बचपन की बातें
और बचपन की यादें जब भी दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती हैं मन गुलाबी-गुलाबी सा होने
लगता है ! विशेष तौर पर जब किसी त्योहार से जुड़ी यादों का ज़िक्र हो तो न जाने
कितनी खुशबुओं से घिरा पाने लगती हूँ खुद को !
कोई भी पर्व त्योहार हो मम्मी का
आसन रसोई में सुनिश्चित होता था और घर भर में सुबह शाम पकवानों की खुशबू बरबस ही हम सबको
खींच-खींच कर चौके में ले जाती जहाँ हर पकवान का भोग हम ही सबसे पहले लगाते !
सावन का महीना विशेष रूप से उल्लास और उत्साह को समेट लाता ! घर में बड़ी मजबूत
रस्सी वाला झूला डाला जाता ! कारपेंटर से लकड़ी की बड़ी सी पटलियाँ बनवाई जातीं कि कम से कम दो लोग तो एक साथ झूले पर बैठ जाएं ! तीजों पर मम्मी हमारे दुपट्टे रंगतीं कभी चुनरी प्रिंट
के कभी लहरिये के ! उनमें रात-रात भर जाग कर किरण गोटा लगातीं ! पत्तों वाली
मेंहदी सिल बट्टे पर पीस कर मूँज की खरेरी खाट पर पुरानी दरी पर लिटा कर हमारे
हाथों और पैरों में मेंहदी लगातीं और घर में सिंवई, घेवर, खीर, अंदरसे की खुशबू तैरती
रहती !
रक्षा बंधन के आने से पंद्रह दिन पहले से हलचल मची रहती ! राखियाँ दूसरे शहरों में
रहने वाले चचेरे, तयेरे, मौसेरे, ममेरे भाइयों को
भी तो भेजनी होती थीं ! लिफ़ाफ़े में कौन सी राखी ठीक रहेगी और कौन सी सबसे सुन्दर
भी हो यह छाँटने में ही बहुत समय लग जाता ! आठ दिन पहले ही सब पोस्ट हो जाएं यह
कोशिश रहती थी ताकि सबको समय से मिल जाएं !
रक्षा बंधन के दिन सुबह से व्रत रखते
थे कि जब तक राखी नहीं बाँध लेंगे मुँह नहीं जुठारेंगे ! भैया को सुबह से ही जल्दी-जल्दी
तैयार होने के लिए मम्मी टोकती रहतीं, “अरे ! नहाए नहीं अभी तक ? जल्दी राखी बँधवा
लो देखो तुम्हारी छोटी बहन सुबह से भूखी बैठी है !”
बड़ी खातिर होती थी उस दिन
हमारी ! राखी बाँधने के बाद शगुन के पाँच रुपये मिला करते थे ! पाँच रुपये भैया
देते पाँच रुपये बाबूजी ! कुछ अपनी गुल्लक से बचत किये हुए पैसे निकाल कर हम दूसरे
ही दिन बाज़ार पहुँच जाते ! उन दिनों आजकल की तरह मँहगे-मँहगे सूट साड़ियों या
उपहारों का फैशन नहीं था ! दो तीन रंगों की सलवारें हुआ करती थीं ! उनसे मैचिंग
प्रिंट का कपड़ा लाकर घर में ही हमारे कुरते मम्मी खुद सिया करती थीं ! दर्जी से
जनाने कपडे सिलवाने का चलन उन दिनों नहीं था ! बहुत बढिया कॉटन के प्रिंटेड कपड़े चार पाँच रुपये मीटर के आ जाया करते थे ! दो मीटर में हमारा कुर्ता बन जाता था ! कुछ पैसे मम्मी से भी मिल जाते ! तो बस रक्षाबंधन के अगले ही दिन कम से कम दो कुर्तों का कपड़ा आ जाता और हमारी
बल्ले-बल्ले हो जाती !
तो ऐसे मनाते थे हम अपने त्योहार ! न थोड़ा सा भी शोर शराबा, न कोई आडम्बर,
न दिखावा लेकिन सुख, आनंद और संतुष्टि अपरम्पार
!
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद