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Wednesday, June 18, 2025

सयानी श्रेया - लघुकथा

 



सरिता जी की तबीयत ठीक नहीं थी ! रात से ही बुखार चढ़ा हुआ था और बदन में भी बहुत दर्द था ! किसी तरह वो किचिन में बेटे बहू और पोती के टिफिन बनाने में लगी हुई थीं ! पोती श्रेया के स्कूल का वैन वाला आने ही वाला होगा ! ज़रा सी देर भी नहीं रुकता ! बच्चा बाहर न मिले तो वो दो बार हॉर्न बजा कर चला जाता है ! सरिता जी का बुखार शायद सुबह और तेज़ हो गया था !
बहू दीपा ऑफिस के काम में व्यस्त रहती थी तो सरिता जी ने ही उससे यह ज़िम्मेदारी ले ली थी ! अंधा क्या चाहे दो आँखें ! बहू को तो जैसे मुँहमाँगी मुराद मिल गयी थी ! उसने सुबह किचिन में आना ही बंद कर दिया ! संकोच के मारे दरवाज़ा खटखटा के बुलाना सरिता जी को उचित नहीं लगता था ! अब अगर वो टिफिन नहीं बनाएँगी तो श्रेया क्या खायेगी स्कूल में ! बेटे महेंद्र को भी उनके हाथ के बने पनीर के पराँठे बहुत पसंद हैं ! सारी तैयारी रात को ही कर ली थी लेकिन इस समय बुखार के मारे उनके हाथ काँप रहे थे ! फिर भी किसी तरह वे पराँठे सेकने की कोशिश कर रही थीं ! आँखों के आगे अँधेरा सा छा रहा था ! उन्हें पता ही नहीं चला श्रेया कब पीछे आकर खड़ी हो गयी थी !
सरिता जी अचेत होकर गिरने ही वाली थीं कि दो नन्हे हाथों ने जल्दी से एक कुर्सी खींच कर उनके पीछे लगा दी ! “मम्मी जल्दी आओ ! दादी गिर जाएँगी !” श्रेया की आवाज़ पूरे फ्लैट में गूँज रही थी !
दीपा और महेंद्र के कमरे का दरवाज़ा फटाक से खुला ! दोनों भागते हुए किचिन में आए !
सरिता जी की आँखों में अपराध बोध था, “पराँठे बन गए हैं दीपा बस टिफिन में रखने भर हैं ! मुझे ज़रा सा चक्कर आ गया था ! श्रेया ने कुर्सी पीछे लगा दी और मुझे गिरने से बचा लिया ! इसने बेकार शोर मचा दिया ! अभी लगा देती हूँ टिफिन !”
महेंद्र की घूरती हुई नज़रों से कुछ लज्जित सी दीपा ने जल्दी-जल्दी टिफिन में पराँठे डालते हुए कहा,

“नहीं माँ, श्रेया ने तो आज मुझे भी गिरने से बचा लिया !”  


चित्र - गूगल से साभार 


 साधना वैद

   


Saturday, June 14, 2025

दुमदार दोहे - मूँगफली

 




भुनी करारी कुरकुरी, मूँगफली ये लाल
भर दो सबकी जेब में, खुश हों जावें बाल !
बड़ी गुणकारी मेवा !

बैठे महफिल में सभी, छेड़ रहे हों राग
मूँगफली हों सामने, खुल जायेंगे भाग !
मज़ा दुगुना हो जावे !

हो जाड़े की धूप औ’, सुखा रहे हों बाल
रख दे दाने छील जो, मूँगफ़ली के लाल !
भला उसका भी होवे !

कितनी फुर्सत से रचा, प्रभु ने यह उपहार
सजे हुए हैं खोल में, सुन्दर दाने चार !
ईश की लीला न्यारी !

तन्मय होकर देखते, फ़िल्मों का है ज़ोर
अँधियारे में सब सुनें, चटर पटर का शोर !
धरा पर कूड़ा भारी !
  

अद्भुत है कारीगरी अद्भुत तेरा खोल
सुन्दरता से हैं सजे दाने ये अनमोल !
नमन है तुझको दाता !

गिर जाए दाना कभी, होता मन बेचैन
जब तक वह दिख जाय ना
, पीछा करते नैन !
करारी जीभ चढ़ी है !

साथ मसाला हो अगर, स्वाद मिले भरपूर
हाथ रुके ना एक पल
, करो न पैकिट दूर !
मज़ा हो जाए दूना !

