Tuesday, December 26, 2017

वह सर्दी की रात थी


वह सर्दी की रात थी
कड़कड़ाती ठण्ड थी
घना कोहरा था
बुझा बुझा सा अलाव था
सीली लकड़ियों से फैला
धुआँ ही धुआँ था चहुँ ओर
और थीं कडुआती आँखें !

घर से दूर
परिवार से दूर
अपने गाँव से दूर
उसे याद आ रही थीं
माँ के हाथ की बनी
चूल्हे से उतरी
गरम गरम रोटियाँ
बैंगन का भरता
और सिल बट्टे पर पिसी
मिर्च और लहसुन की
सुर्ख लाल चटनी !

इन नेमतों से दूर
बुझे अलाव के सामने
भूख से कुलबुलाती आँतों को
कस के घुटने से दबा
सर्द ज़मीन पर
पतली सी चादर से यथासाध्य
अपने तन को लपेटे
काँप रहा है वो
किस सुनहरे भविष्य की आस में
यह तो शायद वह
खुद भी नहीं जानता !

कहीं दूर से गाने की
आवाज़ आ रही है
“आगे भी जाने न तू
पीछे भी जाने न तू
जो भी है बस यही एक पल है”
उसका मन सहसा
बगावत कर उठता है
अगर वर्तमान का
यही एक पल सब कुछ है
तो नहीं चाहिए उसे यह
कँपकँपाती ठंडी रात
यह बर्फ सी सर्द ज़मीन
यह सीली लकड़ियों के धुँए से
कड़ुआती आँखें
यह बुझा अलाव और
गर्म चाय की
एक प्याली के लिए
तरसती जिह्वा !

एक निश्चय उसकी
इस उदासी को पल भर में
दूर कर जाता है 
उसे गाँव वापिस जाना है
कोई भी भौतिक लालसा
उसकी माँ से
उसके घर परिवार से
उसके गाँव से 
बढ़ कर हो ही नहीं सकती !

उसे जाना होगा
वापिस अपने घर
अपनों के बीच
अपनों के लिए
और खुद अपने भी लिए
और फिर इसके बाद
इस हाड़ कँपाती ठण्ड में भी
उसे बहुत गहरी नींद आई
जैसे एक नन्हा बालक
सो जाता है अपनी
माँ के आँचल में 
शांत बेसुध !
  


साधना वैद 





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