Followers

Friday, August 8, 2025

बचपन का रक्षा बंधन

 



बचपन की बातें और बचपन की यादें जब भी दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती हैं मन गुलाबी-गुलाबी सा होने लगता है ! विशेष तौर पर जब किसी त्योहार से जुड़ी यादों का ज़िक्र हो तो न जाने कितनी खुशबुओं से घिरा पाने लगती हूँ खुद को !
कोई भी पर्व त्योहार हो मम्मी का आसन रसोई में सुनिश्चित होता था और घर भर में सुबह शाम पकवानों की खुशबू बरबस ही हम सबको खींच-खींच कर चौके में ले जाती जहाँ हर पकवान का भोग हम ही सबसे पहले लगाते !
सावन का महीना विशेष रूप से उल्लास और उत्साह को समेट लाता ! घर में बड़ी मजबूत रस्सी वाला झूला डाला जाता ! कारपेंटर से लकड़ी की बड़ी सी पटलियाँ बनवाई जातीं कि कम से कम दो लोग तो एक साथ झूले पर बैठ जाएं ! तीजों पर मम्मी हमारे दुपट्टे रंगतीं कभी चुनरी प्रिंट के कभी लहरिये के ! उनमें रात-रात भर जाग कर किरण गोटा लगातीं ! पत्तों वाली मेंहदी सिल बट्टे पर पीस कर मूँज की खरेरी खाट पर पुरानी दरी पर लिटा कर हमारे हाथों और पैरों में मेंहदी लगातीं और घर में सिंवई
, घेवर, खीर, अंदरसे की खुशबू तैरती रहती !
रक्षा बंधन के आने से पंद्रह दिन पहले से हलचल मची रहती ! राखियाँ दूसरे शहरों में रहने वाले चचेरे, तयेरे
, मौसेरे, ममेरे भाइयों को भी तो भेजनी होती थीं ! लिफ़ाफ़े में कौन सी राखी ठीक रहेगी और कौन सी सबसे सुन्दर भी हो यह छाँटने में ही बहुत समय लग जाता ! आठ दिन पहले ही सब पोस्ट हो जाएं यह कोशिश रहती थी ताकि सबको समय से मिल जाएं !
रक्षा बंधन के दिन सुबह से व्रत रखते थे कि जब तक राखी नहीं बाँध लेंगे मुँह नहीं जुठारेंगे ! भैया को सुबह से ही जल्दी-जल्दी तैयार होने के लिए मम्मी टोकती रहतीं, “अरे ! नहाए नहीं अभी तक ? जल्दी राखी बँधवा लो देखो तुम्हारी छोटी बहन सुबह से भूखी बैठी है !”
बड़ी खातिर होती थी उस दिन हमारी ! राखी बाँधने के बाद शगुन के पाँच रुपये मिला करते थे ! पाँच रुपये भैया देते पाँच रुपये बाबूजी ! कुछ अपनी गुल्लक से बचत किये हुए पैसे निकाल कर हम दूसरे ही दिन बाज़ार पहुँच जाते ! उन दिनों आजकल की तरह मँहगे-मँहगे सूट साड़ियों या उपहारों का फैशन नहीं था ! दो तीन रंगों की सलवारें हुआ करती थीं ! उनसे मैचिंग प्रिंट का कपड़ा लाकर घर में ही हमारे कुरते मम्मी खुद सिया करती थीं ! दर्जी से जनाने कपडे सिलवाने का चलन उन दिनों नहीं था ! बहुत बढिया कॉटन के प्रिंटेड कपड़े चार पाँच रुपये मीटर के आ जाया करते थे ! दो मीटर में हमारा कुर्ता बन जाता था ! कुछ पैसे मम्मी से भी मिल जाते ! तो बस रक्षाबंधन के अगले ही दिन कम से कम दो कुर्तों का कपड़ा आ जाता और हमारी बल्ले-बल्ले हो जाती !
तो ऐसे मनाते थे हम अपने त्योहार ! न थोड़ा सा भी शोर शराबा
, न कोई आडम्बर, न दिखावा लेकिन सुख, आनंद और संतुष्टि अपरम्पार !