राजमहल या झोंपड़ी, हो चाहे फुटपाथ
मूँगफली का राज है, देती सबका साथ !
गरीबों की ये मेवा !

साधना वैद


Thursday, June 12, 2025

सोरठा छंद

 



कैसी पोलमपोल, नाम पर साक्षरता के
ढीठ पी गए घोल, नियम सब नैतिकता के !


करिए उनका मान
, गुरू होते प्रभु जैसे
रखिये उनका ध्यान
, पिता का करते जैसे !

हो न परस्पर भीत पढ़ें जब विद्यालय में
मन में रक्खें प्रीत, विनय का भाव हृदय में !



 कैसे होगा नाम भला ऐसी शिक्षा से
रहें बराबर छात्र जहाँ बाहर कक्षा के !



दिए गए हैं ठेल छात्र अगली कक्षा में
हो जायेंगे फेल सभी जीवन रक्षा में !


साधना वैद




Monday, June 2, 2025

दो जून की रोटियाँ

 





ठंडा है चूल्हा

सीली हैं लकड़ियाँ

बुझी है आग


कैसे मिलेंगी

दो जून की रोटियाँ

खाली बर्तन


चिंतित मन

  बीच मंझधार में  

डूबती नैया
 

अभागे नहीं

मेहनतकश हैं

कमा ही लेंगे


इतना पैसा

कि जल जाए चूल्हा

आ जाए आटा


नसीब होंगी

दो जून की रोटियाँ

भूखे पेटों को


सुबह होगी

उगेगा सूरज भी 

आसमान में


होगा उजाला

हमारे भी घर में

जलेगा चूल्हा


पकायेगी माँ

दो जून की रोटियाँ

हमारे लिए !


चित्र - गूगल से साभार


साधना वैद



Sunday, June 1, 2025

विलंबित न्याय प्रक्रिया के दंश

 


