड़ा
आता था और सब के सब किसी महंत, किसी महात्मा, किसी धर्माचार्य, किसी साधू बाबा की शरण में जाने को आतुर जैसे
उनके दर्शन मात्र से उनकी सारी सांसारिक समस्याओं का निवारण हो जाएगा और उन्हें
जीते जी ही जैसे मोक्ष मिल जाएगा ! महात्माओं की इन असंख्य टोलियों में नागा
साधुओं की भी टोली होती थी ! बिलकुल निर्वस्त्र औघड़ सन्यासी, बदन पर भस्म लपेटे, लाल-लाल आँखों वाले, गुस्सैल साधुओं की टोली जिनकी ओर
देखने मात्र से ही रूह काँप जाती थी ! जाने कब, क्यों और कैसे
एक भय सा मन में जड़ें जमा चुका था कि अगर इनसे नज़र मिल जाए तो ये बच्चों को
सम्मोहित करके अपना दास बना लेते हैं और अपने साथ अपहरण करके जंगलों में ले जाते
हैं ! इसलिए कभी इनकी ओर नज़र भर के देखने की हिम्मत ही नहीं हुई ! अनेकों गेरुआ
वस्त्रधारी सन्यासियों की भीड़ में इनकी संख्या बहुत कम होती थी लेकिन भय इनका सबसे
प्रबल होता था !
मैं संतोष जी की बहुत-बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने इस अछूते और विरल विषय को अपनी
पुस्तक की कथावस्तु के लिए चुना और उस पर इतना प्रामाणिक एवं विश्वसनीय उपन्यास रच
दिया ! इसमें संदेह नहीं कि इस उपन्यास को लिखना उनके लिए भी कदापि आसान नहीं रहा
होगा ! इसीलिये इसे लिखने में पूरे सात वर्ष का समय लगा उन्हें ! नागा साधुओं के
इतिहास के बारे में सामग्री हर पुस्तकालय में या हर शहर में आसानी से उपलब्ध भी नहीं
होगी ! यह तो पूरा थीसिस वर्क है जिसके लिए उन्हें गहन अध्ययन और शोध की प्रक्रिया
से गुज़रना पड़ा होगा !
इस उपन्यास के
आमुख में संतोष जी ने लिखा है, ”मैंने महाकुम्भ में बिताये दिनों को नागा साधुओं
के अखाड़े में जाना, उनके रहस्यमय जीवन की
जानकारी लेना, उनका साक्षात्कार लेना, उनके विषय में बारीक से बारीक जानकारी लेने में ही खर्च
किया !” ( पृष्ठ संख्या 7 )
इसी पृष्ठ पर
वे आगे कहती हैं, “नागा साधुओं पर ऐसा कोई ग्रन्थ या पुस्तक मुझे
उपलब्ध नहीं हुई जिससे मैं सन्दर्भ लेती ! उपन्यास में नागा साधुओं पर जो कुछ भी
मैंने लिखा है वह नागा अखाड़ों से प्रत्यक्ष ली जानकारी के अनुसार है !” ( पृष्ठ
संख्या 7 )
यह सारी
प्रक्रिया उनके लिए कितनी श्रमसाध्य लेकिन संतोषप्रद रही होगी यह इसी बात से प्रकट
हो जाता है कि उन्होंने अपनी यह पुस्तक हमारे देश के इन्हीं नागा साधुओं को
समर्पित की है ! समर्पण की शब्दावली देखिये ! एक-एक शब्द से ध्वनित होता है कि
उन्हें इन नागा साधुओं पर कितना गर्व है !
समर्पण
“मेरे देश के
नागा साधुओं को जिनका त्याग, तप, और
शौर्य इतिहास
में दर्ज है, जिन्होंने सनातन धर्म और देश
के रक्षार्थ
शस्त्र और शास्त्र एक कमांडो की तरह उठाए !” ( पृष्ठ संख्या – 5 )
नागा साधुओं पर
किये गए अपने गहन शोध को पाठकों तक पहुँचाने के लिए संतोष जी ने इसे एक बेहद
खूबसूरत उपन्यास का रूप दिया जिसने इसकी रोचकता में कई गुना वृद्धि की ! इस कला
में संतोष जी को पहले से ही महारत हासिल है ! उनके ऐसे कई उपन्यास और कहानियाँ
पाठकों के हृदय पर आधिपत्य जमाये हुए हैं जिनमें बड़ी ही कुशलता से प्रेम के
इन्द्रधनुषी रंगों के तानों बानों से प्रणय कथाएँ बुनी गयी हैं !
