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Tuesday, April 22, 2025

मंजरी

 



नव कुसुमित पुष्पों से वन में 

करते हैं तरुवर श्रृंगार

मधु पीने को व्याकुल भँवरे 

करते हैं मधुरिम गुंजार

पवन मंजरी की खुशबू ले 

उड़ी क्षितिज की सीमा तक

पल भर में हो गए सुवासित 

धरती अम्बर और संसार !




साधना वैद 


Sunday, April 20, 2025

यह न्याय तो नहीं !

 



हमारी न्याय व्यवस्था का पहला उद्देश्य है कि चाहे कोई गुनहगार भले ही छूट जा लेकिन किसी बेगुनाह को दण्ड नहीं मिलना चाहि । निश्चित ही यह करुणा और मानवता से परिपूर्ण एक बहुत ही पावन भावना है । लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो पाता है
यह जो
एक कहावत है Justice delayed is justice denied. अगर यह सत्य है तो हमारे यहाँ तो शायद न्याय कभी हो ही नहीं पाता । एक तो मुकदमे ही अदालतों में सालों चलते हैं दूसरे जब तक फैसले की घड़ी आती है तब तक कई गवाह, यहाँ तक कि चश्मदीद गवाह तक अपने बयानों से इस तरह पलट जाते हैं कि वास्तविक अपराधी सज़ा से या तो साफ-साफ बच जाता है या बहुत ही मामूली सी सज़ा पाकर सामने वाले का मुहँ चिढ़ाता सा लगता है । मथुरा की विद्या देवी को 29 वर्ष चलने वाले हिम्मत को तोड़ देने वाले संघर्ष के बाद भी क्या न्याय मिल पाया ? फिर ऐसे जुमलों का क्या फ़ायदा ! इसके अलावा हमारी व्यवस्था में इतना भ्रष्टाचार व्याप्त है कि रिश्वत देकर किसीका भी म्रत्यु प्रमाणपत्र चुटकियों में बनवाया जा सकता है ! स्वयं अटल बिहारी बाजपेई जी जैसे बड़े नेता का उनके जीते जी फर्जी प्रमाणपत्र बनवा कर सार्वजनिक कर दिया गया तो आम आदमी की तो हैसियत ही क्या है ! चुटकियों में बनवाए गए ऐसे फर्जी दस्तावेजों को अदालतों में ग़लत ठहराने के लिए सालों की लड़ाई लड़नी पड़ती है वह भी अपने स्वास्थ्य और संसाधनों की कीमत पर ! ऐसे में क्या हम सीना ठोक कर यह कह सकते हैं कि फैसला सच में न्यायपूर्ण हुआ है । इसी वजह से समाज में न्याय प्रणाली के प्रति असंतोष और आक्रोश की भावना जन्म लेती है । लोगों में निराशा और अवसाद घर कर जाता है और वक़्त आने पर ऐसे चोट खाए हुए लोग खुद अपने हाथों में कानून लेने से पीछे नहीं हटते । दिन समाचार पत्र दिल दहला देने वाली लोमहर्षक घटनाओं के समाचारों से भरे होते हैं । पाठकों के दिल दिमाग़ पर उनका गहरा असर होता है । लोग प्रतिदिन कौतुहल और उत्सुकता से उनकी जाँच की प्रगति जानने के लिये अख़बारों और टी. वी. के समाचार चैनलों से चिपके रहते हैं लेकिन पुलिस और अन्य जाँच एजेंसियों की जाँच प्रक्रिया इतनी धीमी और दोषपूर्ण होती है कि लम्बा वक़्त गुज़र जाने पर भी उसमें कोई प्रगति नज़र नहीं आती । धीरे धीरे लोगों के दिमाग से उसका प्रभाव घटने लगता है । तब तक कोई न घटना घट जाती है और लोगों का ध्यान उस तरफ भटक जाता है । फिर जैसे तैसे मुकदमा अदालत में पहुँच भी जा तो फैसला आने में इतना समय लग जाता है कि लोगों के दिमाग से उसका असर पूरी तरह से समाप्त हो जाता है और अपराधियों का हौसला बढ जाता है । आम आदमी समाज में भयमुक्त हो या न हो लेकिन यह तो निश्चित है कि अपराधी पूर्णत: भयमुक्त हैं और आ दिन अपने क्रूर और खतरनाक इरादों को अंजाम देते रहते हैं ।
य़दि हमारी न्याय प्रणाली त्वरित और सख्त हो तो समाज में इसका अच्छा संदेश जाएगा और अपराधियों के हौसलों पर लगाम लगेगी । गिरगिट की तरह बयान बदलने वाले गवाहों पर भी अंकुश लगेगा और अपराधियों को सबूत और साक्ष्यों को मिटाने और गवाहों को खरीद कर, उन्हें लालच देकर मुकदमे का स्वरूप बदलने का वक़्त भी नहीं मिलेगा । कहते हैं जब लोहा गर्म हो तब ही हथौड़ा मारना चाहिए । समाज में अनुशासन और मूल्यों की स्थापना के लिये कुछ तो कड़े कदम उठाने ही होंगे । त्वरित और कठोर दण्ड के प्रावधान से अपराधियों की पैदावार पर अंकुश लगेगा और शौकिया अपराध करने वालों की हिम्मत टूट जाएगी ।
इसके लिये आवश्यक है कि न्यायालयों में सालों से चल रहे चोरी या इसी तरह के छोटे मोटे अपराधों वाले विचाराधीन मुकदमों को या तो बन्द कर दिया जाए या जल्दी से जल्दी निपटाया जाए । ऐसे मुकदमों के निपटान के लिये समय सीमा निर्धारित कर दी जाए और भविष्य में और तारीखें ना दी जाएँ । न्यायाधीशों की वेतनवृद्धि और पदोन्नति उनके द्वारा निपटाए गए मुकदमों के आधार पर तय की जाए । अनावश्यक और अनुपयोगी कानूनों को निरस्त किया जाए ताकि अदालतों में मुकदमों की संख्या को नियंत्रित किया जा सके और उनके कारण व्यवस्था में व्याप्त पुलिस और वकीलों के मकड़्जाल से आम आदमी को निजात मिल सके । न्यायालयों की संख्या बढ़ायी जाए और क्षुद्र प्रकृति के मुकदमों का निपटान निचली अदालतों में ही हो जाए । अपील का प्रावधान सिर्फ गम्भीर प्रकृति के मुकदमों के लिए ही हो । सालों से चलते आ रहे मुकदमों के समाप्त होने के बाद बिला वजह तारीखों पर तारीखें लेकर मुकदमों को घसीटने वाले वकीलों को भी दण्डित किया जाना चाहिए ताकि इस उत्पीड़नकारी प्रवृत्ति पर रोक लग सके !
इसी तरह से कुछ ठोस कदम यदि उठाये जाएँगे तो निश्चित रूप से समाज में बदलाव की भीनी-भीनी बयार बहने लगेगी और आम आदमी चैन की साँस ले सकेगा।

साधना वैद


Friday, April 18, 2025

वर्ण पिरामिड

 




क्या 

जानें 

आओगे 

भुलाओगे

कौन बताये 

किस्मत हमारी   

फितरत तुम्हारी ! 


है 

पता 

मुझे भी 

आसाँ नहीं 

दुःख भुलाना 

पर करें भी क्या 

ज़ालिम है ज़माना 


हे 

प्रभु

आशीष 

देना हमें  

न चाहें सुख 

कर्तव्य पथ से 

न हों कभी विमुख 


ये 

फूल 

खिलते 

महकते 

मुस्कुराते हैं 

हमें सुखी कर 

भू पे बिछ जाते हैं ! 


साधना वैद 

Monday, April 14, 2025

बेला के फूल

 




बेला के ये फूल 

कितने सुन्दर, 

कितने सुवासित 

जैसे अधरों पे सजी 

तुम्हारी मधुर मुस्कान, 

जैसे हवाओं में तैरते 

तुम्हारे सुरीले स्वर ! 

हरे कर जाते हैं 

मेरा तन मन और 

मेरे आकुल प्राण ! 

चाहता हूँ गूँथना

एक मोहक सा गजरा 

तुम्हारी वेणी के लिए 

सुरभित हो जाए जिससे 

ये फिजा और महक जाए 

हमारा भी जीवन 

बेला के इन फूलों की तरह ! 

इन सुन्दर फूलों का 

यह सन्देश पावन कर दे हमारा मन 

और सार्थक कर दे 

हमारा प्रयोजन ! 


साधना वैद  

Friday, April 11, 2025

सायली छंद

 




तुम 
क्या गए 
यह जीवन हमारा
हो गया 
बेरंग 

प्रतीक्षा 
करते रहे 
व्याकुल नैन हमारे 
डूब गए 
तारे 

दिलासा  
सिर्फ झूठी  
तुमने दी हमें  
हमने किया 
विश्वास 

तुम
कब आओगे 
अब तो कहो 
चाहती हूँ 
जानना  

द्वार 
खोल कर 
प्रतीक्षारत ही मिलूँगी 
जब आओगे 
तुम 

चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद 

Friday, April 4, 2025

माँ की वन्दना में कुछ माहिया

 





मैया तुम आ जाना 

अपने चरणों से 

घर पावन कर जाना 


मैं बाट निहारूँगी 

तेरे चरणों में 

निज शीश नवाऊँगी


मैं थाल सजाऊँगी

षठ रस व्यंजन का 

माँ भोग चढ़ाऊँगी


मैं चूनर लाऊँगी

चाँद सितारों से 

माँ रूप सजाऊँगी 


माँ द्वार सजाऊँगी 

पूरी श्रद्धा से 

तेरी महिमा गाऊँगी 


खुश होकर हँस देना 

अपने चरणों की

थोड़ी रज दे देना 


साधना वैद

Monday, March 31, 2025

दरकता दाम्पत्य

 



असफल वैवाहिक रिश्तों के पीछे अनेक कारण हैं । उन अनेक कारणों में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण कारण है आज के युवाओं की निरंकुश रूप से बढ़ती हुई स्वच्छंदता की प्रवृत्ति और उनकी दिन प्रति दिन विकृत होती जाती मानसिकता ! स्त्री का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना, पिछली पीढी के मुकाबले अधिक शिक्षित और आत्म विश्वासी होना, अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए संकल्पित होना, एक समय था जब इन सभी गुणों का विकास स्त्री स्वातंत्र्य और नारी सशक्तिकरण के सन्दर्भ में बड़े गर्व से देखे जाते थे ! विवाह के समय लड़की के माता-पिता ही लड़की को समझा कर भेजते थे, “ससुराल में किसीसे दब कर रहने की ज़रुरत नहीं है ! कोई परेशानी हो तो हमें बताना ! तुम किसीकी नौकरानी बन कर नहीं जा रही हो ! अपनी शर्तों पर रहना वहाँ !” लेकिन कालांतर में ये ही गुण और यही समझाइश उन्हीं के दाम्पत्य जीवन की सुरक्षा के सन्दर्भ में खतरे की सबसे बड़ी घंटी बन चुकी है ! हर चीज़ जब तक नियंत्रण में होती है अच्छी लगती है ! लेकिन यह भी सत्य है कि अति सर्वत्र वर्जयेत ! आज की युवा पीढी में समानता का ऐसा घमासान छिड़ा हुआ है कि इसकी बहुत बड़ी कीमत उनके बच्चों को, उनके वृद्ध होते माता-पिता को चुकानी पड़ रही है इस बात का उन्हें कोई ख़याल ही नहीं है ! संयुक्त परिवार तो टूट ही चुके हैं ! पति-पत्नी दोनों काम करने वाले हैं इसलिए बच्चों की परवरिश आया, या अनपढ़ नौकरों के हाथों हो रही है ! अक्सर निर्दयी नौकरों के दुर्व्यवहार से त्रस्त उपेक्षित बच्चे मन में आक्रोश का ज्वालामुखी लिए पलते हैं ! ऐसे मामलों में दोषारोपण का ठीकरा पति-पत्नी एक दूसरे के सर पर ही फोड़ते हैं क्योंकि हर बात के लिए दोनों के पास समान अधिकार हैं तो ज़िम्मेदारी भी समान है ! इन्हीं और ऐसे ही अनेक कारणों से रोज़ घरों में अनबन और झगड़े होते हैं ! स्त्रियाँ रिश्ते के आरम्भ से ही बागी तेवर ठान लेती हैं । जब रिश्ते में बँधने वाले दंपत्ति के मन में एक दूसरे के लिए सम्मान की भावना ही न हो, रिश्ते को निभाने का इरादा ही न हो और थोड़ी भी सहनशक्ति न हो तो रिश्तों को टूटने में ज़रा भी देर नहीं लगती ।