विलंबित न्याय प्रक्रिया हमारे समाज के लिए कितनी दोषपूर्ण है और यह किस प्रकार दीमक की तरह हमारे धैर्य, हमारी आस्था और हमारे विश्वास को चाट कर खोखला करती जा रही है इस विषय पर कई बार विमर्श हो चुका है लेकिन तब से अब तक न तो सूरते हाल में कोई बदलाव आया है, न लोगों के मन के असंतोष और हताशा में कमी आई है, न न्याय प्रक्रिया के नीति नियंताओं की नींद ही टूटी है तो आज के इस विमर्श में क्या नया जोड़ा जा सकेगा और इस विमर्श से किसका भला होगा यह कल्पना से परे है !
अंग्रेज़ी में जो कहावत है Justice delayed is justice denied. अगर यह सत्य है तो हमारे यहाँ तो शायद न्याय कभी हो ही नहीं पाता । एक तो मुकदमे ही अदालतों में सालों चलते हैं दूसरे जब तक फैसले की घड़ी आती है तब तक कई गवाह, यहाँ तक कि चश्मदीद गवाह तक अपने बयानों से इस तरह पलट जाते हैं कि वास्तविक अपराधी सज़ा से या तो साफ-साफ बच जाता है या बहुत ही मामूली सी सज़ा पाकर सामने वाले का मुहँ चिढ़ाता सा लगता है । ऐसे में क्या हम सीना ठोक कर यह कह सकते हैं कि फैसला सच में न्यायपूर्ण हुआ है । बड़ी-बड़ी अदालतों में न्याय करने के लिए जो न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे हैं क्या वो वाकई इतने भोले और नासमझ होते हैं कि इन मुकर जाने वाले गवाहों की नीयत और मंशा को वे समझ ही नहीं पाते और उनके फैसले भी इन गवाहों के बयानों के आधार पर बदलते रहते हैं ! यह तो न्याय नहीं है !
भयमुक्त और अपराध मुक्त समाज की परिकल्पना को यदि साकार रूप देना चाहते हैं तो सबसे पहले मुकदमों के त्वरित निपटान की दिशा में ठोस कदम उठाए जाने की सख्त ज़रूरत है । आम आदमी समाज में भयमुक्त हो या न हो लेकिन यह तो निश्चित है कि अपराधी पूर्णत: भयमुक्त हैं और आए दिन अपने क्रूर और खतरनाक इरादों को अंजाम देते रहते हैं । य़दि हमारी न्याय प्रणाली त्वरित और सख्त हो तो समाज में इसका अच्छा संदेश जाएगा और अपराधियों के हौसलों पर लगाम लगेगी । गिरगिट की तरह बयान बदलने वाले गवाहों पर भी अंकुश लगेगा और अपराधियों को सबूत और साक्ष्यों को मिटाने और गवाहों को खरीद कर, उन्हें लालच देकर मुकदमे का स्वरूप बदलने का वक़्त भी नहीं मिलेगा । कहते हैं जब लोहा गर्म हो तब ही हथौड़ा मारना चाहिए । समाज में अनुशासन और मूल्यों की स्थापना के लिए कुछ तो कड़े कदम उठाने ही होंगे । त्वरित और कठोर दण्ड के प्रावधान से अपराधियों की पैदावार पर अंकुश लगेगा और शौकिया अपराध करने वालों की हिम्मत टूट जाएगी । इसके लिए आवश्यक है कि न्यायालयों में सालों से चल रहे चोरी या इसी तरह के छोटे मोटे अपराधों वाले विचाराधीन मुकदमों को या तो बन्द कर दिया जाए या जल्दी से जल्दी निपटाया जाए । ऐसे मुकदमों के निपटान के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी जाए और भविष्य में और तारीखें ना दी जाएं । स्कूल कॉलेज में एक कक्षा पास करने के लिए भी तो दस महीने की सीमा तय की जाती है ! उसी तरह मुकदमों की गंभीरता के आधार पर उनकी समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिए ! तारीखों पर तारीखें लेने के  चक्कर में ऐसे अनगिनती मुकदमें कई सालों से विचाराधीन पड़े हुए हैं जिनमें अधिकतम सज़ा एक से दो साल ही है ! उन अभागे मुजरिमों का कोई सरपरस्त नहीं हैं इसलिए वे अपने अपराध की अधिकतम सज़ा से भी कहीं अधिक सज़ा काट लेने के बाद भी जेलों में जीवन काटने के लिए अभिशप्त हैं सिर्फ इसलिए कि उनके मुकदमे का फैसला नहीं आया है ! यह तो न्याय नहीं है !
और कुछ फैसले आए तो भी तो कब ! ज़रा बानगी देखी !
डॉक्टर की म्रत्यु के 13 साल बाद उस पर 25 लाख रुपये का जुर्माना !
आगरा के पनवारी काण्ड का 35 साल बाद फैसला आया !
निठारी काण्ड के अभियुक्त अभी तक स्वतंत्र घूम रहे हैं !
दिल्ली के उपहार सिनेमा के भीषण अग्निकांड का फैसला 18 साल बाद आया !
जेसिका लाल मर्डर केस में मुख्य अभियुक्तों को बचाने के लिए कई दांव पेंच खेले गए जिन्होंने केस का रूप ही बदल दिया और सालों मुकदमे को विलंबित गति से कोर्ट में चला कर सारे आरोपियों को बरी कर दिया गया !
ऐसे ही न जाने कितने केसेज़ हैं जिनमें न्याय मिलने की आशा शनै: शनै: ही निराशा
, हताशा और अवसाद में बदल गई और जाने कितने लोगों के जीवन में अँधेरा छा गया !
न्यायाधीशों की वेतनवृद्धि और पदोन्नति उनके द्वारा निपटाये गए मुकदमों के आधार पर तय की जाए । अनावश्यक और अनुपयोगी कानूनों को निरस्त किया जाए ताकि अदालतों में मुकदमों की संख्या को नियंत्रित किया जा सके और उनके कारण अदालतों में निचले स्तर पर व्याप्त अव्यवस्था, भ्रष्टाचार तथा  पुलिस, प्रशासन और वकीलों के मकड़्जाल से आम आदमी को निजात मिल सके । न्यायालयों की संख्या बढ़ायी जाए और क्षुद्र प्रकृति के मुकदमों का निपटान निचली अदालतों में ही हो जाए । अपील का प्रावधान सिर्फ गम्भीर प्रकृति के मुकदमों के लिए ही हो । बेवजह तारीखें लेकर मुकदमों को घसीटने वाले वकीलों को भी दण्डित किया जाना चाहिए !
इसी तरह से कुछ कदम यदि उठाए जाएंगे तो निश्चित रूप से समाज में बदलाव की भीनी-भीनी बयार बहने लगेगी और आम आदमी चैन की साँस ले सकेगा। 



साधना वैद