चित्र - गूगल से साभार 


साधना वैद


Friday, August 1, 2025

दो - मुक्तक - सावन

 



जाने कैसे सावन में मेरा ये मन बँट जाता है !
‘पी’ घर ‘बाबुल’, ‘बाबुल’ के घर ‘साजन’ क्यों तरसाता है
बैठी हूँ बाबुल के अँगना झूल रही हूँ झूले पे 
पर कजरी का हर मुखड़ा प्रियतम की याद दिलाता है !  


सीला सावन, तृषित तन मन, दूर सजन 
गाते विहग, सुरभित सुमन, पुलकित पवन
सावन आया, रिमझिम फुहार, झूमी धरा  
भीगे नयन, व्याकुल है मन, आओ सजन !


चित्र  - गूगल से साभार 

साधना वैद 

Tuesday, July 29, 2025

विकास का रथ – लघुकथा

 



नव निर्मित पुल का उदघाटन करके मंत्री जी अभी-अभी मंच पर आए थे ! पीछे-पीछे पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों का हुजूम था ! उनके पीछे आम जनता की बड़ी भारी भीड़ नेता जी की जय जयकार करती और ‘नेता जी जिंदाबाद’ के नारे लगाती उमड़ी पड़ रही थी ! मंच पर आसीन होते ही नेता जी ने माइक सम्हाला, “ हमारी सरकार का पहला उद्देश्य रहा है जनता की सेवा और उनका सर्वांगीण विकास ! हमारा तो ध्येय ही जनता को जोड़ने का रहा है ! इसीलिए हमने अपने तीन साल के कार्यकाल में प्रदेश में तीन नए पुलों का निर्माण किया है और हज़ारों लोगों को इन पुलों के माध्यम से एक दूसरे के साथ जोड़ा है ! उनके बीच व्यापार और सामाजिक सौहार्द्र की संभावनाओं को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है ! हमारा विकास का रथ बहुत तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है ! अपने दो वर्ष के कार्यकाल में अभी हमारी दो पुल बनाने की योजना और है ! इस तरह प्रदेश में पुलों की संख्या आठ हो जाएगी ! पाँच पुल हमारे बनाए हुए और तीन पुल पहले के बने हुए !”
“नहीं-नहीं नेता जी ! कुछ भूल हो रही है ! वर्तमान में पुलों की संख्या कुल तीन ही है ! तीन पुल तो देख रेख और मरम्मत के अभाव में ढह चुके हैं ! एक पुल और जिसका निर्माण दो साल पहले ही हुआ था, गिरने की कगार पर है ! दो साल बाद कितने पुल अस्तित्व में होंगे अभी से कहना मुश्किल है !” भीड़ में से एक आवाज़ उभरी !




साधना वैद

चित्र - गूगल से साभार 

Monday, July 28, 2025

काँवड़ यात्रा

 



संकल्प की शक्ति
भक्ति की पराकाष्ठा
श्रद्धा की अनुपम परिणति
काँवड़ियों की यह यात्रा !
सिर्फ एक भोला सी आशा
कि चढ़ा दें अपने देवता पर
श्रद्धा से संकल्पित
यह पवित्र जल
जो भर कर लाए हैं
अपनी गागर में
पवित्र नदियों से !
ले जा रहे हैं धर कर
श्रम से सुसज्जित काँवड़ में
चढ़ाने को अपने इष्ट देव पर
कि प्रसन्न कर उन्हें
पा सकें वरदान
जीवन में सफलता का
सुख समृद्धि का
परिवार की खुशियों का
कि बना लें अपना जीवन
खुशहाल प्रभु की कृपा से !
हे महादेव
पूरण करना आशा  
इन भोले-भाले काँवडियों की
रक्षा करना इनके विश्वास की
और कर देना इनकी
यह यात्रा सफल !
मेरा विश्वास भी तो जुड़ा है
इनके विश्वास के साथ !
इन्होंने तो अपनी पारी खेल ली
अब तुम्हारी बारी है !  



