शांत जलनिधि का
अनंत अथाह असीम
विस्तार
न कहीं ओर न कहीं छोर
,
दूर क्षितिज तक फैले
जल के
इस एकछत्र साम्राज्य
पर
डूबती, उतराती,
फिसलती, ठिठकती
चकित, भ्रमित,
निगाहें
मैं देखूँ किस ओर ?
जल दर्पण में
प्रतिबिंबित होती
भुवन भास्कर की इन
कोटिश: सुनहरी
रश्मियों में
मेरी अपनी आशा की
किरण
कहाँ झिलमिला रही होगी
,
कैसे जानूँ ,
अनंत आकाश की दीवार
के
विस्तृत कैनवस पर
सजे
लाखों चेहरों के इस
विशाल
कोलाज में कहाँ वह
चिर परिचित मुख देख
सकूँगी
कौन बतायेगा मुझे ,
किसका कहा मानूँ ?
न वो आशा की किरण
ही हाथ आती है
जिसे थाम कर कभी
सूर्य नारायण के
आँगन तक पहुँचने की
साध मन में जगी थी ,
न वो चेहरा ही दिखाई
देता है
जिसे निहारते
निहारते
जीवन की वैतरिणी
पार करने की लगन
मन में लगी थी !
जीवन की इस सीमा
रेखा पर
नितांत एकाकी खड़ी
मैं यह सोचने को
बाध्य हूँ कि
जब नाम को भी अँधेरा
कहीं नहीं
फिर भी चहुँ ओर पसरे
प्रखर प्रकाश से
आँखें
इतनी चौंधिया कैसे जाती
हैं
कि कोई राह नहीं
सूझती ,
जीवन की यह गुत्थी
जिसे सुलझाते
सुलझाते
तमाम उम्र बीत गयी
किसी तरह आज भी
क्यों
बुझाये नहीं बूझती !
साधना वैद