Sunday, March 24, 2013

जी जलता है


जाने क्या बात है हर बात पे जी जलता है ,
तेरा गम दिल की इन पनाहों में ही पलता है !

तेरी यादें ही थमा जाती हैं जीने की वजह ,
वरना बेवजह भला कौन जिया करता है ! 

न कोई आस, ना उम्मीद, ना कोई वादा ,
बस एक चिराग है दिन रात जला करता है ! 

न कोई हमसफर, न दूर तक कोई मंज़िल ,
बस एक साया है जो साथ चला करता है ! 

कहो सुनाऊँ इसे कब तलक झूठे किस्से ,
सयाना हो चुका ये दिल कहाँ बहलता है !

कि गुज़रे लम्हों की हर याद नक्श है दिल पर ,
कि बीता वक्त तुझे साथ लिये चलता है !

बता दे तू ज़रा कि हम कहाँ रहें जाकर ,
क्या कोई हम सा तेरे आस-पास रहता है !

हमें तो चलते ही जाना है दौरे सहरा में ,
तेरे जहान पर नूरे खुदा बरसता है ! 

या खुदा हो चुकी है इन्तहा गुज़ारिश की ,
इन्हें क़बूलने से क्यों भला तू डरता है !


साधना वैद  

  

Wednesday, March 20, 2013

पुनरावृत्ति क्यों.....



पिछले दो-तीन महीनों में दिल्ली, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश और अब आगरा में जिस तरह की दिल दहला देने वाली घटनाएँ हुई हैं उन्होंने हर नारी के मन को झकझोर दिया है ! आश्चर्य होता है कि हम एक सभ्य समाज में रहते हैं ! अगर सभ्य और विकसित समाज का यह रूप होता है तो इससे तो हम पिछड़े ही अच्छे थे ! कम से कम तब समाज के लोगों में कुछ नैतिक मूल्य तो थे ! उनके मन में कुछ संस्कार और शालीनता तो थी ! अब तो जैसे यहाँ जंगल राज हो गया है ! लड़कियों का घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है ! क्या करें ? कोई उपाय है आपके पास ? कैसे रक्षा करें वे अपनी कुछ सुझा सकते हैं आप ? या वे पढ़ाई-लिखाई, कैरियर-काम सब छोड़ कर घर में ही सिमट कर रह जाएँ ?

क्यों आज फिर
तुम्हारी हार हुई है ?
क्यों आज फिर
तुम इन दरिंदों के
हिंसक इरादों के सामने
इस तरह निरस्त हो गयीं ?
कहाँ चूक रह गयी
तुम्हारी तैयारी में ?
मैं जानती हूँ
तुम्हारी मानसिक तैयारी में  
कहीं कोई कमी नहीं !
तुम यह भी जानती हो
कि कैसे खून्खार और
हिंसक जानवरों से भरे
जंगल के रास्ते होकर ही
तुम्हें अपनी मंज़िल
की ओर बढ़ना होगा ,
लेकिन हर कदम
फूँक-फूँक कर रखने की
तुम्हारी सतर्कता के
बाद भी तुम
कहाँ और कैसे यूँ
कमज़ोर पड़ गयीं
कि दरिंदे तुम पर
हावी हो गये  
और एक प्रखर प्रकाश  
संसार को आलोकित
करने पहले ही
घने तिमिर में
प्रत्यावर्तित हो गया !
मोबाइल की जगह
तुम्हारे हाथ में
आत्म रक्षा के लिए
कटार क्यों नहीं थी ?
रूमाल की जगह
तुम्हारे हाथ में
तीखी लाल मिर्च की
बुकनी क्यों नहीं थी ?
और तुम्हारे मन में
औरों के प्रति सहज
विश्वास की जगह
संशय और साहस की आग
क्यों नहीं थी कि तुम
सतर्क और चौकस रहतीं
और उन दरिंदों को
अपने गंदे इरादों में
कामयाब होने से पहले ही
वहीं भस्म कर देतीं ?
यूँ तो रक्तबीज एक
दानव था लेकिन
आज मेरा मन चाहता है
कि जहाँ-जहाँ तुम्हारा
रक्त गिरा है वहाँ
तुम्हारे रक्त की हर बूँद
के स्थान पर
असुरों का संहार करने वाली
एक शाश्वत नारी शक्ति
का उदय हो जो
इन हिंसक पशुओं को
काबू में कर उन्हें
पिंजड़ों में कैद कर सके
या उनके असह्य भार से
इस धरती को उसी पल
मुक्त कर सके
जिस पल उनके मन में
नारी जाति के सम्मान को
पद दलित करने की
कुत्सित भावनाओं का
जनम हो !


साधना वैद



Saturday, March 16, 2013

क्या यह आत्मघात नहीं है ?













स्वप्न नींदों मे,
अश्रु नयनों में,
गुबार दिल में ही
छिपे रहें तो
मूल्यवान लगते हैं यह माना ।
भाव अंतर में,
विचार मस्तिष्क में,
शब्द लेखनी में ही
अनभिव्यक्त रहें तो
अर्थवान लगते हैं यह भी माना ।
पर इतनी ज्वाला,
इतना विस्फोटक
हृदय में दबाये
खुद से बाहर निकलने के
सारे रास्ते क्यों बन्द कर लिये हैं ?
क्या यह आत्मघात नहीं है ?


साधना  वैद

Tuesday, March 12, 2013

इक शमा रूहे रौशन जो जलती रही



 















इक शमा रूहे रौशन जो जलती रही ,
हर घड़ी याद तेरी पिघलती रही !

दर्द बढ़ता रहा, अश्क बहते रहे ,
हिज़्र की आँख से मोम ढलती रही !

हर एक फूल गुलशन का जलता रहा ,
हर कली शाख पर ही सुलगती रही !

न ख़्वाबों खयालों का था सिलसिला ,
मैं बिखरे पलों में सिमटती रही !

न था हमसफ़र ना कोई कारवां ,
यूँ ही बेनाम राहों पे चलती रही !

भूल से बाँध ली मुट्ठियों में खुशी
रेत सी उँगलियों से फिसलती रही !

तू दरिया की माफिक उमड़ता रहा ,
मैं लहरों से दामन को भरती रही !

तू फलक के नज़ारों में गुम था कहीं ,
मैं शब भर सितारों को गिनती रही ! 

कि ज़मीं से फलक तक का ये फासला ,
मैं सदियों से चढ़ती उतरती रही !


साधना वैद

Saturday, March 2, 2013

खामोशी की ज़ुबान



 











ग़म के सहराओं से ये आह सी क्यों आती है ,
दिल की दीवारों पे नश्तर से चुभो जाती है !

ये किसका साया मुझे छू के बुला जाता है ,
ये किसकी याद यूँ चुपके से चली आती है !

ये मुद्दतों के बाद कौन चला आया था ,
ये किसके कदमों की आहट कहाँ मुड़ जाती है !

ये किसने प्यार से आवाज़ दे पुकारा था ,
ये किस अनाम अँधेरे से सदा आती है ! 

कि जिनकी खुशबू से मौसम में खुशगवारी थी ,
उन्हीं गुलों को गिराने हवा क्यों आती है ! 

ये हमने प्यार से जिन पत्थरों को पूजा था
उन्हीं के दिल से धड़कने की सदा आती है !

अभी तो तैरना सीखा था तुमसे पानी में  
तुम्हीं बताओ सुनामी कहाँ से आती है ! 

बहा के अश्क जो सदियों में दिल किया हल्का  
तेरे अश्कों की नमी बोझ बढ़ा जाती है !

ये कौन मौन की वादी में यूँ भटकता है 
ये किसकी हूक है जो दिल को जला जाती है !

कि सूखे पत्तों के दिल में भी दर्द होता है
कि हर एक चोट बहारों की याद लाती है !  

हमें तो आज भी है तेरी ज़रुरत ऐ दोस्त
तुझीको हाथ झटकने की अदा आती है ! 

हमें पता है तुझे बोलना नहीं भाता 
तेरी खामोशी ही हर बात कह सुनाती है !



साधना वैद
चित्र गूगल से साभार