कंसंट्रेशन कैम्प’ जो जर्मनी में म्यूनिख से लगभग सोलह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और हिटलर के शासन काल में लगभग 12 वर्षों तक असंख्य यहूदियों और राजनैतिक कैदियों को अमानवीय यंत्रणाएं देने के लिये तथा गैस चैंबर में उनकी निर्मम रूप से ह्त्या कर देने के प्रयोजन के लिये प्रमुख केन्द्र रहा है !
सन् 2006 के नये वर्ष का पहला दिन था ! हमें डकाऊ कंसंट्रेशन कैम्प देखने
के लिये ट्रेन से जाना था ! सुबह जल्दी तैयार होकर हम हौपबन्हौफ़ मेट्रो स्टेशन
पहुँचे ! साफ़ सुथरा प्लेटफार्म देख कर मन प्रसन्न हो गया ! एस-बैन ट्रेन पकड़ कर हम
10-15 मिनिट्स में ही कन्संट्रेशन कैम्प साईट के स्टेशन पर पहुँच गये ! उस अति
आधुनिक और खूबसूरत ट्रेन में बैठना भी एक सुखद अनुभव था ! कैम्प साइट पर हर तरफ़
बर्फ ही बर्फ़ का साम्राज्य था ! आसपास के पेड़ जड़ से शिखर तक बर्फ से ढके थे ! बाहर
सडकों पर हाड़ कँपा देने वाली ठण्ड पड़ रही थी लेकिन यह तो सभी को विदित है कि वहाँ
बस, ट्रेन तथा सारी इमारतें वातानुकूलित होती हैं ! तापमान ज़ीरो डिग्री से भी कई
अंक नीचे था ! स्टेशन से 726 नंबर की बस पकड़ कर हम कैम्प साईट पर पहुँच गये !
कैदियों को यंत्रणाएं देने के लिये यहाँ अनेकों टॉर्चर सेंटर्स थे जिन्हें
पर्यटक आज भी जैसे का तैसा देख सकते हैं ! इनके अलावा कैदियों को प्रताडित करने के
लिये और भी कई अनोखे तरीके काम में लाये जाते थे ! जेल के रूप में इस्तेमाल होने वाले छोटी-छोटी कोठरियों वाले
लंबे गलियारे आज भी यहाँ मौजूद हैं जिनमें उस वक्त के कई नामचीन लोग हिटलर की
दुर्भावनापूर्ण नीतियों का शिकार होकर यातनापूर्ण जीवन बिताने के लिये विवश हुए थे
! बर्फ से ढके खुले मैदानों में लकड़ी के तीन मंजिला बैरेक्स की ३२ कतारें उन दिनों
हुआ करती थीं जिनमें कैदी भेड़ बकरियों की तरह ठूँस दिये जाते थे और वे जानवरों से
भी बदतर हालात में रहने के लिये मजबूर कर दिये जाते थे !कैदी यहाँ पर हर वक्त भयभीत और आतंकित रहते थे ! दस्तावेज़ बताते हैं कि यहाँ एक बार में 15000 कैदी तक रहे हैं ! यहाँ पर कई स्टैंडिंग सेल थे जो इतने छोटे होते थे कि उसमें बंद किया जाने वाला व्यक्ति बैठ भी नहीं सकता था ! कई दिनों के लिये उन्हें बतौर सज़ा इन सेल्स में खड़ा कर दिया जाता था और तीन दिन में ब्रेड का मात्र एक पीस उन्हें खाने के लिये दिया जाता था ! कैदियों को बेरहमी से चाबुक से धुना जाता था ! उन्हें कड़ी ठण्ड में निर्वस्त्र कर दिया जाता था और घंटों के लिये अटेंशन की मुद्रा में खड़े रहने के लिये मजबूर किया जाता था ! खम्भे या पेड़ से उन्हें लटका दिया जाता था और पैरों में भारी पत्थर या ईंटें बाँध दी जाती थीं ! और सर्वोपरि स्नान के बहाने उन्हें सामूहिक रूप से गैस चैम्बर्स में ले जाकर छत में लगे शॉवर्स से पानी की जगह ज़हरीली गैस छोड़ कर जान से ही मार दिया जाता था !
डकाऊ के दस्तावेज़
32000 मौतों की पुष्टि करते हैं लेकिन वास्तविक संख्या इससे भी कहीं ज्यादह है ! कहते
हैं कि 1942 में लगभग बत्तीस हज़ार कैदियों को अशक्त और बीमार होने की वजह से
हर्थेम कासिल में एक ही दिन में ज़हरीली गैस देकर मार दिया गया था ! कई कैदी
बीमारी, भूख, कमज़ोरी और ठण्ड से वैसे ही मर जाते थे ! कई जो यंत्रणा नहीं झेल
पाते थे स्वयं आत्महत्या कर लेते थे ! ऐसे कई किस्से हैं जो कैम्प की खामोश दीवारें
संवेदनशील कानों को सुनाने के लिये आतुर दिखाई देती हैं ! कैम्प में ही विद्युत
शवदाह गृह बने हुए थे जिनमें मृत कैदियों को जलाया जाता था ! एक ही दिन में सैकड़ों
मृत शरीरों को यहाँ पर बनी हुई बिजली से चलने वाली दो भट्टियों में राख में तब्दील
कर देने के साक्ष्य यहाँ के दस्तावेजों में आज भी उपलब्ध हैं ! इस स्थान को
मेमोरियल बनाने के बाद क्रीमेटोरियम की दीवार पर यहाँ मारे जाने वाले यहूदियों के
सम्मान में एक शिलालेख लगा दिया गया है जिस पर जर्मन भाषा में लिखा है, “सोचो, हम
यहाँ किस तरह से मरे हैं !“
अमानवीय व्यवहार की पराकाष्ठा क्या हो सकती है और आम इंसान की यंत्रणा सहने
की क्षमता कितनी असीम हो सकती है इसका अनुभव यहाँ आने के बाद ही मुझे हुआ ! भारी मन
एवं सजल नयनों से उन सभी भुक्तभोगियों को नमन कर हम वहाँ से लौट तो आये लेकिन कितने
दिनों तक उस जगह की दारुण स्मृतियाँ दिल दिमाग पर अधिकार जमाये रहीं और कितने
दिनों तक मन असम्पृक्त और विचलित रहा यह बता पाना मेरे लिये नितांत असंभव है !
साधना वैद


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