इस उपन्यास के
नायक नरोत्तम गिरी का संन्यास लेने का निर्णय उसके असफल प्रेम की परिणति ही था !
और फिर इसी उपन्यास में प्रेम का एक और अति उदात्त और निष्काम रूप भी हम देखते हैं
कैथरीन के प्यार में जो वह नरोत्तम से करती है लेकिन जिसमें केवल त्याग ही त्याग
है, उत्सर्ग ही उत्सर्ग है ! न कुछ माँगने की वृत्ति है, न कुछ पाने की लालसा
!
इस उपन्यास को
पढ़ कर और नागा साधुओं के बारे में विस्तार से जान कर जो सबसे बड़ा भ्रम टूटा वह यह
था कि बचपन से यही सोचते समझते आये थे इस तरह साधू वे ही लोग बनते होंगे जो कुछ
लिख पढ़ नहीं पाते, जो अपने सांसारिक जीवन में
असफल रहते होंगे या जिन्हें घर परिवार में समाज में स्वीकृति, प्यार और सम्मान
नहीं मिलता होगा ! लेकिन इस उपन्यास का नायक मंगल, जो नागा साधू बनने के बाद
नरोत्तम गिरी के नाम से जाना गया, एक बहुत ही ज़हीन खगोलशास्त्री था ! वह इसरो में
वैज्ञानिक बनना चाहता था ! अपने घर में अपने माता-पिता, बहन-भाई का बेहद प्यारा था
! बस कुछ अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव का था शायद इसीलिये अपने मन की बात खुल कर
अपनी प्रेमिका से नहीं कह पाया जो बाद में उसके बड़े भाई कीरत से विवाह कर उसकी
भाभी के रूप में उसके घर में आ गयी ! संस्कार, मर्यादा और
नैतिक मूल्यों की श्रंखलाओं में बँधा मंगल उसकी उपस्थिति को अपने ही घर में
बर्दाश्त नहीं कर पाया इसीलिये सांसारिक जीवन से विमुख हो गया और उज्जैन के
सिंहस्थ के मेले में नागा साधुओं के संपर्क में आने के बाद उसने संन्यास लेने का
मन बना लिया !
केवल नरोत्तम
गिरि ही नहीं गोमुख के तपोवन में जिन जानकी देवी से नरोत्तम की मुलाकात होती है वे
भी देश विदेश में घूमी हुई उच्च शिक्षिता विदुषी महिला थीं जो बहुत ही संपन्न
परिवार से थीं लेकिन पति के निधन के बाद वे विरक्त होकर यहीं आकर बस गयी थीं और एक
सन्यासिनी का जीवन बिता रही थीं ! भोजवासा की गुफा में दो नागा साधू और थे, महाकाल गिरि एवं अष्ट कौशल गिरि, जो नरोत्तम गिरि के साथ
रहते थे, वे भी प्रकांड पंडित थे और ऑस्ट्रेलिया से आई युवती, कैथरीन बिलिंग, को नागा साधुओं से जुड़ा सारा इतिहास
विस्तार से आद्योपांत इन्हीं तीनों साधुओं ने सुनाया ! नागा पंथ की कैसे स्थापना
हुई, कितने अखाड़े हैं, कितने शक्ति पीठ हैं और कहाँ स्थित हैं, इन अखाड़ों का क्या इतिहास है, किस शक्ति पीठ की क्या कहानी
है, नागा साधुओं को दीक्षित होने से पूर्व कितनी कठिन साधना करनी पड़ती है और कितनी
परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है, यह समूचा वृत्तांत बहुत ही रोमांचक भी है और रोचक भी
! दिमाग के अँधेरे कोनों में जैसे सहसा ही प्रकाश भर गया और तमाच्छादित हर वस्तु
स्पष्ट नज़र आने लगी !
नरोत्तम गिरि से प्रशिक्षण लेने वाले समूह में भी कई उच्च शिक्षित युवा प्रशिक्षु
थे जो अपना उज्जवल भविष्य और ऊँचे वेतन वाली नौकरियाँ छोड़ कर संन्यास का पंथ अपना
रहे थे और नागा साधू बनना चाहते थे !