आज की पीढ़ी सिर्फ आत्मकेंद्रित है । घर परिवार की प्रतिष्ठा, माता-पिता की मर्ज़ी, समाज की मर्यादा ये सारी बातें उन लोगों के लिए बेमानी हैं । ये ज़िम्मेदारियों से भागते हैं । ये अपना परिवार भी बनाना नहीं चाहते । सास-ससुर की सेवा करना तो बहुत दूर की बात है वे अपने बच्चों की देखभाल भी करना नहीं चाहते । सुनते हैं कि अब तो बच्चों की देखभाल के लिए किराए के माता-पिता भी मिलने लगे हैं जो बच्चों को समय से स्कूल भेजते हैं, उनका ध्यान रखते हैं, उन्हें कहानियाँ और लोरी सुनाते हैं ! अपने परिवार की अब ज़रुरत ही कहाँ रह गई है ! हर चीज़ खरीदी जा सकती है पास में पैसा होना चाहिए ! इसीलिये अब लोगों का फोकस अधिक से अधिक धन कमाने में केन्द्रित हो गया है और शायद इसीलिए विवाह जैसी संस्था की जड़ें ढीली होने लगी हैं ! तलाक के मामलों में पहले से कई गुना वृद्धि हुई है । पहले स्त्री सहनशील होती थी, रिश्तों को प्राणप्रण के साथ निभाने का प्रयास करती थी आज की स्त्री स्वच्छंद हो चुकी है वह अपनी शर्तों पर जीवन जीना चाहती है । विवाहेतर संबंधों के प्रति उसके मन में कोई अपराधबोध नहीं है इसीलिए वह खुल कर इन्हें स्वीकार भी करती है और अपने पति से पीछा छुड़ाने के लिये किसी भी हद तक जा सकती है । फिलहाल ऐसे कई केसेज़ सामने आए हैं जिनमें पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर पति की हत्या तक करवा दी । पाश्चात्य जीवन शैली ने भी स्त्रियों की सोच को प्रदूषित किया है । परिवार में संस्कारों और नैतिक मूल्यों का ह्रास, अनुशासनहीनता, निरंकुश जीवन शैली और बिना किसी दायित्व के मौज मस्ती की ज़िंदगी बिताने की चाहत, बेइंतहा आज़ादी इस विघटन का सबसे बड़ा कारण हैं । लिव इन रिलेशनशिप की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है क्योंकि यह सुविधाजनक है ! जब तक अच्छा लगे साथ में रह लिए जब मन भर गया तो साथी भी बदल लिया नई पोशाक की तरह ! न शादी हुई, न बहू बने, न कोई ज़िम्मेदारी निभाई लेकिन विवाह का पूरा सुख उठा लिया ! लड़के भी खुश न शादी की, न पत्नी लाए, अलग हुए तो कोई गुज़ारा भत्ता देने की झंझट भी नहीं, न ही ज़मीन जायदाद पर किसीका कोई हक़ बना ! सारा सार इसी बात में है कि मौज मज़ा भरपूर होना चाहिए और किसी के भी प्रति ज़िम्मेदारी ज़रा सी भी कोई नहीं ! जैसी विकृत मानसिकता होगी समाज का भी वैसा ही रूप उभर कर सामने आयेगा ! समाज के निर्माता भी तो वे ही हैं जो उसके रूप और आकार का अभिन्न अंग हैं !



साधना वैद