साधना वैद  
 


Sunday, July 20, 2025

कुण्डलियाँ

 



पेड़ों पे झूले पड़े सखियों का है शोर

खनक रही हैं चूड़ियाँ मन आनंद विभोर

मन आनंद विभोर मगन मन झूल रही हैं

कजरी, गीत, मल्हार, सभी दुख भूल रही हैं

बोली कोयल, फूल ‘साधना’ वन में फूले

आया सावन मास पड़े पेड़ों पर झूले !



रास रचैया की सुनी, जब मुरली की तान।

भागीं जमुना तीर पर, ज्यों तरकश से बाण।।

ज्यों तरकश से बाण, किशन को ढूँढ रही हैं ।

थिरक उठे हैं पाँव मुदित मन झूम रही हैं ।।

होतीं सभी विभोर, ‘साधना काकी, मैया।

दिखे न कोई और,  कान्ह सा रास रचैया ।


चित्र - गूगल से साभार 



साधना वैद


Friday, July 11, 2025

बहका सा मन

 





देखा था जब तुम्हें पहली बार

तो न जाने क्यों दिल दिमाग को

झकझोर रही थी महुआ की

मदिर गंध बारम्बार !

उठती गिरती बरौनियों की

चिलमन में छिपी तुम्हारी

नशीली सी आँखें,

जैसे दे रहीं थीं आमंत्रण मुझे

कि ‘चलो उड़ चलें दूर गगन में

खोल कर अपनी पाँखें’ !

प्रणय की अनुभूतियों से प्रकम्पित

तुम्हारी लड़खड़ाती सी आवाज़,

खींच कर मुझे भी लिए जाती थी

महुआ के उस उपवन में

जहाँ महुआ के सुर्ख लाल फूलों की

चूनर ओढ़ थिरकती थी हवा और

महुआ के हरे चिकने पात

हर्षित होकर बजा रहे थे सुरीला साज़ !

कहाँ छिप गयी हो तुम प्रिये

आ जाओ न !

जीवन में फिर से बसंत महका है,

महुआ में फिर से फूल खिले हैं,

तुमसे मिलने को आतुर

मेरा मन चिर तृषित मन आज

फिर तुम्हारे लिए बहका है !



चित्र - गूगल से साभार ! 

साधना वैद


Sunday, July 6, 2025

नारी अस्मिता और पुरुष मानसिकता

 



विमर्श का यह विषय वास्तव में बहुत ही चिंतनीय एवं सामयिक है ! जबसे हाथरस वाला काण्ड हुआ है घृणा और जुगुप्सा के मारे संज्ञाशून्य होने जैसी स्थिति हो गयी है ! सोशल मीडिया पर कितना ही बवाल मचता रहे ऐसी गंदी मानसिकता वाले लोग इस प्रकार के दुष्कृत्यों को बेख़ौफ़ अंजाम देते ही रहते हैं ! हाथरस की आंच ठंडी भी नहीं हुई थी की राजस्थान के बारां और उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में फिर ऐसे ही काण्ड हो गए ! शर्मिंदगी क्षोभ और गुस्से का यह आलम है कि लगता है मुँह खोला तो जैसे ज्वालामुखी फट पड़ेगा !  यह किस किस्म के समाज में हम रह रहे हैं जहाँ ना तो इंसानियत बची हैन दया माया ! ना किसी मासूम के प्रति ममता और करुणा का भाव ना किसी नारी के लिए सम्मान का भाव ही हृदय में शेष रहा है ! क्या कारण है कि नारी के प्रति पुरुषों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया ! हर युग में उसे केवल भोग्या मान कर पुरुषों ने उसका बलात्कार किया है ! कभी विचारों से, कभी निगाहों से, कभी अश्लील संवादों से और कभी मौक़ा मिल गया तो शरीर से ! पुरुषों की ऐसी घृणित मानसिकता के लिए किसे दोष दिया जाना चाहिए ! इतना तो मान कर चलना ही होगा कि इस तरह की मानसिकता वाले लोग जानवर ही होते हैं ! ऐसे अपराधियों के माता-पिता से पूछना चाहिए कि अपने ऐसे कुसंस्कारी और हैवान बेटों के लिए वे खुद क्या सज़ा तजवीज करते हैं ! अगर वे अपने बच्चों के लिए रहम की अपील करते हैं तो उनसे पूछना चाहिए कि यदि उनकी अपनी बेटी के साथ ऐसी दुर्घटना हो जाती तो क्या वे उसके गुनहगारों के लिए भी रहम की अपील ही करते ? इतनी खराब परवरिश और इतने खराब संस्कार अपने बच्चों को देने के लिए स्वयम उन्हें क्या सज़ा दी जानी चाहिए ?

