Tuesday, April 28, 2020

मुखौटा




मिथ्या बौद्धिकता,
झूठे अहम और छद्म आभिजात्य
के मुखौटे के पीछे छिपा
तुम्हारा लिजलिजा सा चेहरा
मैंने अब पहचान लिया है
और सच मानो
इस कड़वे सत्य को
स्वीकार कर पाना मेरे लिए
जितना दुष्कर है उतना ही
मर्मान्तक भी है !
मुखौटे के आवरण के बिना
इस लिजलिजे से चहरे को
मैंने एक बार
पहले भी देखा था
पर किसी भी तरह उसे
तुम्हारे लोकरंजित
गरिमामय व्यक्तित्व के साथ
जोड़ नहीं पा रही थी
क्योंकि मैं यह विश्वास
कर ही नहीं कर पा रही थी
कि एक चेहरा तुम्हारा
ऐसा भी हो सकता है !
मेरे लिए तो तब तक
तुम्हारा मुखौटे वाला
चेहरा ही सच था न
और शायद इसीलिये खुद को
छल भी पा रही थी कि
यह लिजलिजा सा चेहरा
तुम्हारा नहीं
किसी और का होगा !
लेकिन अब जब
सारी नग्न सच्चाइयाँ
मेरे सामने उजागर हैं
खुद को छलना मुश्किल है !
और उससे भी मुश्किल है
अपनी इस पराजय को
स्वीकार कर पाना
कि जीवन भर मैंने जिसे
बड़े मान सम्मान,
श्रद्धा और आदर के साथ
अपने अंतर्मन के
सर्वोच्च स्थान पर
स्थापित किया
अपना सबसे बड़ा आदर्श
और पथदर्शक माना
वह सिर्फ और सिर्फ
माटी का एक
गिलगिला सा ढेला है
इससे अधिक कुछ भी नहीं ! 


साधना वैद

Saturday, April 25, 2020

चूल्हा




चूल्हे के नाम से ही
माँ याद आ जाती हैं
रसोईघर में चूल्हे के पास पटे पर बैठीं
साक्षात अन्नपूर्णा सी माँ !
जलती लकड़ियों की आँच से तमतमाया
उनका कुंदन सा दमकता चेहरा,
माथे पर रह रह कर उभरते श्रम सीकर,
आँखों में अनुपम अनुराग और
चहरे पर तृप्ति की अनुपम कांति !
हम बच्चों को चूल्हे पर औंटे सौंधे सौधे
गुलाबी दूध के गिलास थमाती माँ !
चूल्हे पर चढ़ी लोहे की भारी सी कढ़ाही में
करारी करारी पूरियाँ कचौड़ियाँ उतारती माँ !
चूल्हे की मद्धम आँच पर लकड़ी से टिका कर
फूली फूली कुरकुरी रोटियाँ सेकती माँ !
बटलोई में खदर बदर की आवाज़ सुन
दक्षता से दाल सब्जी को चलाती माँ
चूल्हे की लकड़ी से बने अंगारों पर
चावलों को दम करती माँ !
कड़कड़ाती ठण्ड में भी माथे पर छलक आये
पसीने को आँचल से सुखाती माँ !
चूल्हे की धीमी आँच में भूनने के लिए
कभी बैंगन, कभी आलू तो कभी बाटियाँ
बड़े ही करीने से दबाती माँ !
सुस्वादिष्ट बैंगन का भरता,
आलू की चाट और दाल बाटी चूरमा
तैयार कर बड़े ही प्यार से परोसती माँ !
माँ ने अपने जीवन में कभी रसोई के
आधुनिक उपकरण नहीं देखे
लेकिन चूल्हे पर ही जितने लाजवाब
व्यंजन उन्होंने पका कर खिलाये
संसार का कोई भी मास्टर शेफ
उनकी बराबरी नहीं कर सकता
माँ तो साक्षात अन्नपूर्णा का रूप थीं
कोई उनसे उनका यह तमगा
नहीं छीन सकता !