संतोष जी लिखती
हैं, “27 वर्षीय प्रशांत कुमार राय ने कच्छ से मरीन इंजीनियरिंग में डिप्लोमा
हासिल किया था ! इसके लिए उसे अच्छी खासी तनख्वाह भी मिलती थी पर वह सब कुछ त्याग
कर नागा साधू बनने चला आया ! 29 वर्षीय शम्भूनाथ यूक्रेन से मैनेजमेंट में
ग्रेजुएट है ! 18 वर्षीय शांतनु उज्जैन से 12 वीं बोर्ड का टॉपर है !” ( पृष्ठ
संख्या 188 )
ये नाम काल्पनिक हो सकते हैं लेकिन हमें पूर्ण विश्वास है कि जब उपन्यास के लिए
सम्यक जानकारी जुटाने के लिए संतोष जी ने नागा साधुओं के डेरों में चक्कर लगाए
होंगे तो ऐसे शिक्षित नागा साधुओं से उनकी भेंट अवश्य हुई होगी ! इसके अतिरिक्त
प्रशिक्षण केन्द्रों में नागा साधुओं को लैप टॉप का प्रयोग करना सिखाया जा रहा है, सबके पास स्मार्ट फोन्स हैं यह इस बात के परिचायक हैं कि
ये कंद मूल फल खाकर रहने वाले कमंडल धारी साधारण सन्यासी नहीं हैं ! समय के साथ
कदम से कदम मिला कर चलने वाले आधुनिक ज्ञान विज्ञान के ज्ञाता उच्च शिक्षित
सन्यासी हैं जो वक्त पड़ने पर किसी भी चुनौती का सामना करने में सर्वथा सक्षम हो
सकते हैं !
इतनी विषद
जानकारी प्राप्त करने के बाद भी एक शंका फिर भी मेरे मन में बहुत उग्रता से सर
उठाती है ! आज के समाज में, सामाजिक समस्याओं के
परिप्रेक्ष्य में इस नागा साधुओं की उपयोगिता या उपादेयता क्या है ? संभव है
सदियों पूर्व, जैसा कि इस पुस्तक में उद्धृत है, इन नागा साधुओं ने अपने शस्त्र और
शास्त्र के अभ्यास और ज्ञान का उपयोग कर तात्कालिक किसी समस्या का निवारण किया हो
लेकिन वर्तमान में तो मुझे ऐसा कोई प्रसंग याद नहीं आता, न ही कभी पढ़ने में आया, कि किसी गंभीर समस्या का समाधान ढूँढने में प्रत्यक्ष या
परोक्ष रूप से इनकी कोई छोटी सी भी भूमिका रही हो ! ऐसा तो नहीं कि देश किसी संकट
से नहीं गुज़रा ! पिछले सौ वर्ष का इतिहास ही खंगाल लें तो दो तो बड़े-बड़े विश्व
युद्ध ही हुए जब अंग्रेजों की हुकूमत के आधीन भारत के अनगिनती सैनिकों ने युद्ध के
मैदान में अपनी शहादत दर्ज की ! गुलामी की बेड़ियों से भारत माता को मुक्त कराने के
लिए आंतरिक युद्ध भी पूरी उग्रता से चल रहा था ! क्रान्ति की आग में सारा देश झुलस
रहा था ! 1947 में देश को विभाजन का दर्द सहना पड़ा ! हज़ारों लोगों ने हिंसा की
चपेट में आकर अपने प्राण गँवाए ! आज़ादी के बाद सन 62 में चीन से युद्ध, सन 64 में पाकिस्तान से युद्ध, सन 71 में फिर बांग्लादेश की खातिर पाकिस्तान से युद्ध, सन
1999 में कारगिल युद्ध हुए लेकिन कभी भी किसी भी मोर्चे पर इन नागा साधुओं की
शस्त्र विद्या काम नहीं आई ! धार्मिक मतभेद भी कम नहीं हुए ! राम जन्मभूमि विवाद, कृष्ण जन्मभूमि विवाद, बाबरी मस्जिद
का ढहाया जाना, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर बनने से पूर्व वाराणसी का तनावपूर्ण वातावरण
और वर्तमान में ज्ञान वापी मस्जिद का विवाद ! ये महत्वपूर्ण मुद्दे रहे हैं जिन पर
बड़े-बड़े गेरुआ वस्त्रधारी धर्माचार्यों ने बड़ी स्पष्टता से अपना पक्ष रखा है ! टी
वी पर आकर विचार विमर्श में हिस्सा भी लिया है लेकिन नागा साधुओं की टोली वेदों,
उपनिषदो और शास्त्रों के सम्यक ज्ञान और विद्वत्ता के बाद भी मौन रही ! फिर इनकी
जीवन शैली और रहन सहन ऐसा है कि सभ्य समाज में सार्वजनिक स्थानों पर या टी वी के
टॉक शोज़ में इन्हें कभी बुलाया नहीं गया, न स्वयं इन्होंने ही कभी आने की पहल की !
