Monday, January 18, 2010

सुधियों का क्या ... !

सुधियों का क्या ये तो यूँ ही घिर आती हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब चंदा ने तारों ने मेरी कथा सुनी
जब उपवन की कलियों ने मेरी व्यथा सुनी
जब संध्या के आँचल ने मुझको सहलाया
जब बारिश की बूँदों ने मुझको दुलराया ।
भावों का क्या ये तो यूँ ही बह आते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब अंतर्मन में मची हुई थी इक हलचल
जब बाह्य जगत में भी होती थी उथल-पुथल
जब सम्बल के हित मैंने तुम्हें पुकारा था
जब मिथ्या निकला हर इक शब्द तुम्हारा था ।
नयनों का क्या ये तो बरबस भर आते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब मन पर अनबुझ संतापों का फेरा था
जब जग की छलनाओं ने मुझको घेरा था
जब गिन गिन तारे मैंने काटी थीं रातें
जब दीवारों से होती थीं मेरी बातें ।
छालों का क्या ये तो यूँ ही छिल जाते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब मन में धधका था इक भीषण दावानल
जब आँखों से बहता था इक सागर अविरल
जब दंशों ने था दग्ध किया मेरे दिल को
जब गिरा न पाई मन पर पड़ी हुई सिल को ।
ज़ख्मों का क्या ये तो यूँ ही रिस जाते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।


साधना वैद

6 comments:

  1. sudhiyo ka kya is thought provoking
    and interesting poem .best wishes
    for writing continuously in such a
    way.
    Asha

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  2. जब मन में धधका था इक भीषण दावानल
    जब आँखों से बहता था इक सागर अविरल
    जब दंशों ने था दग्ध किया मेरे दिल को
    जब गिरा न पाई मन पर पड़ी हुई सिल को
    ज़ख्मों का क्या ये तो यूँ ही रिस जाते हैं
    पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा .....

    दिल के जज्बातों का अच्छा वर्णन किया है ...... धारा प्रवाह रचना है .........

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  3. जब मन पर अनबुझ संतापों का फेरा था
    जब जग की छलनाओं ने मुझको घेरा था
    जब गिन गिन तारे मैंने काटी थीं रातें
    जब दीवारों से होती थीं मेरी बातें ।
    छालों का क्या ये तो यूँ ही छिल जाते हैं
    पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

    लेखन में बहुत विशेषज्ञ नहीं हु मैं, परन्तु इतना कह सकता हूँ क़ि ह्रदय को छु जाने वाला छंद है यह.

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  4. जब मन पर अनबुझ संतापों का फेरा था
    जब जग की छलनाओं ने मुझको घेरा था
    जब गिन गिन तारे मैंने काटी थीं रातें
    जब दीवारों से होती थीं मेरी बातें ।
    छालों का क्या ये तो यूँ ही छिल जाते हैं
    पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

    मन को छू गई आपकी रचना.....

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  5. जब मन में धधका था इक भीषण दावानल
    जब आँखों से बहता था इक सागर अविरल
    जब दंशों ने था दग्ध किया मेरे दिल को
    जब गिरा न पाई मन पर पड़ी हुई सिल को
    ज़ख्मों का क्या ये तो यूँ ही रिस जाते हैं
    पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा .....
    मएमस्पर्शी अभिव्यक्ति है शुभकामनायें

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  6. बहुत सुन्दर लिखा है आपने... उम्दा...

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