मेरे विचार से ऐसे गुनहगारों को कोर्ट कचहरी के टेढ़े-मेढ़े रास्तोंवकीलों और जजों की लम्बी-लम्बी बहसों और हर रोज़ आगे बढ़ती मुकदमों की तारीखों की भूलभुलैया से निकाल कर सीधे समाज के हवाले कर देना चाहिए ! सर्व सम्मति से समाज के हर वर्ग और हर क्षेत्र से प्रबुद्ध व्यक्तियों की समिति बनानी चाहिए जिनमें प्राध्यापकवकीलजजकलाकारगृहणियाँ, डॉक्टर्स, इंजीनियर्सव्यापारीसाहित्यकार व अन्य सभी विधाओं से जुड़े लोग शामिल हों और सबकी राय से उचित फैसला किया जाना चाहिए और गुनहगारों को दंड भी सरे आम दिया जाना चाहिए ताकि ऐसी विकृत मनोवृत्ति वाले लोगों के लिए ऐसा फैसला सबक बन सके !

इतने घटिया लोगों का पूरी तरह से सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाना चाहिए ! सबसे ज्यादह आपत्ति तो मुझे इस बात पर है कि रिपोर्टिंग के वक्त ऐसे गुनाहगारों के चहरे क्यों छिपाए जाते हैं ! होना तो यह चाहिये कि जिन लोगों के ऊपर बलात्कार के आरोप सिद्ध हो चुके हैं उनकी तस्वीरेंनामपता व सभी डिटेल हर रोज़ टी वी पर और अखबारों में दिखाए जाने चाहिए ताकि ऐसे लोगों से जनता सावधान रह सके ! समाज के आम लोगों के साथ घुलमिल कर रहने का इन्हें मौक़ा नहीं दिया जाना चाहिए ! यदि किरायेदार हैं तो इन्हें तुरंत घर से निकाल बाहर करना चाहिए और यदि मकान मालिक हैं तो ऐसा क़ानून बनाया जाना चाहिए कि इन्हें इनकी जायदाद से बेदखल किया जा सके ! जब तक कड़े और ठोस कदम नहीं उठाये जायेंगे ये मुख्य धारा में सबके बीच छिपे रहेंगे और मौक़ा पाते ही अपने घिनौने इरादों को अंजाम देते रहेंगे ! जब दंड कठोर होगा और परिवार के अन्य सदस्य भी इसकी चपेट में आयेंगे तो घर के लोग भी इनके चालचलन पर निगरानी रखेंगे और लगाम खींच कर रखेंगे ! यदि इन बातों पर ध्यान दिया जाएगा तो आशा कर सकते हैं कि ऐसी घटनाओं की आवृति में निश्चित रूप से कमी आयेगी !

साधना वैद