फिर इनका यह ज्ञान कब काम आयेगा ? क्या ये केवल आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा और
आत्मतुष्टि में ही खुश रहते है ? समाज के प्रति इनका कोई दायित्व नहीं है ?
उपन्यास के एक अंश में कैथरीन भोजवासा की गुफा में जब नागा साधुओं से मिलती है तो
उनसे पूछती है कि वे सन्यासी क्यों हैं ? वे साधना क्यों करते हैं ? और उन्हें
इससे क्या मिलता है ? जवाब में अष्ट कौशल गिरि उसे बताते हैं, ”हम कुछ पाने के लिए
साधना नहीं करते ! इस सृष्टि के तंत्र को चलाने के लिए हम साधना करते हैं ! हम
साधना करते हैं कि सबका कल्याण हो ! इसके लिए हम खुद को समाप्त कर देते हैं ! सारी
विषय वासना को, लोभ, मोह को ! विषय
में पड़ कर तो मनुष्य विषय भोगी हो जाता है !” ( पृष्ठ संख्या 70 )
क्या यह आत्मश्लाघा नहीं ? कौन तय करेगा कि इनके तप से समाज का कितना भला हुआ या
हो रहा है ? क्या समाज में जो व्यभिचार, अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार व्याप्त है
उसका निवारण ये नहीं कर सकते ? कैसे पता चले कि इनके तप और साधना से किसका, कितना
और कौन सा कल्याण हुआ है ! यदि ये सत्कर्मो का श्रेय लेना चाहते हैं तो दुष्कर्मों
का ठीकरा किसके सर पर फोड़ा जाएगा ! यह संतोष जी के लेखन का ही कमाल है कि सोई हुई
चेतना अनायास जागृत हो गयी है और मन में विचारों का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है !
संतोष जी ने उपन्यास लिखने में बड़ी मेहनत की है इसमें संदेह नहीं है ! इसमें इतनी
रोचकता है कि एक बार हाथ में उठा लेने के बाद इसे रख देने का मन ही नहीं होता !
कैथरीन का ही एक और प्रतिरूप जैसे हमारे अन्दर प्रवेश कर हमें भी उसीकी तरह जिज्ञासु
बना जाता है ! लगता है यही सवाल तो हमें भी उद्दीप्त कर रहे हैं जो कैथरीन इन नागा
साधुओं से पूछ रही है और हमें भी इनके जवाब चाहिए !
कैथरीन के सवाल
भोजवासा की गुफा में तप करने गए तीनों विद्वान् नागा साधुओं को निरुत्तर कर जाते
हैं ! वे स्वयं आत्मचिंतन करने के लिए विवश हो जाते हैं जब कैथरीन नागा साधू बनने
के लिए दीक्षित किये जाते समय उनके लिंग भंग किये जाने वाले संस्कार को चुनौती
देती है !
“यह कैसा संस्कार ? यह तो अमानवीय ही नहीं बल्कि ईश्वर का अपमान भी है ! ईश्वर ने
जिसे पुरुष बनाया उसे नपुंसक बनाना क्या प्रकृति और ईश्वर का अपमान नहीं है ? आप
एक अच्छे खासे व्यक्ति के पूर्णत्व को अपूर्णता में बदल देते हैं ! लाचार कर देते
हैं उसे ! क्या आप सब तप से अपनी इन्द्री को वश में नहीं रख सकते ? क्या ऐसा करके
आपके तप की ओर बढ़े कदम लड़खड़ा नहीं जाते ? यह कैसा तप ?” ( पृष्ठ संख्या 61 - 62 )
वाकई यह कैसा तप है ? किसी भी पुरुष की एक प्रकृतिजन्य नैसर्गिक कामना को तुष्ट
करने के अंग को ही पूरी तरह से निष्क्रिय कर दिया जाए और फिर इसे अपने तप की
सिद्धि का नाम दिया जाए यह तो कदापि उचित नहीं ! यह संस्कार न किया जाए और फिर इन
साधुओं का परीक्षण किया जाए तब ज्ञात होगा कि कितने नागा साधू वास्तव में इसमें
सफल होते हैं ?
