मेरी बहुत
अच्छी वाली मम्मी,
लगभग ३८ साल हो गए तुमको गए हुए लेकिन क्या ३८ पल के लिए भी कभी मेरे ख्यालों से, मेरी यादों से, मेरी चेतना से, मेरे हर क्रिया
कलाप से तुम विलग हुई हो? तुम्हारे बिना सुबह कैसी होती है, दिन कैसा होता है, रात कैसी होती
है कभी जाना ही नहीं| कभी तुम्हें याद करने की सायास कोशिश तो की ही नहीं लेकिन किसी
भी पल तुम्हें भूली हूँ वह भी तो याद नहीं आता| हर छोटे से छोटा काम करते वक्त पता
नहीं कैसे पार्श्व से तुम्हारा ही चेहरा झाँकने लगता है| चाहे किचिन में खाना बनाना
हो, कविता कहानी लिखनी हो, अचार डालना हो या सिलाई, कढ़ाई बुनाई करनी हो| जहाँ भी अटक
जाती हूँ तुम पता नहीं कहाँ से आ जाती हो और चुटकियों में मेरे मानस पटल पर अवतरित
हो मेरी उलझन सुलझा कर अंतर्ध्यान हो जाती हो|
“क्या कर रही है! नमक आधा कर! कड़वी हो जायेगी सब्जी|”
“अरे! समझाया था न तुझे बॉर्डर के बाद स्वेटर की पूरी लम्बाई का जब एक तिहाई रह
जाए तब आर्महोल के फंदे छाँटते हैं! अभी से छाँट देगी तो स्वेटर ऊँचा हो जाएगा
ना!”
“अरे इस फूल को लॉन्ग एंड शॉर्ट स्टिच से काढ़ ले शेडेड धागे से बहुत सुन्दर
लगेगा|”
और यूँ तुम्हारे जाने के इतने साल बाद भी मुझ पर तुम्हारे नियंत्रण की डोर अभी भी
उसी तरह से कसी हुई है जैसे तब हुआ करती थी जब मैं स्कूल कॉलेज जाया करती थी|
कभी तुम्हारे प्यार की, तुम्हारी परवाह की तब कद्र ही नहीं की मम्मी| आज सोचती हूँ
तो मन पश्चाताप से और आँखें आँसुओं से भर जाती हैं| ज़रा-ज़रा सी बात पर मैं गुस्सा
हो जाती थी| तुमसे रूठ जाती थी और अबोला ठान कर बैठ जाती थी अपने कमरे में| तब तुम कितना मनाती थीं, अपने हाथों से
कौर बना कर मुझे खिलाती थीं और मैं निष्ठुर सी तुम्हारे हर प्रयास को निष्फल सा
करती जाती थी| मुझे याद है शादी से पहले एक बार तुमसे बहुत नाराज़ हो गयी थी मैं|
तुम कितनी स्नेहमयी हो, संवेदनशील हो, कोमल हृदय की हो सारी बातें झूठी लगती थीं| मुझे दुःख था
जब तुम मेरे मन को नहीं समझ सकीं, मेरी पीड़ा को नहीं पहचान पाईं, मेरी व्यथा की
गहराई नहीं नाप सकीं तो तुम्हारा कवियित्री होने का कोई अर्थ नहीं है लेकिन मैं उस
समय नहीं समझ सकी थी कि तुम इन सबसे ऊपर एक ‘माँ’ थीं जो कभी अपने बच्चों का अहित
नहीं होने दे सकती ! वह बच्चों के जीवन में आने वाले संभावित खतरों को पहले ही भाँप
लेती है और फिर मान अपमान हानि लाभ के समीकरणों को भूल वह सबसे पहले बच्चों को
अपने सुदृढ़ और कठोर संरक्षण में छिपा लेती है फिर चाहे उसमें बच्चों को अपना दम
घुटता सा ही क्यों न लगे| उस समय सारी दया माया भूल
वह सिर्फ एक तटस्थ रक्षक होती है जिसे किसी भी कीमत पर अपने बच्चों के हितों की
रक्षा करनी होती है|
अपनी उस नादानी के लिए मुझे आज भी बहुत संताप होता है मम्मी| उस समय तुम निष्ठुर
नहीं हो रही थीं निष्ठुर तो मैं हो रही थी| उन दिनों की
स्मृति को मैं अपने जीवन से मिटा देना चाहती हूँ लेकिन कोई ऐसा रबर या इरेज़र भी तो
नहीं मिलता कहीं जो यह चमत्कार करके दिखा दे|
तुमसे जुड़ी न जाने कितनी बातें हैं जो आज भी मेरे मन और आँखें दोनों को भिगो जाती
हैं| मुझे याद है ज़िंदगी भर तुम अपनी हर नई साड़ी सम्हाल कर बक्से में रख देती थीं
और तब तक खुद नहीं पहनती थीं जब तक पहले मैं उसे ना पहन लूँ| मेरी शादी के बाद भी
इस परम्परा में कभी व्यवधान नहीं आया| जब मैं मायके आती तो सबसे
पहले तुम्हारा संदूक खुलता और अपनी सारी नई साड़ियाँ तुम मुझे निकाल कर दे देतीं,
“जो पसंद हो ले लो जो नहीं पसंद हो पहन कर नई कर दो फिर मैं पहन लूँगी|”
अब वर्षों से यह सिलसिला बंद हो चुका है| लेकिन नई साड़ी देखते ही तुम्हारा सरल तरल
चेहरा आँखों के आगे प्रगट हो जाता है और मेरे नैनों को भी तरल कर जाता है| दो महीने
और बचे हैं| पूरे ७६ वर्ष की हो जाऊँगी लेकिन मन अभी भी बच्चा ही है और तुम्हारे
सानिध्य के लिये तड़पता है| याद आता है कि ज़रा सा ज्वर
आते ही जहाँ बाबूजी डॉक्टर बुलाने के लिये उपक्रम करते थे तुम चुपके से राई नोन
लाल मिर्चें मुट्ठी में दबा कर नज़र उतारने की जुगत में व्यस्त हो जाती थीं| बाबूजी को यही लगता था कि यह डॉक्टर की दवा का असर था कि
मैं इतनी जल्दी ठीक हो गयी लेकिन तुम्हारा विश्वास अडिग होता था कि मेरा ज्वर
तुम्हारे नज़र उतारने की वजह से भागा है|
एक कविता तुम्हारे लिए लिखी थी आज तुम्हें ही समर्पित कर रही हूँ !
