Sunday, February 24, 2019

सम्भल के रहना अपने घर में .....





अपने बचपन की यादों के साथ देश प्रेम और देश भक्ति के जो चन्द गाने आज भी ज़ेहेन में गूँजते हैं उनके सम्मोहन से इतने वर्षों बाद आज भी मुक्त हो पाना असम्भव सा लगता है । संगीत के सूक्ष्म गुण दोषों के पारखी महान संगीतकारों के लिये हो सकता है ये गीत अति सामान्य और साधारण गीतों की श्रेणी में शुमार किये जायें लेकिन बालमन पर इनका प्रभाव कितना स्थायी और अमिट होता था यह मुझसे बढ़ कर और कौन जान सकता है । “ दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल “, “ आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झाँकी हिन्दुस्तान की “ ,“ सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा “ , जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा “ ऐसे ही और भी ना जाने कितने गीत थे जिनको सुनते ही मन गर्व से भर उठता था और आँखे भावावेश से नम हो जाया करती थीं । उन्ही दिनों एक गीत और बहुत लोकप्रिय हुआ था जो वर्तमान समय में जितना सामयिक और प्रासंगिक है उतना शायद उन दिनों में भी नहीं होगा । वह गीत है _ “ कहनी है एक बात हमें इस देश के पहरेदारों से सम्भल के रहना अपने घर में छिपे हुए ग़द्दारों से “ । इस गाने की सीख को हम क्यों भुला बैठे ? यदि हमने इस बात पर ग़ौर किया होता तो आज हमारे देश को ये छिपे हुए ग़द्दार इस तरह से खोखला नहीं कर पाते ।
समाचार पत्र और टी वी के सभी न्यूज़ चैनल आतंकवादियों के नये-नये कारनामों और भारत के समाज और सरज़मीं पर उनकी गहरी जड़ों के वर्णन से रंगे रहते हैं । लेकिन क्या कभी कोई इस पर विचार करता है कि कैसे ये आतंकवादी ठीक हमारी नाक के नीचे इतने खतरनाक कारनामों को अंजाम दे लेते हैं और हम बेबस लाचार से इनके ज़ुल्म का शिकार हो जाते हैं और प्रतिकार में कुछ भी नहीं कर पाते । इसकी सिर्फ एक वजह है कि यहाँ चप्पे-चप्पे पर उनके मददगार बैठे हुए हैं जो उनकी हर तरह से हौसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं , उनकी ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं और अपने देश और देशवासियों के साथ ग़द्दारी कर रहे हैं । कोई उनको नकली पासपोर्ट बनाने में मदद कर रहा है, तो कोई उनको सैन्य गतिविधियों और संवेदनशील ठिकानों की जानकारी उपलब्ध करा रहा है, तो कोई उन्हें अपने घर में शरण देकर उनका आतिथ्य सत्कार कर रहा है और उन्हें अपने नापाक इरादों को पूरा करने देने के लिये अवसर प्रदान कर रहा है तो कोई उन्हें उनकी आवश्यक्ता के अनुसार हथियार और विस्फोटकों की आपूर्ति कर रहा है । जैसे कि वे कोई आतंकवादी नहीं हमारे कोई अति विशिष्ट सम्मानित अतिथि हैं । और आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे “ मेहमान नवाज़ “ समाज के निचले वर्ग में ही नहीं मिलते ये तो समाज के हर वर्ग में व्याप्त हैं । नेता हों या अभिनेता , सैनिक अधिकारी हों या प्रशासनिक अधिकारी , प्राध्यापक हों या विद्यार्थी , धर्मगुरू हों या वैज्ञानिक , कम्प्यूटर विशेषज्ञ हों या वकील , सेना या पुलिस के जवान हों या ढाबों और चाय की दुकानों पर काम करने वाले ग़रीब तबके के नादान कर्मचारी जिनमें दुर्भाग्य से अबोध बच्चे भी शामिल हैं , सब अपने छोटे-छोटे व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये अवसर पाते ही देश के साथ ग़द्दारी करने से पीछे नहीं हटते । फिर चाहे कितने ही निर्दोष लोगों की जान चली जाये या देश की फ़िज़ा में कितना ही ज़हर क्यों ना घुल जाये । इनके अंदर का भारतवासी मर चुका है । ये सिर्फ लालच का एक पुतला भर हैं जिन्हें ना तो देश से प्यार है ना देशवासियों से । किसी को पैसों का लालच है तो किसीको धर्म के नाम पर गुमराह किया जाता है । अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को दबा ये अपने विदेशी आकाओं की बीन पर नाचने के लिये मजबूर हो जाते हैं ।
विदेशों से आये आतंकवादियों की खोजबीन में जितनी कसरत कवायद की जाती है उसकी आधी भी यदि घर के भेदी इन “ विभीषणों “ को पहचानने में और उन पर कड़ी कार्यवाही करने में लगाई जाये तो आधी से ज़्यादह समस्या खुद ही समाप्त हो जायेगी और आतंकवादियों की जड़ें ढीली हो जायेंगी क्योंकि इनकी मदद के बिना बाहर से आये विदेशी आतंकवादी आसानी से घुसपैठ कर ही नहीं सकते । जब तक स्थानीय लोगों का साथ और सहयोग इन दुर्दांत आतंकवादियों को मिलता रहेगा इनके हौसले बुलन्द रहेंगे और मुम्बई, दिल्ली, गुजरात और हैदराबाद, उडी, पुलवामा जैसी भीषण काण्ड घटित होते रहेंगे । अनेकों निर्दोष लोगों की बलि चढ़ती रहेगी और अनगिनत घर परिवार उजड़ते रहेंगे ।
सवाल यह उठता है कि देश का कामकाज चलाने के लिये और लोगों की सुरक्षा के लिये जिन ज़िम्मेदार व्यक्तियों को यह काम सौंपा है यदि वे ही अपने कर्तव्यपालन से चूक जाते हैं या बेईमानी पर उतर आते हैं तो आम आदमी किसके पास जाये अपनी फरियाद लेकर ? ऐसी स्थिति में हमें स्वयम ही खुद को सबल, समर्थ और सक्षम करना होगा । मेरा सभी भारतवासियों से निवेदन है कि सजग रहिये, सतर्क रहिये, चौकन्ने रहिये अपनी आँखे और कान खुले रखिये, यदि कोई भी संदेहास्पद गतिविधि या व्यक्ति आपकी नज़र में आते हैं तो उसे अनदेखा मत करिये और अपने देश को ऐसे ग़द्दारों के हाथों खोखला होने से बचाइये । देश को तोड़ने वालों की कमी नहीं है । आज ज़रूरत है देश को जोड़ने वालों की । उसे एकता के सूत्र में पिरोने वालों की । आज अपने देश की पहरेदारी के लिये हमें खुद कमर कस कर तैयार रहना होगा और इन छिपे हुए ग़द्दारों से अपने देश को बचाना होगा । अपने कर्तव्य को पहचानिये और मातृभूमि के प्रति अपने ऋण को चुकाने से पीछे मत हटिये । अशेष शुभकामनाओं के साथ आप सभी को मेरा जय भारत ! जय हिन्दोस्तान !

साधना वैद

Thursday, February 21, 2019

बेकरारी का आलम है






शाम उदास है
हवाएं गुमसुम हैं
हर सूँ धुँधलका सा छाया है
फलक में गिने चुने तारे हैं
चाँद भी आज कितना फीका
कितना मद्धम है
शायद इसलिए कि
न तुम आये हो
ना तुम्हारे आने का
कोई संकेत ही मिला है
दिल बेकरार है
साँसें घुट रही हैं
मन में दुश्चिंताओं के अम्बार हैं !
अपने आने का
कोई तो संदेशा भेजो
कि बेचैन दिल को
थोड़ा सा तो करार आ जाए
तुम्हारे आने के समाचार से
आँखों में चमक आ जाए
चहरे पर नूर छा जाए
और होंठों पर चाहे हल्की ही सही
एक तो मुस्कान आ जाए !
ज़माने बीत गए हैं
इस बेकरारी के आलम को जीते हुए
साँस रोक कर सम्पूर्ण एकाग्रता से
तुम्हारे क़दमों की आहट को
सुनना चाहती हूँ
फूलों के पराग सी
तुम्हारी आवाज़ की मधुरिमा को
बूँद-बूँद पीना चाहती हूँ !
तुम सामने न आना चाहो
तो भी कोई बात नहीं !
मैं तुम्हारे अक्स को
शीशे में देख कर ही
खुश हो जाऊँगी !
या फिर झील के जल में
तुम्हारा प्रतिबिम्ब देख कर ही
अपने मन को समझा लूँगी !  
बस तुम एक बार आ जाओ
मन की बेकली
किसी तरह तो शांत हो
बेकरार दिल को  
किसी तरह तो करार आये !



साधना वैद 


Friday, February 15, 2019

पलाश के फूल




नहीं अच्छे लगते मुझे
ये पलाश के फूल !
नहीं लुभाते ये मेरा मन
अंतर में चुभ जाते हैं मेरे  
ये बन के तीखे शूल !
होते होंगे औरों के लिए
पलाश के ये फूल
प्रतीक प्रेम और प्यार के
अनुराग और श्रृंगार के !
मेरे लिए तो हो चुके हैं अब  
ये मेरे अंतर में सुलगते
चटकते धधकते अंगार
मेरे सर्वांग को भस्मसात करते
मेरी मरणोन्मुख चेतना का
एक असह्य सिंदूरी श्रंगार !
रोपा था जब मैंने पलाश का
एक नन्हा सा पौधा
मन में था कोमल भावनाओं का
अपार अथाह विस्तार
थीं अनगिन उत्ताल तरंगें
और था हर्ष और उल्लास से
पुलकित सारा संसार !
प्रतीक्षा थी मुझे पलाश के
इन फूलों के खिलने की
प्रतीक्षा थी मुझे अपने दूरस्थ
फ़ौजी प्रियतम से मिलने की !
सोचा था आयेंगे जब लौट के  
वारूँगी उन पर पलाश के फूल
भर दूँगी उनका मन सुख से
सारे दुःख अपने जायेंगे वो भूल !
लेकिन हो गया वज्रपात
पड़ गयी सब अरमानों पर धूल
खबर आ गयी आतंकी हमले की
और उनकी शहादत का
गढ़ गया हृदय में शूल !
सुर्ख पलाश के ये सुर्ख फूल
कराते हैं अब मुझे
धू धू जलती चिता का भान
और खिंचने लगते हैं इनके संग
जैसे मेरे भी प्राण !
नहीं देखना चाहती मैं इन्हें
क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ?
कैसे इनसे अपनी नज़र हटाऊँ ?  
कौन हैं अब मेरा यहाँ
किसे अपनी व्यथा सुनाऊँ ?
धधक उठा है नफ़रत का एक
भीषण दावानल मेरे अंतर में
पलाश के इन फूलों के लिए !
सामने खड़ा है ज़िम्मेदारियों का
एक अलंघ्य पहाड़ और
एक अनंत असीम मरुथल
मुझे पार करने के लिए !


साधना वैद 

हमारे शूरवीर सैनिकों के लिए 
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि
कृतज्ञ देश कभी नहीं भूलेगा 
उनका यह पराक्रम और उनकी शहादत ! 
   


Friday, February 8, 2019

नज़रों की बातें



मिली नज़र 
बजी जल तरंग
धड़का दिल

नज़रों ने की
  मासूम शरारत  
हुए गाफिल

झुकी नज़र
हिजाब की ओट में
शर्माई गोरी

उठी नज़र
खिलखिलाया मन
मुस्काई गोरी

आँखों ने देखा
नज़रों ने सराहा  
प्यार हो गया

भोली नज़र
मीठा सा प्रेम गीत
शुरू हो गया

करने लगे
नज़रों नज़रों में
ढेर सी बातें

काटने लगे
तारों को गिन गिन
आँखों में रातें

खेलने लगे
नज़रों नज़रों में
प्यार का खेल

बिन बोले ही
आँखों ने रच डाली
बातों की भेल

जाने क्या हुआ
फिर गयीं नज़रें
भाया न संग

ऊबी नज़र
फीके पड़ने लगे
प्रेम के रंग

फिरी नज़र
घायल हुआ मन
तड़पे दोनों

बसाया था क्यों
नज़रों में अपनी
जानें न दोनों  

प्रेम कथा का
हो गया पटाक्षेप
दोषी नज़र

नज़रें जानें
नज़रों की कहानी
टूटा क़हर

हुआ क्या ऐसा
गिरे क्यों नज़र से
कोई न जाने  


समझ जाए
जो नज़रों की भाषा
दुनिया माने !


चित्र - गूगल से साभार


साधना वैद







Saturday, February 2, 2019

झील के किनारे



चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !

जहाँ दिखा था पानी में प्रतिबिम्ब तुम्हारा ,
उस इक पल से जीवन का सब दुःख था हारा ,
कितनी मीठी यादों के थे नभ में तारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !

जहाँ फिजां में घुला हुआ था नाम तुम्हारा ,
फूलों की खुशबू में था अहसास तुम्हारा ,
मीठे सुर में पंछी गाते गीत तुम्हारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !

जहाँ हवा के झोंकों में था परस तुम्हारा ,
हर साये में छिपा हुआ था अक्स तुम्हारा ,
पानी पर जब लिख डाले थे नाम तुम्हारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !

शायद अब भी वहीं रुकी हो बात तुम्हारी ,
किसी लहर में कैद पड़ी हो छवि तुम्हारी ,
मेरे छूने भर से जो जी जायें सारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !

मन का रीतापन थोड़ा तो हल्का होगा ,
सूनी राहों का कोई तो साथी होगा ,
तुम न सही पर यादें होंगी साथ हमारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !

जादू की उस नगरी में जाना है मुझको,
हर तिलस्म को तोड़ तुम्हें पाना है मुझको,
जो आ जाओ रौशन होंगे पथ अँधियारे,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे ! 


साधना वैद