Wednesday, August 13, 2014

आस का दीप


अपने अंतर्मन के
आस के इस दीप में
स्वयम् को पिघला कर
अब तक प्रति पल
डालती रही हूँ ,
अपने स्वत्व को
सुलगा कर अब तक
इस दीपक की बाती को
सतत जलाये रखने का
उपक्रम करती रही हूँ ,
अपनी हथेलियों की ओट दे
संसार की तमाम झंझाओं और
आँधियों से इसे अब तक
बचाती रही हूँ !
सिर्फ इस आस में कि
जब कभी तुम आओगे
तो मेरे मन के निविड़
अन्धकार में भटक कर
कहीं तुम्हें ठोकर
ना लग जाये !
अब देखना यह है
कि मेरा सर्वांग
शेष हो जाने से पहले
तुम आ पाते हो
या नहीं या फिर मेरा
समूचा अस्तित्व
तुम्हारे अनिश्चित
आगमन की प्रतीक्षा में
इस नितांत सूने निर्जन
तिमिरमय कमरे को ही
आलोकित करने में
व्यर्थ हो जायेगा
और जब तुम आओगे
तब तुम्हारा स्वागत
करने के लिये 
ना तो मैं ही रहूँगी
ना तुम्हारी राह
रोशन करने के लिये
यह दीप ही रहेगा !
  

साधना वैद

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