ममता की छाँव
वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ
जो बाबूजी की
लाई
हर नयी साड़ी का
उद्घाटन
मुझसे कराने के
लिये
महीनों मेरे
मायके आने का
इंतज़ार किया
करती थीं ,
कभी किसी नयी
साड़ी को
पहले खुद नहीं
पहना !
वह तुम्हीं हो
सकती थीं माँ
जो हर सुबह नये
जोश,
नये उत्साह से
रसोई में आसन
लगाती थीं
और मेरी पसंद
के पकवान बना कर
मुझे खिलाने के
लिये घंटों
चूल्हे अँगीठी
पर कढ़ाई करछुल से
जूझती रहती थीं
!
मायके से मेरे
लौटने का
समय समाप्त
होने को आ जाता था
लेकिन पकवानों
की तुम्हारी लंबी सूची
कभी खत्म ही
होने को नहीं आती थी !
वह तुम्हीं हो
सकती थीं माँ
मेरा ज़रा सा
उतरा चेहरा देख
सिरहाने बैठ
प्यार से मेरे माथे पर
अपने आँचल से
हवा करती रहती थीं
और देर रात में
सबकी नज़र बचा कर
चुपके से ढेर
सारा राई नोन साबित मिर्चें
मेरे सिर से
पाँव तक कई बार फेर
नज़र उतारने का
टोटका
किया करती थीं
!
वह तुम्हीं हो
सकती थीं माँ
जो ‘जी अच्छा
नहीं है’ का
झूठा बहाना बना
अपने हिस्से की
सारी मेवा मेरे
लिये बचा कर
रख दिया करती
थीं
और कसम दे देकर
मुझे
ज़बरदस्ती खिला
दिया करती थीं !
सालों बीत गये
माँ
अब कोई देखने
वाला नहीं है
मैंने नयी साड़ी
पहनी है या पुरानी ,
मैंने कुछ खाया
भी है या नहीं ,
मेरा चेहरा
उदास या उतरा क्यूँ है ,
जी भर आता है
तो
खुद ही रो लेती
हूँ
और खुद ही अपने
आँसू पोंछ
अपनी आँखें
सुखा भी लेती हूँ
क्योंकि आज
मेरे पास
उस अलौकिक
प्यार से अभिसिंचित
तुम्हारी ममता
के आँचल की
छाँव नहीं है
माँ
इस निर्मम बीहड़
जन अरण्य में
इतने सारे
‘अपनों’ के बीच
होते हुए भी
मैं नितांत
अकेली हूँ !
न जाने कितना
कुछ उमड़ता आ रहा है तुमसे कहने को मम्मी लेकिन जानती हूँ अब इस अरण्यरोदन का कुछ
हासिल नहीं है| लेकिन यही सोच कर तसल्ली कर लेती हूँ कि अब तुमसे मिलने के दिन
समीप आते जा रहे हैं| जो कुछ मैंने तुम्हारे
जाने के बाद यहाँ मिस किया है वह सब कुछ तुम्हारे पास आकर सूद सहित वसूलूँगी| बहुत
याद आती है तुम्हारी हँसी, तुम्हारी बातें, तुम्हारी कवितायेँ, तुम्हारे
स्वादिष्ट व्यंजन और तुम्हारा प्यार भरा आँचल| मुझे सब कुछ जीना है एक बार फिर से
तुम्हारे साथ| मुझे जल्दी आना है तुम्हारे और बाबूजी के पास| अब कभी रूठ कर नहीं बैठूँगी कोपभवन में यह वचन देती हूँ| इस बार मुझे क्षमा कर दो ना| तुम्हारी गोद
में सोने को आतुर,
तुम्हारी साधना
साधना वैद
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ओंकार जी ! बहुत-बहुत आभार आपका !
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