तपस्वियों को
कठोर तप एवं साधना से यह सिद्धि प्राप्त हो जाती है कि अपने मन के विकारों पर विजय
पाकर वे बिलकुल निर्विकार हो जाते हैं और कोई भी प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं पाता ! काम, क्रोध, लोभ, मोह वे विकार हैं जिन पर विजय प्राप्त कर एक सामान्य
व्यक्ति असाधारण हो जाता है, दिव्य हो जाता है, अलौकिक हो
जाता है ! साधू संत महात्मा इन विकारों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं इसीलिये दिव्य
पुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं ! क्या इस उपन्यास के नागा साधू इन विकारों पर
पूर्ण रूप से नियंत्रण कर पाए हैं ?
‘काम’ पर नियंत्रण पाने के लिए तो बलात उनकी इंद्री को मृत कर दिया जाता है और इस
अमानवीयता को संस्कार का नाम देकर इस हिंसा को महिमामंडित कर दिया जाता है ! मंगल
के नरोत्तम गिरि बनने से पूर्व उसे किन परीक्षाओं से गुज़रना पड़ा उसका बड़ा ही
मर्मभेदी चित्रण है इस उपन्यास में जिससे सभी नागा साधुओं को गुज़रना पड़ता है !
“नरोत्तम तुम्हें चट्टान बनना है ! और अपने अन्दर उगी दूब को सहेजना है !’ उसके
भीतर से आवाज़ आई और उसने देखा सुबह हो चुकी है ! और अखाड़े का एक वरिष्ठ नागा उसकी
ओर बढ़ रहा है ! उसके पास आते ही उसने नरोत्तम का लिंग हाथ से दबाया और बम बम भोले
करते हुए उसके लिंग की नस खींच कर तोड़ दी ! उसे नपुंसक बना दिया ! नरोत्तम बिलबिला
उठा !...आज बचा खुचा मंगल भी समाप्त हो गया !’ ( पृष्ठ संख्या 41 ) क्या इसे ‘काम’
नाम के विकार पर विजय प्राप्त करना कहेंगे ?
दूसरे विकार का नाम है ‘क्रोध’ ! नागा साधू स्वभाव से ही उग्र होते हैं ! चिलम गाँजा
के प्रयोग से इनकी आँखे हमेशा लाल रहती हैं और बात-बात पर क्रोधित हो जाना इनकी
प्रकृति है ! स्वत्व की रक्षा के लिए या शत्रु को परास्त करने के लिए शस्त्र उठाना
वीरोचित है लेकिन ये केवल अपने वर्चस्व के लिए अन्य साधुओं की टोली से उलझ पड़ते
हैं और उनके बीच खूनी संघर्ष भी हो जाते हैं ! शैव एवं वैष्णव नागाओं में खूनी
संघर्ष का इतिहास पुराना रहा है ! इसी उपन्यास में नागा संतों के खूनी इतिहास के
बारे में हनुमानगढ़ी के गिरिराज गिरि महंत कैथरीन को बताते हैं, ‘बाल आनंद गिरि
आचार्य जी का उद्देश्य धर्म के स्थापना करना था उनकी बनाई नागा सेना सन्यासियों के
अत्याचार के खिलाफ लड़ती या फिर जो वैष्णव सम्प्रदाय आश्रम रास्ते से भटक गए हैं
उन्हें समझा बुझा कर रास्ते पर लाना था ! यह सेना लाठी, बल्लम, तलवार, फरसा आदि से लैस रहती ! उसी दौरान हरिद्वार का कुम्भ नज़दीक
आया तो देश भर के वैष्णवों का आह्वान किया गया ! सब लोग इकट्ठा हुए और साजो सामान
के साथ हथियारों से लैस होकर हरिद्वार पहुँचे ! वहाँ हमारे पूर्वजों का शैव
सन्यासियों से बहुत बड़ा युद्ध हुआ ! गंगा खून से लाल हो गयी !... महंत गौरी शंकर
दास के मुताबिक़ आज भी हरिद्वार में उस युद्ध में मारे गए नागाओं की समाधियाँ हैं
!’ ( पृष्ठ संख्या 230 – 231 )
वर्तमान
में भी विभिन्न अखाड़ों के नागा साधुओं में आपस में झड़प के सामाचार अक्सर सुनने में
आ जाते हैं ! काम क्रोध से परे सन्यासियों का यह कैसा रूप ? न ये क्रोध पर
नियंत्रण रख पाए न अपने दंभ एवं अहंकार से मुक्ति पा सके !
