कुम्भ का मेला
संतों का समागम
भीड़ का रेला
अपार जनसमूह
आस्था एवं भक्ति का
अनूठा संगम
जो भी दर्शन कर पाया
कर रहा एक-एक दृश्य
श्रद्धावनत हो हृदयंगम !
संगम तट पर पवित्र जल में
स्नान करने वालों की भीड़
पंछी तक उड़ आए
छोड़ कर अपना नीड़ !
हर जगह मिल रहे
हार फूल नारियल प्रसाद
गर्वोन्नत खड़े हैं
मठाधीशों के सुसज्जित
अस्थाई आधुनिक प्रासाद !
पर्यटकों को भी
देश विदेश से
कुम्भ की शोहरत खींच लाई,
हर व्यक्ति रंगा है
आस्था के रंग में
उसकी भक्ति उसकी जिज्ञासा
कैसा अनोखा रंग लाई !
भोर की प्रथम किरण के साथ ही
गले तक पुण्य सलिला गंगा में
डूबे खड़े हैं श्रद्धालु
कर रहे हैं अमृत स्नान और
भक्ति भाव से सूर्योपासना,
दे रहे हैं दोनों हाथों से अर्ध्य
इस कामना के साथ
कि फलित हो उनकी उपासना !
लगाते हैं जयकारा
ऊँची आवाज में
जय महादेव, जय शिव शंकर,
हर-हर भोले, हर-हर शंभू,
रचा कर चन्दन तिलक ललाट पर
सराहते हैं अपना भाग्य
कि प्रयागराज में उनसे
मिलने धरा पर आये हैं स्वयं शंभू,
नत मस्तक हो अपार श्रद्धा से
दोहराते हैं वे भी मन ही मन
जय महा कुम्भ, जय-जय भोले
जय-जय शंकर
जय शिव शंभू !
साधना वैद
पुकारूँ
नित्य तुम्हें
कहाँ छिपे हो
मेरे प्यारे
मोहना !
बुलाऊँगी
जब तुम्हें
तुम आओगे ना
वादा करो
मुझसे !
कितनी
प्यारी लगती
मोहक छवि तुम्हारी
जाऊँ मैं
बलिहारी !
खिले
रंग बिरंगे
उपवन में फूल
हवा लहराई
मदभरी !
अघोर
है विसंगति
कविता कोमल तुम्हारी
हृदय किन्तु
कठोर !
इसे
नाथना होगा
किसी भी तरह
हारेगा नहीं
मन !
साधना वैद
आधुनिक जीवन शैली में एक नई बात और जुड़ गई है ! नए साल पर कोई
संकल्प लेना और मन वचन कर्म से उसका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध रहना और उसका निर्वाह करने के लिए प्राण प्राण से जुटे रहना ! अब देखिये
संकल्प भी दो तरह के होते हैं ! कुछ संकल्प ऐसे होते हैं जिनमें हींग लगे न फिटकरी
और रंग भी चोखा आये ! कहने का अर्थ यह कि इनका पालन करने के लिए इंसान का आत्मबल
और इच्छा शक्ति का प्रबल होना परम आवश्यक है बाहरी कोई बाधा इन्हें पूरा करने से
नहीं रोक सकती ! जैसे---
मैं जीवन में कभी झूठ नहीं बोलूँगा,
मैं रोज़ सुबह गीता का पाठ करूँगा,
मैं रोज़ अपनी माँ और पिताजी के पैर दबाया करूँगा
मैं बेकार के कार्यक्रम देख कर अपना समय नष्ट नहीं करूँगा
इत्यादि इत्यादि !
दूसरे प्रकार के संकल्प ऐसे होते हैं जिनमें परिस्थितिजन्य बाधाएं आ सकती हैं उनका
पूरा होना अक्सर मुश्किल भी हो जाता है ! जैसे---
मैं इन गर्मियों में कश्मीर ज़रूर जाउंगा !
मैं हर दीवाली पर वृद्धाश्रम में निश्चित धन राशि दान में दूँगा !
मैं साल में एक ट्रिप विदेश के लगाउंगा,
मैं दो बच्चों की पढाई का खर्च उठाउँगा !