साधना वैद 

Friday, April 24, 2020

स्याही से लिखी तहरीरें



बचपन में जब लिखना सीख रही थी
स्लेट पर बत्ती से जाने क्या-क्या
उल्टा सीधा लिखती थी  
फिर उन विचित्र अक्षरों और
टेढ़ी मेढ़ी आकृतियों को देख
खूब जी खोल कर हँसती थी !
अपना ही लिखा जाने कितनी बार
मिटाया करती थी
फिर गीले कपड़े से पोंछ कर स्लेट को
खूब चमकाया करती थी !  
नए सिरे से जमा-जमा कर
सुन्दर अक्षरों में फिर से कुछ
नया लिख देती थी
और अपनी अनगढ़ अधकचरी
कलाकृतियों को देख खुद ही
खूब खुश हो लेती थी !  
कुछ बड़ी हुई तो कॉपी पर
पेन्सिल से लिखना शुरू हुआ
बार-बार गलत लिखा मिटाने से
जर्जर होते पन्नों की दशा देख
मलिन मन होने का
सिलसिला शुरू हुआ !
उस पन्ने पर कुछ भी दोबारा
लिखना मुश्किल हो जाता
बार-बार कोशिश करने से
पन्ना ही बिलकुल फट जाता !
धीरे-धीरे समझ में आ गया
गलतियों को दोहराने की
उम्र अब बीती जा रही है
सुलेख लिखना अब आसान नहीं रहा
भूल सुधार की गुंजाइश  
कम होती जा रही है !
समय के साथ जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा
उम्र भी आगे बढ़ती रही
कल्पनाओं, सपनों, भावनाओं के
फलक को नापती टटोलती  
दीवानगी भी साथ चलती रही !
स्लेट बत्ती, रबर पेन्सिल के
बचकाने खेल सब पीछे छूट गए
हाथों में आ गयी सुनहरी डायरी
खूबसूरत कलम और स्याही की दवात
जो पता नहीं कब और कैसे
दिनों का चैन और रातों की नींद
सब लूट ले गए !
अब वक्त के सफों पर गहरी स्याही से
जो तहरीरें लिखनी होतीं उनका
पाबंदी के साथ एक ही बार में
सत्य शिव और सुन्दर होना
परम आवश्यक हो गया !
असावधानीवश कुछ भी लिख देना और
खाम खयाली में डूब पन्नों पर
कुछ भी उकेर देना जैसे
अब गुनाह सा हो गया !
लेकिन जैसा होना चाहिए
वैसा होता कहाँ है
जो लिख दिया सही गलत
वह मिटता कहाँ है !
ज़िंदगी की डायरी के हर पन्ने पर उकेरी हुई
जाने कितनी कटी पिटी लाइनें हैं,
जाने कितनी आधी अधूरी कवितायें हैं,
जाने कितने आधे अधूरे किस्से हैं
जो किसी अंजाम तक
या तो पहुँच ही नहीं पाए
या जहाँ पहुँच गए वहाँ से
यह जानते हुए भी कि
वो उनके मुकाम न थे
लौट नहीं पाए !
जो लिख गया सब गलत हो गया  
सारा अर्थ का अनर्थ हो गया !
सोचती ही रह जाती हूँ
गहरी स्याही में लिखी इन
गलत सलत तहरीरों को मिटाने के लिए
कोई तो चमत्कारिक साबुन मिल जाए
कि यह सब धुल पुँछ कर
पहले सा नया हो जाए
या फिर किसी भी जतन से
मेरी डायरी का हर कटा पिटा शब्द
किसी जादू से छूमंतर हो जाए
प्रभु की मुझ पर
बस इतनी सी दया हो जाए !


साधना वैद   

Monday, April 20, 2020

दो पंछी



कल सुबह अपने कमरे की
खिड़की से बाहर देखा था मैंने  
धरा से गगन का असीम विस्तार
नापने को तैयार
दो बेहद सुन्दर और ऊर्जावान पंछियों को
हौसलों की उड़ते भरते हुए
देखा था मैंने !

बिल्कुल सम गति सम लय में
समानांतर उड़ रहे थे दोनों,
मधुर स्वर में चहचहाते हुए
कुछ जग की कुछ अपनी
एक दूजे को सुनाते हुए
बड़े आश्वस्त से पुलकित हो   
उड़ रहे थे दोनों !

कुछ देर बाद एक ऊँची सी उड़ान भर
यूकेलिप्टस की पत्रहीन
ऊँची ऊँची दो डालियों पर
आमने सामने बैठ गये वे दोनों  
शायद कुछ सुस्ताने को या फिर
कुछ अनकही कुछ अनसुनी रह गयीं
बातें फिर से दोहराने को
आमने सामने बैठ गये वे दोनों !

तार सप्तक में चह्चहाने की
एक दूजे के स्वर में स्वर मिलाने की 
दोनों की आवाजें सुन रही थी मैं
वो गा रहे थे या लड़ रहे थे  
उग्र थे या उल्लसित
खुश थे या नाखुश
समझ नहीं पा रही थी मैं !