‘लोभ’ की बात जहाँ आती है तो इन नागा साधुओं को किसी भौतिक वस्तु, रुपये पैसों का
कोई मोह नहीं होता यह निर्विवाद है ! क्योंकि जिस पंथ को इन्होंने अपनाया है उसमें
तो इन्हें रूमाल की भी आवश्यकता नहीं होती लेकिन कठोर तप और कठिन दिनचर्या का जीवन
व्यतीत करने वाले इन फक्कड़ साधुओं का वैभव और इनके शिविरों आश्रमों की शान शौकत कुम्भ
के मेलों में देखते ही बनती है ! इसी उपन्यास का एक अंश देखिये ! प्रयाग में
आयोजित महाकुम्भ मेले में अखाड़ों की सज्जा का चित्रण करते हुए संतोष जी लिखती हैं,
‘चमक-दमक साज-सज्जा और दिखावे में एक दूसरे से होड़ लेते अखाड़ों के गेट किले या महल
के गेट जैसे शानदार हैं ! जूना अखाड़े और अन्य नामी गिरामी अखाड़ों के आगे तो कारों
और जीपों की लाइन लगी थी ! कारों में केसरिया परदे लगे थे और यह सारी व्यवस्था
निरासक्त, वैरागी, नंग धडंग, नागा साधुओं के लिए जिन्होंने कामेच्छा पर विजय पा ली थी,
उनके चेलों चपाड़ों ने की थी !’ ( पृष्ठ
संख्या 157 )
इसी पेज पर ज़रा भोजन का वर्णन भी देखिये, ‘भोजन भी अन्य दिनों से बिलकुल अलग ! कभी
पूड़ी, सब्जी, हलवा, पुलाव ! कभी कढ़ी, चावल, भरता, कोफ्ते, राजभोग, चमचम, रसगुल्ले ! उनके चेले उन्हें आग्रह कर कर के परोसते !” (
पृष्ठ संख्या 157 )
इस राजसी वैभव
का आनंद उठाने में इन नागा साधुओं को कोई आपत्ति भी नहीं थी ! फिर यह कैसा तप ?
नरोत्तम गिरि के साथ इसी अखाड़े में उपस्थित दूसरे नागा साधू गीतानंद गिरि
ऑस्ट्रेलिया से आई आद्या, रॉबर्ट और उनके जापानी
साथी को देख कर अपने पास बुला लेते हैं ! वे आद्या को चिलम का सुट्टा मारने के लिए
अपनी चिलम देते हैं और फिर उससे अपने पैर दबाने के लिए कहते हैं ! सीधी सादी आद्या
गीतानंद गिरि के पैर दबाती है ! सवाल यह है उसने आद्या से ही क्यों कहा पैर दबाने
के लिए ? रॉबर्ट से भी कह सकता था, या उनके साथ आये जापानी
साथी से भी कह सकता था ! लेकिन उसने आद्या को ही चुना ! आद्या नरोत्तम गिरि को
देखती है तो पहचान जाती है ! वह नरोत्तम से भी पूछती है पैर दबाने के लिए तो वह यह
कह कर इनकार कर देता है कि वह थक जायेगी ! इस पर गीतानंद का उत्तर सुनिए. “क्यों
थकेंगी ? लो अब हमारी पीठ भी मल दो 1” ( पृष्ठ संख्या 158 ) क्या यह लोभ के
परिचायक नहीं ? क्या इसमें गीतानंद गिरि की शरारत नज़र नहीं आती ?
‘मोह’ एक ऐसा विकार है जो मनुष्य का आजीवन पीछा नहीं छोड़ता ! इस उपन्यास के नायक
उदात्त चरित्र वाले नरोत्तम गिरि भी अपवाद नहीं रहे ! कठोर तप वाला दुष्कर जीवन
जीने के बाद और विधि विधान से नागा साधू की तरह दीक्षित होने के बाद भी अपने मन से
अपने प्रथम प्यार दीपा को वे विस्मृत नहीं कर पाए, अपने माता पिता की स्मृतियों को
नहीं भुला पाए और कैथरीन के उदात प्रेम, उसकी
विद्वत्ता और अपने प्रति उसके मन में उपजी आत्मीयता से असम्पृक्त नहीं रह पाए !
कैथरीन के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी और मानसिक विचलन की अवस्था में संबल
के लिए वे कैथरीन के आश्रय में ही जाना चाहते थे ! एक प्रकार से कैथरीन नरोत्तम की
फ्रेंड, फिलोसोफर और गाइड सभी कुछ बन गयी थी ! नरोत्तम
को उसका साथ अच्छा लगता था ! फोन के माध्यम से, लैप टॉप के माध्यम से दूर रहने पर
भी वे दोनों एक दूसरे का सहारा बने हुए थे और मानसिक स्तर पर एक दूसरे के साथ थे !
प्रेम का यह रूप सबसे सुन्दर, सबसे ऊँचा और सबसे महान था ! जिसमें दोनों में से
किसीको भी एक दूसरे से किसी भौतिक सुख की अपेक्षा नहीं थी ! दोनों की दुनिया
बिलकुल अलग थी लेकिन फिर भी दोनों का एक दूसरे पर अटल विश्वास था, भरोसा था और दोनों एक दूसरे के प्रति प्लेटोनिक प्रेम की
अनुभूति में आकंठ डूबे हुए थे ! कैथरीन के प्रति अपनी आसक्ति से नरोत्तम भी आतंकित
था ! प्रयाग में कुम्भ के मेले में जब कैथरीन नरोत्तम को अपने निर्जन टेंट में ले
जाती है तो ज़रा नरोत्तम की मनोदशा को देखिये !
‘इस एकांत में कैथरीन का सौन्दर्य आह्वान सा कर रहा था ! सम्पूर्ण प्रकृति एकाकी
संगिनी लग रही थी ! मानो उसके सामने था चराचर जगत का पूर्ण सत्य ! स्त्री पुरुष से
ही यह संसार बसा है ! नारी से सर्वथा अपरिचित अकेले में उसके साथ ... घबरा गया नरोत्तम
! उसकी ज़िंदगी में यह कैसी नारी की भूमिका ? दीपा ने भी आगे बढ़ कर उसे निमंत्रित
किया था और कैथरीन ने अभिमंत्रित ! इसमें कहीं नरोत्तम नहीं है ! कहीं उसकी ओर से
याचना या आग्रह नहीं है ! वह दो नारियों के असीमित सूत्र को पकड़ पाने में असमर्थ
है !” ( पृष्ठ संख्या 172 )
दीपा की यादों से नरोत्तम कभी मुक्त नहीं हो सका ! घनानन्द नाम के एक शिष्य की
शक्ल दीपा से मिलती जुलती देख वह विचलित हो जाता है ! घनानन्द का असली नाम विशाल
है जो वास्तव में नरोत्तम के भाई कीरत सिंह और दीपा का ही बेटा है ! लेकिन नरोत्तम
इस तथ्य से अनभिज्ञ है ! उसे देख कर वह दीपा को याद करता है और बेचैन हो जाता है !
क्या यह मोह का परिचायक नहीं ? उपन्यास की पृष्ठ संख्या 190 पर यह वृत्तांत पढ़िए !
यहाँ वह कैथरीन को दीपा से जुड़े अपने अतीत के बारे में सब कुछ बता कर हल्का हो
जाता है ! जैसे उसे कही कैथरीन से यह सत्य छिपाने का अपराध बोध था ! वाराणसी से जब
कैथरीन वापिस जाने के लिए उद्यत होती है नरोत्तम स्वीकार करता है, “परसों तुम चली
जाओगी ! कुछ दिन ज़रूर विचलित रहूँगा फिर वही साधना, जाप, तप ! अब
जीवन तो इसीको दे दिया न कैथरीन !” (
पृष्ठ संख्या 245 )
‘नरोत्तम गिरि फ़रिश्ते के रूप में आई कैथरीन को देखता रह गया ! जिसने कभी यह नहीं
कहा कि तुम मेरे साथ आओ ! हमेशा यही कहा कि काश मैं तुम्हारे साथ होती ! प्रेम की
इस ऊँचाई की तो नरोत्तम गिरि ने कभी कल्पना भी नहीं की थी ! ‘ ( पृष्ठ संख्या 245
)
नरोत्तम गिरि का सारा जीवन संसार से विरक्त एक नागा सन्यासी की तरह कठोर जप तप साधना
आराधना के अनुशासन में और युवा नागा साधुओं के प्रशिक्षण में बीता लेकिन उसके मन
में प्रज्वलित प्रेम की लौ कभी मद्धम नहीं हुई ! अपने अतीत के दीपा के साये को वह
खुद से कभी दूर नहीं कर पाया और वर्तमान में कैथरीन को उसने कभी खुद से दूर करना
नहीं चाहा ! यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी उसके अवचेतन में दीपा मौजूद थी और वह
कैथरीन से उसे दीपा के साए से बचाने की याचना करता है ! सन्निपात की अवस्था में वह
कैथरीन से कहता है, “देखो....वह...दीपा... दीपा का साया ! दरवाज़े से होते हुए मेरे
पाँयते खड़ा है ! बेरहम, धोखेबाज, प्रेम को शर्मिन्दा करता कुटिल साया ! कैथरीन देखो उसके
चहरे की छल भरी मुस्कान !” ( पृष्ठ संख्या 249 )
यह मोह नहीं तो और क्या है ! मृत्यु से पूर्व कैथरीन के प्रति भी नरोत्तम अपराध
बोध से ग्रस्त है वह उससे भी क्षमा याचना सी करता है, “तुम्हारे प्यार का मोल नहीं चुका पाया कैथरीन ! क़र्ज़ लेकर
जा रहा हूँ ! अगले जन्म के लिए !” ( पृष्ठ संख्या 249 ) नरोत्तम गिरि का महाप्रयाण
हमें भी व्यथा के सागर में डुबो गया !
आदरणीया संतोष जी को इस अनमोल पुस्तक को लिखने के लिए अनेकानेक बधाई देना चाहती
हूँ ! इतने जटिल विषय पर यह सबसे प्रामाणिक एवं बोधगम्य पुस्तक है जहाँ नागा
साधुओं के सन्दर्भ में हर प्रकार की जानकारी एक ही स्थान पर उपलब्ध है ! संतोष जी
ने जितने विस्तार से सभी अखाड़ों का इतिहास, शक्ति पीठों
के नाम, उनसे जुड़ी कहानियाँ, वहाँ की अधिष्ठात्री देवी का नाम वहाँ के भैरव के
बारे में समुचित जानकारी को इस उपन्यास की कहानी में पिरोया वह वास्तव में अचंभित
कर जाता है ! संतोष जी के अकथनीय श्रम एवं समर्पण को मेरा शत-शत नमन है ! इतना तो
मैं दावे से कह सकती हूँ कि यदि अब किसीको भी नागा साधुओं के बारे में अपनी
जिज्ञासा शांत करनी हो तो उसे इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए ! यहाँ उसके मन
में उमड़ते-घुमड़ते सारे सवालों के जवाब सम्पूर्ण प्रामाणिकता के साथ उसे मिल
जायेंगे !
उपन्यास की कथावस्तु तो विरल एवं विलक्षण है ही उसका निर्वाह भी बहुत ही खूबसूरती
के साथ किया गया है ! पात्र बहुत ही सीमित हैं इसलिए कहानी में कहीं उलझाव नहीं है
! भाषा विषयानुकूल बहुत ही सहज, सरल एवं बोधगम्य है !
संवाद प्रसंग के अनुकूल कहानी में रत्न की तरह दमकते हुए प्रतीत होते हैं ! इस
उपन्यास को पढ़ कर मन मस्तिष्क को इतनी भरपूर खुराक मिली है कि कई दिनों तक कुछ और
पढ़ने की न तो मन में लालसा जागेगी न ही किसी भी अन्य पुस्तक में मन रमेगा !
संतोष श्रीवास्तव जी को इस उपन्यास के लिए मेरी बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं हैं
! उनकी समर्थ लेखनी से इसी तरह की अनमोल कृतियाँ लिखी जाती रहें जो पाठकों को ज्ञान
व अनुभूति के स्तर पर और समृद्ध करती रहें यही कामना है !
इतने सुन्दर उपहार के लिए हार्दिक धन्यवाद संतोष जी ! मेरी आत्मीय बधाई एवं
शुभकामनाएं स्वीकार कीजिये !
साधना वैद
33/23, आदर्श नगर, रकाब गंज,
आगरा, उत्तर प्रदेश
पिन .. 282001
मोबाइल ...
9319912798
e-mail ... sadhana.vaid@gmail.com
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