अब यहाँ पर संकल्प लेने वाला ऐसे भौतिक संसाधनों के बल पर संकल्प ले रहा है जो
उसके वश में नहीं हैं ! मान लीजिये गर्मियों में घर में कोई संकट आ जाए ! कोई
बीमार हो जाये, कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए तो कश्मीर का
कार्यक्रम खटाई में पड़ सकता है ! ऐसे ही विदेश यात्रा का या दान में धन राशि देने
का या बच्चों को पढ़ाने का संकल्प तभी तक निभाया जा सकता है जब तक पैसा बैंक में है
! यह पैसा दुर्घटना या शादी विवाह जैसे किसी
आपदा प्रबंधन में खर्च हो गया तो खटाई में पड़ सकता है ! इसलिए ऐसा संकल्प लें
जिसमें आत्म परिष्कार की संभावना भी हो और जिसे अपनी आत्मिक शक्ति से पूरा भी किया
जा सके ! वैसे इस तरह के संकल्प लेने की आवश्यकता उन्हें ही पड़ती है जो इनका पालन
नहीं करते ! ये बातें तो घर में माता पिता के द्वारा और स्कूलों में नैतिक शिक्षा की
क्लास में बचपन से ही सिखाई जाती हैं !
सदा सच बोलो !
दीन दुखी की सेवा करो !
बड़ों का सम्मान करो !
छोटों को प्यार करो !
रोज़ सुबह ईश्वर का ध्यान करो !
आदि आदि ! यह न्यू ईयर रिजोल्यूशन का फैशन भी नया-नया ही निकला है ! शायद बिगड़ों
को सुधारने के लिए यह तरीका अपनाया गया है !
साधना वैद
चित्र - गूगल से साभार
पिछले सप्ताह
बैंगलोर के होनहार युवा इंजीनियर की आत्महत्या ने सारे देश को झकझोर कर रख दिया है
! एक समय था जब समाज में स्त्री की बड़ी दयनीय दशा हुआ करती थी और अक्सर लड़की होने
की वजह से पहले तो अपने ही जन्मदाता माता-पिता के घर में उसके साथ भेद भाव किया
जाता था और बेमेल विवाह के बाद ससुराल में भी उसे भाँति-भाँति से प्रताड़ित किया
जाता था ! कभी दहेज़ कम लाने की वजह से, कभी संतान न होने की वजह से या संतान हुई
भी तो लड़की पैदा करने की वजह से बहू को ही तरह-तरह की मानसिक और शारीरिक यातनाएं
दी जाती थीं ! उन्हें इतने कष्ट दिए जाते थे कि कभी-कभी तो वे आत्महत्या करने जैसे
घातक कदम उठा लेती थीं ! कभी-कभी तो ससुराल में ही उन्हें ज़हर देकर मार दिया जाता
था या मिट्टी का तेल छिड़क कर आग के हवाले कर दिया जाता था ! अगर यह सब न किया गया
हो तो उन्हें उनके मायके वापिस भेज दिया जाता था जहाँ उनका जीवन बड़ी ही दयनीय दशा
में पराश्रित होकर गुज़रता था ! यह वो समय था जब घर परिवार में स्त्रियों का दर्ज़ा
पुरुष से नीचा माना जाता था ! लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था ! ससुराल
में उनकी हैसियत नौकरानियों से भी बदतर होती थी ! इस विषय पर आधारित अनेकों
उपन्यास और कहानियाँ हमने भी पढ़ी हैं और आप सबने भी ज़रूर पढ़ी होंगी ! पिता की संपत्ति
में बेटी का कोई अधिकार नहीं होता था ! ससुराल में तो उसे इंसान ही नहीं समझा जाता
था इसलिए ज़मीन जायदाद में अधिकार की तो बात ही बेमानी थी ! स्त्रियों की इस
दुर्दशा को देखते हुए कुछ कड़े क़ानून स्त्रियों के हित में बनाए गए ! पिता की संपत्ति
में उनका अधिकार सुरक्षित किया गया, ससुराल में भी उनकी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए
पति व ससुर की संपत्ति में भी उनका हिस्सा सुरक्षित किया गया ! लड़कियों की शिक्षा
के लिए ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया गया ! उद्देश्य था कि ससुराल में अगर उन्हें
दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है तो उन्हें इतना आत्मनिर्भर और सशक्त बनाया जाए
कि वे प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वतंत्र रूप से अलग रह कर भी आत्मसम्मान के साथ
अपना जीवन यापन कर सकें !