थोड़ी देर के बाद
एक पंछी अपनी डाल छोड़ 
अनंत आकाश में उड़ कर
दूर कहीं बहुत दूर चला गया,
मुझे विश्वास था कि वह लौट कर
अपने साथी के पास ज़रूर आएगा
लेकिन देर तक प्रतीक्षा करने के बाद
मेरा विश्वास छला गया ! 
  
दूसरा पंछी मौन उदास अनमना सा
अपनी डाल पर ही बैठा रह गया
जीवन साथी के चले जाने के बाद
इस अनंत असीम व्योम में वह
नितांत अकेला रह गया ! 

मेरे दिल में जैसे कहीं कुछ
छन्न से टूट गया
शिथिल हुई मेरी पकड़ से
उँगलियों में लिपटा ऊन का
अधबना गोला धरा पर छूट गया ! 

नहीं जानती
यूकेलिप्टस की शाख पर बैठे
उस पंछी को वाकई में थी या नहीं
पर मुझे बड़ी व्यग्रता से प्रतीक्षा थी
उस पंछी के लौट आने की
जो उसे छोड़ कर चला गया था
पता नहीं क्यों
उस पंछी के साथ साथ वह मुझे भी
एक अकथनीय पीड़ा के
अनंत अथाह सागर में
डुबो कर चला गया था !

साधना वैद

Friday, April 17, 2020

मेरा मैं




जब भी अपने
हृदय का बंद द्वार
खोल कर अंदर झाँका है
अपने ‘मैं’ को सदैव सजग,
सतर्क, संयत एवँ दृढ़ता से अपने
इष्ट के संधान के लिये
समग्र रूप से एकाग्र ही पाया है !

ऐसा क्या है उसमें जो वह
सागर की जलनिधि सा अथाह,
आकाश सा अनन्त, धरती सा उर्वर,
वायु सा जीवनदायी व गतिमान एवँ
पवित्र अग्नि सा ज्वलनशील है !

ऐसा क्या है उसमें जो
संसार का कोई भी आतंक
उसे भयभीत नहीं करता,
कोई भी भीषण प्रलयंकारी तूफ़ान
उसे झुका नहीं सकता,
कैसे भी अनिष्ट का भय उसका
मनोबल तोड़ नहीं पाता !

लेकिन जो अपनी अंतरात्मा की
एक चेतावनी भर से सहम कर
निस्पंद हो जाता है,
जो मेरी आँखों में लिखे
वर्जना के हलके से संकेत को
पढ़ कर ही सहम जाता है और
मेरे होंठों पर धरी निषेधाज्ञा की
उँगली को देख अपनी वाणी
खो बैठता है ! 

मैं जानती हूँ
दुनिया की नज़रों में
मेरा यह ‘मैं’
एक ज़िद्दी, अड़ियल, अहमवादी,
दम्भी, घमण्डी और भी
न जाने क्या-क्या है ! 

लेकिन क्या आप जानते हैं  
मेरा यह ‘मैं’
मेरे आत्मसम्मान का एक
सबसे शांत, सौम्य और
सुदर्शन चेहरा है,
जिस पर मैं अपनी सम्पूर्ण
निष्ठा से आसक्त हूँ ! 

वह इस रुग्ण समाज में विस्तीर्ण   
वर्जनाओं, रूढ़ियों और सड़ी गली
परम्पराओं की गहरी दलदल से
बाहर निकाल मुझे किनारे तक
पहुँचाने के लिये मेरा एकमात्र
एवँ अति विश्वसनीय
अवलंब है ! 
अपने स्वत्व की रक्षा के लिये
मेरे पास उपलब्ध मेरा इकलौता
अचूक अमोघ अस्त्र है ! 

                     मेरी विदग्ध आत्मा के ताप को
हरने के लिये अमृत सामान
मृदुल, मधुर, शीतल जल का
अजस्त्र अनन्त स्त्रोत है ! 

मुझे कोई परवाह नहीं
लोग मुझे क्या समझते हैं
लेकिन मेरी नज़रों में मेरी पहचान
मेरे अपने इस ‘मैं’ से है
और निश्चित रूप से मुझे
अपनी इस पहचान पर गर्व है ! 

जिस दिन मेरी नज़र में
इस ‘मैं’ का अवमूल्यन हो जायेगा
वह दिन मेरे जीवन का
सर्वाधिक दुखद और कदाचित
अंतिम दिन होगा क्योंकि
मुझे नहीं लगता उसके बाद
मेरे जीवन में ऐसा कुछ
अनमोल शेष रह जायेगा
जिस पर मैं अभिमान कर सकूँ ! 

साधना वैद