न किस्से ये होते न अफ़साने होते
जहां में जो हमसे मुसव्विर न होते
न खिलती ये कलियाँ न उड़ते परिंदे
जो गुलशन में तुमसे मुतासिर न होते !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
न किस्से ये होते न अफ़साने होते
जहां में जो हमसे मुसव्विर न होते
न खिलती ये कलियाँ न उड़ते परिंदे
जो गुलशन में तुमसे मुतासिर न होते !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
क्षुब्ध हूँ
मैं
जाने क्यों
विक्षुब्ध हूँ, विचलित हूँ,
व्याकुल हूँ, व्यथित हूँ !
आज सुबह की
सूर्य वन्दना के बाद भी
मन में पुलक नहीं, उत्साह नहीं,
उमंग नहीं, उल्लास नहीं !
अल्लसुबह
दूर क्षितिज पर छाई लालिमा में
बालारुण की अरुणाई और
भोर के सुनहरे उजास के स्थान पर
युद्ध में हताहत
असंख्यों निर्दोष मासूम बच्चों
स्त्रियों और शूरवीर योद्धाओं के
रक्त की लालिमा दिखाई दे रही है
जो मन में अवसाद,
तन में सिहरन और
नैनों में कभी न सूखने वाली
नमी भर जाती है
मेरी सुबह को हर सुख,
हर आस से नि:शेष कर
बिलकुल रीता कर जाती है !
चित्र - गूगल से साभार !
साधना वैद
बनाई सुन्दर सी
रंगोली
सजा दिए तोरण
तुम्हारे लिए
बिखेरी पाँखुरी
पथ पर
चुन कर शूल
तुम्हारे लिए
रात भर जागे आतुर
द्वार खोलने को
तुम्हारे लिए
कितने गीत लिख
डाले
मैंने डायरी में
तुम्हारे लिए
कितने व्यंजन
बना डाले
खट्टे मीठे नमकीन
तुम्हारे लिए
कितने गीत गा
चुकी
प्रतीक्षा करते हुए
तुम्हारे लिए
सब व्यर्थ हुए
उपक्रम
किये जो हमने
तुम्हारे लिए
तुम नहीं आये तो
किया द्वार बंद
तुम्हारे लिए !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
देर रात घर की कुंडी खड़की तो धड़कते कलेजे को
दोनों हाथों से थाम सलमा बी ने धीरे से खिड़की का पर्दा सरका कर कनखियों से बाहर
देखा ! शकील को बाहर खड़ा देख उनकी जान में जान आई ! दरवाज़ा खोल झट से उसे अन्दर कर
सलमा बी ने फिर से दरवाज़े की कुंडी चढ़ा दी !
शकील ने अपनी जेब से कुछ रुपये और हाथ में पकड़ा
हुआ नाज का थैला अम्मी को थमाते हुए कहा, “किफायत से खर्च
करना अम्मी ! अब जाने कब खरीदने की जुगत लगे ! मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा
हूँ अम्मी फिकर मत करना ! हालात ठीक होते ही मैं घर वापिस आ जाउँगा !”
सलमा बी परेशान हो उठीं ! वो शकील के सामने तन
कर खड़ी हो गईं और भेदने वाली नज़रों से शकील
को घूरते हुए पूछा !
“सच बता शकील कहाँ जा रहा है तू और क्यों जा
रहा है ? तुझे मुँह छिपाने की ज़रुरत क्यों पड़ रही है ? तेरे अब्बू ने
मरते दम तक हमेशा मेहनत की और ईमानदारी से यह घर चलाया,
सच -सच बता अभी जो थोड़े बहुत हालात सुधरे
हैं उसमें किसी गुनाह के रास्ते आई हुई
कमाई का शुमार तो नहीं है ना ?
शकील सकते में था, “अम्मी, मुझसे कुछ मत पूछो
इस समय ! बस इतना ही कह सकता हूँ कि पेट की आग
को बुझाने के लिए रुपयों की ज़रुरत होती है ! फिर वो कहीं से भी मिलें ! मुझे जहाँ
से मिले बिना कोई सवाल पूछे मैंने ले लिए ! ”
अगर ऐसा है तो यह हराम की कमाई मुझे कबूल नहीं
!” सलमा बी की आवाज़ काँप रही थी और आँखों
से शोले बरस रहे थे !
शकील सलमा बी से नज़र मिलाए बिना तेज़ी से बाहर
निकल गया !
साधना वैद
बैसरन घाटी पहलगाम
आज का मुद्दा
बहुत ही संवेदनशील भी है और बहुत ही जटिल भी ! यह समस्या हमारे देश के एक ऐसे
प्रदेश से जुड़ी हुई है जहाँ की आबादी मुस्लिम बहुल है ! देश का विभाजन जब हुआ था
तो धर्म के आधार पर ही हुआ था ! भारत में रहने वाले लाखों मुसलमानों को मन में
गहरी टीस लेकर अपना देश, शहर, मोहल्ला, घर छोड़ कर यहाँ से जाना पड़ा था कि यह वतन उनका
नहीं है क्योंकि वे हिन्दू नहीं हैं उनका धर्म इस्लाम है ! कड़वाहट और नफ़रत के बीज
उसी समय बो दिए गए थे ! फिर अब उन बीजों से नफ़रत और आतंक के ये कड़वे फल वाले जंगल
उग रहे हैं तो हैरानी कैसी ! पहले भी शायद छुटपुट ऐसी घटनाएं होती हों लेकिन धर्म के
नाम पर नफ़रत का ऐसा सैलाब नहीं उमड़ता था ! अब आतंकी सरगनाओं के मदरसों में इसी
आतंक की शिक्षा दी जाती है और उनके मन में कूट-कूट कर यह बात भरी गयी है कि हिन्दू
लोग बहुत अन्यायी हैं और उन्हें मारना सबसे बड़े सवाब का काम है ! इसी में विशेष
योग्यता प्राप्त प्रशिक्षित नौजवान पहलगाम जैसी घटनाओं को अंजाम देने के लिए बिना
कुछ सोचे समझे हथियार उठा कर सामने आ जाते हैं ! इन्होंने यह साबित कर दिया है कि
आतंक का कोई धर्म हो या न हो धर्म के नाम पर आतंक ज़रूर फैलाया जा सकता है !
भारतवर्ष में मुस्लिमों का आगमन लूटपाट और अपने साम्राज्य के विस्तार के इरादे से
हुआ था ! वे यहाँ किसी भाईचारे के इरादे से नहीं आए थे न ही यहाँ की संस्कृति, सभ्यता या जीवन शैली से प्रभावित होकर आये थे ! हिन्दू
धर्म और देवी देवताओं से उन्हें सख्त नफ़रत ही थी इसीलिए उनके आक्रमणों का सर्वप्रथम
उद्देश्य मंदिरों का विध्वंस और वहाँ संचित खजानों को लूटना हुआ करता था ! वैसे भी
वे मूर्तिपूजा के खिलाफ थे और हिन्दुओं को काफिर कहते थे ! हिन्दुओं का धर्म
परिवर्तन करा उन्हें इस्लाम धर्म क़ुबूल करने के लिए बाध्य करना और उनकी स्त्रियों
पर कुदृष्टि रखना उनका प्रिय शगल था ! इसीलिये तत्कालीन भारत में हिन्दू रानियों
द्वारा युद्ध में पराजय के बाद जौहर करने की प्रथा प्रचलित थी ताकि मुस्लिम आतताई उनकी
मृत्यु के बाद उनकी मृत देह के साथ भी दुर्व्यवहार न कर सकें ! हिन्दू मुस्लिमों
में भाईचारे और आत्मीयतापूर्ण बंधुत्व की भावना कभी पनप ही नहीं सकी ! अपवादों की
बात मैं नहीं कह रही ! ये हर युग में होते हैं ! अतीत में भी थे, आज भी हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे ! लेकिन आम जन के
मन में सद्भावना वाली कोई बात नहीं है ! कहीं यह खामोशी अवसरवादिता की वजह से है, कहीं कूटनीति की वजह से और कहीं तूफ़ान से पूर्व किसी भीषण घटना
को अंजाम देने के लिए ज़मीन तैयार करने की वजह से है !
हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर का सामना महाराणा प्रताप से हुआ था ! उस समय अकबर की
सेना के सेनापति मानसिह प्रथम थे ! दोनों ओर की सेनाओं में प्रचुर संख्या में
राजपूत सैनिक थे जो अपने-अपने आकाओं की वजह से अपने भाई बंधुओं को मारने के लिए
विवश थे ! अकबर की फ़ौज के एक मुस्लिम फौजदार ने अपने साथी से पूछा, “सारे राजपूत
सैनिक एक तरह की पगड़ी पहने हैं कैसे जानें कि हमारी फ़ौज का सैनिक कौन है और दुश्मन
की फ़ौज का कौन ?”
जानते हैं उसे क्या जवाब मिला ! उसके मुस्लिम साथी ने यही कहा, “तुम तो हर पगड़ी
वाले को मारो ! चाहे हमारी सेना को हो या राणा की सेना का ! मरेगा तो काफिर ही !
जन्नत में बहुत सवाब मिलेगा हमें !” अब बताइये आतंक का धर्म होता है या नहीं ?
कश्मीर की आम रैयत मुस्लिम है ! ये बहुत भले, सीधे सादे,
ज़रूरतमंद लोग हैं ! हर धर्म में होते हैं ! सियासत, खुराफात, शरारत, और अवसरवादिता के गुण पेट
भरे होने के बाद ही विकसित होते हैं ! इसलिए ये भरे पेट वाले धनिकों के शगल हैं ! गरीब
का धर्म तो सिर्फ अपना और अपने परिवार का पेट पालना ही होता है ! जिसको जिस स्रोत
से धन मिल जाए ! जिनका पेट इमानदारी, मेहनत, और शराफत से रोज़ी रोटी चला कर भर जाता है वे पहलगाम की
घटना के विरोध में सड़क पर प्रदर्शन करने जुलूस निकालने आ जाते हैं ! अपराध का
रास्ता अपनाना इतना भी आसान नहीं होता और न हर कोई आतंकवादी बनना ही चाहता है ! लेकिन
जिनका पेट आतंकवादियों से मिली धन की थैलियों से भरता है वे उनके हाथों बिक जाते
हैं और ऐसी खौफनाक घटनाओं को अंजाम देने में उनकी मदद करने लगते हैं ! कभी उनकी
बंदूकों के खौफ से और कभी बिना मेहनत किये हाथ आई दौलत के लालच में ! सच तो यह है भूख
का कोई धर्म नहीं होता !
साधना वैद
नव कुसुमित पुष्पों से वन में
करते हैं तरुवर श्रृंगार
मधु पीने को व्याकुल भँवरे
करते हैं मधुरिम गुंजार
पवन मंजरी की खुशबू ले
उड़ी क्षितिज की सीमा तक
पल भर में हो गए सुवासित
धरती अम्बर और संसार !
हमारी न्याय व्यवस्था का पहला उद्देश्य है कि
चाहे कोई गुनहगार भले ही छूट जाए लेकिन
किसी बेगुनाह को दण्ड नहीं मिलना चाहिए ।
निश्चित ही यह करुणा और मानवता से परिपूर्ण एक बहुत ही पावन भावना है । लेकिन क्या
वास्तव में ऐसा हो पाता है ?
यह जो एक कहावत है Justice delayed is justice denied. अगर यह सत्य है तो हमारे यहाँ तो शायद न्याय कभी
हो ही नहीं पाता । एक तो मुकदमे ही अदालतों में सालों चलते हैं दूसरे जब तक फैसले
की घड़ी आती है तब तक कई गवाह, यहाँ तक कि चश्मदीद गवाह तक अपने बयानों से इस
तरह पलट जाते हैं कि वास्तविक अपराधी सज़ा से या तो साफ-साफ बच
जाता है या बहुत ही मामूली सी सज़ा पाकर सामने वाले का मुहँ चिढ़ाता सा लगता है । मथुरा की विद्या देवी को 29
वर्ष चलने वाले हिम्मत को तोड़ देने वाले संघर्ष के बाद भी क्या न्याय मिल पाया ?
फिर ऐसे जुमलों का क्या फ़ायदा ! इसके अलावा हमारी व्यवस्था में इतना भ्रष्टाचार व्याप्त
है कि रिश्वत देकर किसीका भी म्रत्यु प्रमाणपत्र चुटकियों में बनवाया जा सकता है !
स्वयं अटल बिहारी बाजपेई जी जैसे बड़े नेता का उनके जीते जी फर्जी प्रमाणपत्र बनवा
कर सार्वजनिक कर दिया गया तो आम आदमी की तो हैसियत ही क्या है ! चुटकियों में
बनवाए गए ऐसे फर्जी दस्तावेजों को अदालतों में ग़लत ठहराने के लिए सालों की लड़ाई
लड़नी पड़ती है वह भी अपने स्वास्थ्य और संसाधनों की कीमत पर ! ऐसे में क्या हम सीना ठोक कर यह कह सकते हैं कि
फैसला सच में न्यायपूर्ण हुआ है । इसी वजह से समाज
में न्याय प्रणाली के प्रति असंतोष और आक्रोश की भावना जन्म लेती है । लोगों में
निराशा और अवसाद घर कर जाता है और वक़्त आने पर ऐसे चोट खाए हुए लोग
खुद अपने हाथों में कानून लेने से पीछे नहीं हटते । आए दिन समाचार पत्र दिल दहला देने वाली लोमहर्षक घटनाओं के समाचारों से
भरे होते हैं । पाठकों के दिल दिमाग़ पर उनका गहरा असर होता है । लोग प्रतिदिन
कौतुहल और उत्सुकता से उनकी जाँच की प्रगति जानने के लिये अख़बारों और टी. वी. के
समाचार चैनलों से चिपके रहते हैं लेकिन पुलिस और अन्य जाँच एजेंसियों की जाँच
प्रक्रिया इतनी धीमी और दोषपूर्ण होती है कि लम्बा वक़्त गुज़र जाने पर भी उसमें कोई
प्रगति नज़र नहीं आती । धीरे धीरे लोगों के दिमाग से उसका प्रभाव घटने लगता है । तब
तक कोई नई घटना घट जाती है और लोगों का ध्यान उस तरफ भटक
जाता है । फिर जैसे तैसे मुकदमा अदालत में पहुँच भी जाए तो
फैसला आने में इतना समय लग जाता है कि लोगों के दिमाग से उसका असर पूरी तरह से
समाप्त हो जाता है और अपराधियों का हौसला बढ जाता है । आम आदमी समाज में भयमुक्त
हो या न हो लेकिन यह तो निश्चित है कि अपराधी पूर्णत: भयमुक्त हैं और आए दिन अपने क्रूर और खतरनाक इरादों को अंजाम देते रहते हैं ।
य़दि हमारी
न्याय प्रणाली त्वरित और सख्त हो तो समाज में इसका अच्छा संदेश जाएगा और अपराधियों
के हौसलों पर लगाम लगेगी । गिरगिट की तरह बयान बदलने वाले गवाहों पर भी अंकुश
लगेगा और अपराधियों को सबूत और साक्ष्यों को मिटाने और गवाहों को खरीद कर, उन्हें लालच देकर मुकदमे का स्वरूप बदलने का वक़्त भी नहीं
मिलेगा । कहते हैं जब लोहा गर्म हो तब ही हथौड़ा मारना चाहिए । समाज में अनुशासन और
मूल्यों की स्थापना के लिये कुछ तो कड़े कदम उठाने ही होंगे । त्वरित और कठोर दण्ड
के प्रावधान से अपराधियों की पैदावार पर अंकुश लगेगा और शौकिया अपराध करने वालों
की हिम्मत टूट जाएगी ।
इसके लिये
आवश्यक है कि न्यायालयों में सालों से चल रहे चोरी या इसी तरह के छोटे मोटे
अपराधों वाले विचाराधीन मुकदमों को या तो बन्द कर दिया जाए या जल्दी से जल्दी
निपटाया जाए । ऐसे मुकदमों के निपटान के लिये समय सीमा निर्धारित कर दी जाए और
भविष्य में और तारीखें ना दी जाएँ । न्यायाधीशों की वेतनवृद्धि और पदोन्नति उनके
द्वारा निपटाए गए मुकदमों के आधार पर तय की जाए । अनावश्यक और अनुपयोगी कानूनों को
निरस्त किया जाए ताकि अदालतों में मुकदमों की संख्या को नियंत्रित किया जा सके और
उनके कारण व्यवस्था में व्याप्त पुलिस और वकीलों के मकड़्जाल से आम आदमी को निजात
मिल सके । न्यायालयों की संख्या बढ़ायी जाए और क्षुद्र प्रकृति के मुकदमों का
निपटान निचली अदालतों में ही हो जाए । अपील का प्रावधान सिर्फ गम्भीर प्रकृति के
मुकदमों के लिए ही हो । सालों से चलते आ रहे मुकदमों के समाप्त होने के बाद बिला
वजह तारीखों पर तारीखें लेकर मुकदमों को घसीटने वाले वकीलों को भी दण्डित किया
जाना चाहिए ताकि इस उत्पीड़नकारी प्रवृत्ति पर रोक लग सके !
इसी तरह से कुछ
ठोस कदम यदि उठाये जाएँगे तो निश्चित रूप से समाज में बदलाव की भीनी-भीनी बयार
बहने लगेगी और आम आदमी चैन की साँस ले सकेगा।
साधना वैद