स्त्रियों को यह विशेषाधिकार भी दिया गया कि यदि वे दहेज़ प्रताड़ना या घरेलू हिंसा
का आरोप ससुराल वालों पर लगा कर मुकदमा दायर कर दें तो पुलिस ससुराल वालों को
तुरंत गिरफ्तार करे और उन्हें आसानी से बेल भी ना मिले ! इन प्रावधानों ने वास्तव
में कितनी अबलाओं को सबल बनाने में सहायता की इसके आँकड़े तो मेरे पास उपलब्ध नहीं
हैं लेकिन अपराधी प्रवृति की शातिर दिमाग की अनेकों स्त्रियों और उनके परिवार
वालों के हाथ करोड़ों की लॉटरी का टिकिट ज़रूर लग गया ! बहुओं बेटियों को इन्साफ
दिलाने की मुहिम में इन कानूनों का भरपूर दुरुपयोग होने लगा और अनेकों भले सज्जन
पतियों की और उनके परिवार वालों की ज़िंदगी नर्क बन गयी ! ये सारी व्यवस्थाएं और
क़ानून तभी तक ठीक थे जब तक इनका दुरुपयोग नहीं किया जाता था ! अब आँकड़े बताते हैं
कि हर साल हज़ारों की संख्या में झूठे केस दायर किये जाते हैं और न जाने कितने भद्र
पति सामाजिक प्रताड़ना और अपमान से बचने के लिए और पत्नी की अनाप-शनाप हर्जे खर्चे
की माँग को पूरा न कर सकने की स्थिति में अपनी जीवन लीला को समाप्त कर देने के
विकल्प को चुनने के लिए विवश हो जाते हैं !
लड़कियों को सबल सशक्त बनाने का अभियान इतना तेज़ हुआ कि ये लड़कियाँ कब सही-गलत, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय की सीमा रेखा
को क्रॉस करके प्रताड़ित होने अबला नारी की भूमिका से बाहर निकल कर प्रताड़ित करने
वाली जल्लाद खलनायिका की भूमिका में आ गईं किसीको पता ही नहीं चला ! आजकल समाज में
लड़कियाँ ज़रा भी दीन हीन और कातर नहीं रह गई हैं ! नारी जाति में भी घटिया सोच और
आपराधिक प्रवृत्ति की अनेकों स्त्रियाँ हैं जिन्होंने इन कानूनों का दुरुपयोग कर
अनेकों भले और सज्जन पुरुषों की और अपने ससुराल वालों की नाक में दम कर दी है ! इन
दिनों अतुल सुभाष जी का जो केस मीडिया में छाया हुआ है वह इस बात का ज्वलंत उदाहरण
है ! स्त्री हो या पुरुष किसीका भी उत्पीड़न होना बहुत गलत है ! जब हर क्षेत्र में
नारी समान अधिकार की माँग रखती है तो इस क़ानून के तहत भी उसे कोई विशेषाधिकार
प्राप्त नहीं होना चाहिए ! पहले पत्नी को पति द्वारा गुज़ारा भत्ता दिलवाए जाने का
प्रावधान इसलिए रखा जाता था कि तब स्त्रियाँ आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित होती
थीं ! वे स्वयं न तो शिक्षित होती थीं न नौकरी ही करती थीं इसलिए पति से अलग होने
के बाद उनके व बच्चों के भरण पोषण में कोई दिक्कत न आये इसलिए यह व्यवस्था की गयी
थी ! लेकिन अब जब नारी हर क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष खड़ी है और कही-कहीं तो
उससे भी अधिक कमा रही है तो उसे गुज़ारा भत्ता किसलिए चाहिए ? यहाँ स्त्री का
स्वाभिमान आड़े क्यों नहीं आता ? उसे दोनों हाथों में लड्डू चाहिए ! खुद तो कमा ही
रही है पति को भी लूटना है ! पति बेचारा पत्नी की बेसिर पैर की माँगें पूरी करते-करते
ही बाबा जी बन जाए ! यह नितांत अनुचित है, गलत है ! एक सभ्य एवं संवेदनशील समाज इस
शाईलॉकी प्रवृत्ति का कतई समर्थन नहीं कर सकता ! मेरे विचार से जो सज़ा उत्पीड़न
करने पर पति को और उसके परिवार को दी जाती है वही सज़ा ऐसी पत्नी को भी दी जानी
चाहिए और उस पर भी सख्त से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए !
समस्या यह है
कि महिलाओं के हित में जो क़ानून बनाए गए हैं वे मुकदमा दायर करने वाली हर महिला को
समान रूप से लाभान्वित करने वाले हैं ! इन कानूनों में बदलाव लाने की ज़रुरत है !
