नहीं आये न तुम !
अच्छा ही किया !
जो आते तो शायद
निराश ही होते
!
कौन जाने मैं पहले
की तरह
तुम्हारी आवभगत
तुम्हारा स्वागत
सत्कार
तुम्हारी अभ्यर्थना
कर भी पाती या नहीं
?
आखिरकार इंतज़ार भी
तो
निरंतर कसौटी पर कसा
जाकर
कभी न कभी
दम तोड़ ही देता है !
आशा की डोर भी तो
कभी न कभी
कमज़ोर होकर
टूट ही जाती है और
जतन से सहेजी हुई
माला के सारे मनके
एक ही पल में भू पर
बिखर कर रह जाते हैं
!
पथ पर टकटकी लगाए
आँखे भी तो थक कर
कभी न कभी
पथरा ही जाती हैं और
परस्पर पत्थरों के
मध्य
भाव सम्प्रेषण की
सारी संभावनाएं फिर
शून्य हो जाती हैं !
और अनन्य प्रेम की
सुकोमल पौध में भी
बारम्बार गुज़रते मौसमों की
बेरहम चोटों से
कभी न कभी
नाराज़गी की दीमक
लग ही जाती है
जो कालान्तर में उसे
समूल नष्ट कर जाती है !
अब इस खंडहर में
इन अनमोल भावनाओं के
सिर्फ चंद अवशेष ही बाकी
हैं !
जो शायद किसी को भी
प्रीतिकर नहीं होंगे
!
कम से कम
तुम्हें तो हरगिज़
नहीं !
क्योंकि अपना ही
ह्रास
अपना ही अवमूल्यन
अपना ही क्षरण
भला कोई कैसे
स्वीकार कर सकता है
!
इसलिये
वक्त की फिरी हुई
नज़रों के इस वार से
जो तुम बचना चाहते
हो
तो इस वीरान खंडहर
में
अब फिर कभी
भूले से भी न आना
वही ठीक रहेगा !
साधना वैद
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