कोई बीमार जब इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाता है तो डॉक्टर उसकी बीमारी की गंभीरता
को जाँच परख कर उसे उतनी ही मिकदार की दवा देता है जो उसे स्वस्थ करने के लिए
आवश्यक हो ! साधारण खाँसी ज़ुकाम के मरीज़ को सीवियर निमोनिया की दवा तो नहीं दी जाएगी
ना ! इसमें संदेह नहीं है कि अभी भी हमारे समाज में अनेकों स्त्रियाँ ऐसी हैं
जिनकी स्थिति में बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है ! विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों
में जहाँ शिक्षा का प्रचार प्रसार अभी इतना नहीं हुआ है जितना शहरों में हुआ है और
जहाँ स्त्रियाँ अभी भी आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर हैं !
मेरे विचार से 498-A के मुकदमों का फैसला करते
समय मुकदमा दायर करने वाली महिला की आर्थिक स्थिति के बारे में गहराई से संज्ञान
लेने की बहुत अधिक ज़रुरत है ! अगर वह नौकरी करती है तो उसको कितना वेतन मिलता है, अपने माता-पिता की सम्पत्ति में उसका कितना अधिकार है और
उसके घर वालों का आर्थिक स्तर क्या है ? फिर अलग होने के बाद अपने जिस पति का वह
दोहन करना चाहती है उसका वेतन कितना है और उसके दायित्व कितने हैं ! गुज़ारे भत्ते के
लिए पत्नी के द्वारा माँगी गयी राशि उसे देने के बाद उसके पास जीवन निर्वाह के लिए
क्या बचेगा और कितना बचेगा ! पत्नी तो छोड़ कर चली गई लेकिन उसकी जो ज़िम्मेदारी
अपने बूढ़े माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के लिए हैं उन्हें तो और कोई नहीं
बाँटने वाला है ! ऐसे में निष्पक्ष और उचित न्याय यही होगा कि ऐसे केसेज़ को
निश्चित समय सीमा के अन्दर निपटाया जाए और पत्नी की आर्थिक स्थिति को भली प्रकार से
जानने समझने के बाद ही गुज़ारे भत्ते की राशि को तय किया जाए ! जहाँ पत्नी पूरी तरह
से सक्षम हो और किसी अतिरिक्त आर्थिक सहायता की उसे ज़रुरत न हो तो वहाँ पति को इस
मुसीबत से बख्श भी दिया जाना चाहिए ! सामान अधिकार के लिए ऊँची आवाज़ में चिल्लाने
वाली नारियों को सामान रूप से कर्तव्य निभाने के लिए भी तत्पर होना चाहिए ! अगर
बच्चों की कस्टडी पिता के पास है और अगर पिता आर्थिक रूप से पूरी तरह से सक्षम
नहीं है तो सक्षम पत्नी को बच्चों के भरण पोषण के लिए पति को आर्थिक मदद देनी
चाहिए ! सही अर्थों में समान अधिकार की अवधारणा तब ही साकार होगी ! यह नहीं कि
लाखों करोड़ों की दौलत गुज़ारे भत्ते के नाम से पति से ही वसूली जाए और उसे भिखारी
बना कर सड़क पर फेंक दिया जाए ! जिस दिन क़ानून में इस आलोक में परिवर्तन होंगे और जब
लोग देखेंगे कि इस तरह मुकदमा दायर करने से उनके पास किसी लॉटरी का टिकिट नहीं आने
वाला है और उन्हें कोई विशेष फ़ायदा नहीं होने वाला है तो झूठे केसेज़ बना कर पतियों
का दोहन करने का और उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का यह खौफनाक दौर ज़रूर
थमेगा !
साधना वैद
वर्तमान में जैसी शिक्षा
प्रणाली चलन में है उसे हम किसी भी तरह से बालोपयोगी तो बिलकुल भी नहीं है ! इस
शिक्षा प्रणाली ने बच्चों से उनका बचपन और खुशी छीन ली है ! बच्चे मशीन की तरह इस
शिक्षा प्रणाली के जाल में उलझ कर रह गए हैं और सुबह से शाम तक किताबों का बोझ
उठाये शहर की सडकों पर दौड़ते भागते दिखाई देते हैं !
पहले साल में केवल तीन बार
परीक्षा लेने का चलन था ! तिमाही, छ:माही और वार्षिक
परीक्षाएं हुआ करती थीं ! इम्तहान के दिनों में छात्र मेहनत करके परीक्षा दे आते
थे और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होकर अगली कक्षा में प्रवेश लेते थे ! पूरे साल
बच्चे खूब खुश रहते थे ! इनडोर, आउटडोर हर तरह के खूब खेल
खेलते थे और अपने बचपन के सखा सखियों के संग खूब आनंदमय वातावरण का लाभ भी उठाते
थे ! हर समय परीक्षा की तलवार सर पर लटकी हुई नहीं होती थी तो खूब बालोपयोगी पत्र
पत्रिकाओं और अपनी अवस्था के अनुसार साहित्यिक किताबों को भी पढ़ा करते थे ! हमने
भी अपने छात्र जीवन में अनेक उपन्यास और श्रेष्ठ कहानियाँ अदि पढ़ी हैं ! लेकिन अब
जो हर समय टेस्ट होते रहते हैं और इनके मार्क्स फाइनल रिज़ल्ट में जुड़ने का दबाव
बच्चों पर बनाया जाता है उसकी वजह से बच्चों को ज़रा भी समय नहीं मिल पाता है !
आजकल कोचिंग का भी प्रचलन
भी बहुत बढ़ गया है ! शिक्षा भी अब व्यापार बन चुकी है ! पहले वे ही थोड़े से बच्चे
ट्यूशन पढ़ते थे जो किसी एकाध विषय में कमज़ोर होते थे और कक्षा में बाकी बच्चों से
पढाई में पिछड़ जाते थे ! लेकिन अब तो बच्चा कितना भी होशियार हो ! कक्षा में भले
ही सबसे अधिक प्रतिभाशाली या टॉपर हो कोचिंग क्लासेज़ में तो उसे प्रवेश लेना ही
होगा क्योंकि इन दिनों यही चलन है ! माता पिता पर दोहरा भार पड़ जाता है ! एक तो
स्कूलों की फीस ही इतनी अधिक होती है कि सामान्य आमदनी के लोगों के पसीने छूट जाते
हैं उस पर कोचिंग कक्षाओं की फीस और देनी पड़ जाती है चाहे बच्चे को कोचिंग की
ज़रुरत हो या न हो ! कोचिंग कक्षाओं में बच्चों को भेजना आजकल फैशन की तरह हो गया
है ! सुबह के स्कूल गए हुए बच्चे थके हारे स्कूल से तीसरे पहर तक घर आते हैं ! ढंग
से खाना भी नहीं खा पाते कि कोचिंग क्लासेज़ का समय हो जाता है ! देर रात तक अगले
दिन के टेस्ट की तैयारी में जुटे रहते हैं ! अब परीक्षाओं में हाई स्कोर अंक लाने
का भी बहुत प्रेशर है बच्चों पर ! 90% अंक आने के बाद भी बच्चों को फूट-फूट कर
रोते हुए देखा है मैंने ! हमारे ज़माने में 50% से ऊपर अंक लाने वाले बच्चों को
बहुत होशियार समझा जाता था और 60% से ऊपर अंक लाकर प्रथम श्रेणी में पास होने वाले
बच्चे बहुत प्रतिभाशाली और मेधावी माने जाते थे !
आज की परीक्षा पद्धति ने
बच्चों की मुस्कराहट छीन ली है ! अधिकतर बच्चे अवसादग्रस्त रहने लगे हैं और
चिड़चिड़े व एकान्तप्रिय होते जा रहे हैं ! न वे परिवार के साथ अच्छा वक्त बिता पाते
हैं न दोस्तों के साथ खेल के मैदानों में और पार्क्स में दिखाई देते हैं ! इसका
मूल्य वे अपने स्वास्थ्य को दाँव पर लगा कर चुका रहे हैं ! अगर घर में जल्दबाजी
में ठीक से खाना नहीं खाया होता है तो वे शाम को कोचिंग क्लासेज़ के बाद अपनी मित्र
मंडली के साथ बाहर का हानिकारक जंक फ़ूड खाने की बुरी आदत की ओर प्रवृत्त हो रहे
हैं ! कोचिंग क्लासेस के आस-पास अनेकों खाने पीने के स्टॉल्स इन दिनों दिखाई देने
लगे हैं ! इसीका दुष्परिणाम है कि आजकल बहुत कम उम्र के युवाओं को हार्ट, शुगर, ब्लड प्रेशर आदि की समस्याएँ होने लगी हैं ! इसकी एक वजह
यह भी है कि इस उम्र में बच्चों को जो शारीरिक व्यायाम आदि करना चाहिए उसके लिए
उनके पास समय ही नहीं रहता ! शिक्षा प्रणाली और परीक्षाओं की रूपरेखा इस प्रकार की
होनी चाहिए कि बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके न कि वे केवल किताबी कीड़ा ही बन
कर रह जाएँ ! देश के उज्जवल भविष्य के लिए और सर्वांगीण विकास के लिए आज के युवाओं
का स्वस्थ होना परम आवश्यक है ! कहते हैं स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग होता है
!
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद