Followers

Thursday, July 22, 2010

अब तो जागो

कब तक तुम
अपने अस्तित्व को
पिता या भाई
पति या पुत्र
के साँचे में ढालने के लिये
काटती छाँटती
और तराशती रहोगी ?
तुम मोम की गुड़िया तो नहीं !

कब तक तुम
तुम्हारे अपने लिये
औरों के द्वारा लिये गए
फैसलों में
अपने मन की अनुगूँज को
सुनने की नाकाम कोशिश
करती रहोगी ?
तुम गूंगी तो नहीं !

कब तक तुम
औरों की आँखों में
अपने अधूरे सपनों की
परछाइयों को
साकार होता देखने की
असफल और व्यर्थ सी
कोशिश करती रहोगी ?
नींदों पर तुम्हारा भी हक है !

कब तक तुम
औरों के जीवन की
कड़वाहट को कम
करने के लिये
स्वयम् को पानी में घोल
शरबत की तरह
प्रस्तुत करती रहोगी ?
क्या तुम्हारे मन की
सारी कड़वाहट धुल चुकी है ?
तुम कोई शिव तो नहीं !

कब तक तुम
औरों के लिये
अपना खुद का वजूद मिटा
स्वयं को उत्सर्जित करती रहोगी ?

क्यों ऐसा है कि
तुम्हारी कोई आवाज़ नहीं?
तुम्हारी कोई राय नहीं ?
तुम्हारा कोई निर्णय नहीं ?
तुम्हारा कोई सम्मान नहीं ?
तुम्हारा कोई अधिकार नहीं ?
तुम्हारा कोई हमदर्द नहीं ?
तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं ?

अब तो जागो
तुम कोई बेजान गुडिया नहीं
जीती जागती हाड़ माँस की
ईश्वर की बनायी हुई
तुम भी एक रचना हो
इस जीवन को जीने का
तुम्हें भी पूरा हक है !
उसे ढोने की जगह
सच्चे अर्थों में जियो !
अब तो जागो
नयी सुबह तुम्हें अपने
आगोश में समेटने के लिये
बाँहे फैलाए खड़ी है !
दैहिक आँखों के साथ-साथ
अपने मन की आँखें भी खोलो !
तुम्हें दिखाई देगा कि
जीवन कितना सुन्दर है !


साधना वैद

Monday, July 19, 2010

क्या करूँ

क्या करूँ
मेरी कल्पना की उड़ान तो
मुक्त आकाश में
बहुत ऊँचाई तक उड़ना चाहती है
लेकिन मेरे पंखों में इतनी ताकत ही नहीं है
और मैं सिर्फ पंख
फड़फड़ा कर ही रह जाती हूँ !

क्या करूँ
मेरे ह्रदय में सम्वेदनाओं का ज्वार तो
बड़े ही प्रबल आवेग से उमड़ता है
लेकिन कागज़ पर लिखते वक्त
शब्दों का टोटा पड़ जाता है
और मेरी कविता
अधूरी ही रह जाती है !

क्या करूँ
मेरे संगीत के मनाकाश में
स्वरों का विस्तार तो
बहुत व्यापक होता है
लेकिन मेरे कण्ठ के स्वर तंत्र
इतना थक चुके हैं
कि मेरे गीत अनगाये, अनसुने
ही रह जाते हैं !

क्या करूँ
मेरे मन में पीड़ा तो
बहुत गहरी जड़ें जमाये बैठी है
लेकिन नयनों के बराज पर
पलकों के द्वार
सदा बंद ही रहते हैं
और मेरे आँसुओं का सैलाब
आँखों ही आँखों में कैद रह जाता है !

क्या करूँ
मेरे ह्रदय में भावनाओं का उद्वेग
तो बहुत तीव्र है
लेकिन अभिव्यक्ति के समय
अधर सिर्फ काँप कर ही रह जाते हैं
और मेरा प्यार
चट्टानों के नीचे बहते पानी की तरह
अनदेखा, अनछुआ खामोश ही
बह जाता है
और मैं पानी के
इतने करीब होते हुए भी
बिलकुल प्यासी, अतृप्त
और अधूरी सी खड़ी रह जाती हूँ !

साधना वैद

Thursday, July 15, 2010

मैं एकाकी कहाँ !

मैं एकाकी कहाँ !
जब भी मेरा मन उदास होता है
अपने कमरे की
प्लास्टर उखड़ी दीवारों पर बनी
मेरे संगी साथियों की
अनगिनत काल्पनिक आकृतियाँ
मुझे हाथ पकड़ अपने साथ खीच ले जाती हैं,
मेरे साथ ढेर सारी मीठी-मीठी बातें करती हैं,
और उनके संग बोल बतिया कर
मेरी सारी उदासी तिरोहित हो जाती है !
फिर मैं एकाकी कहाँ !

जब भी मेरा मन उत्फुल्ल हो
सजने सँवरने को लालायित होता है
शीतल हवा के नर्म, मुलायम,
रेशमी दुपट्टे को लपेट ,
उपवन के सुगन्धित फूलों का इत्र लगा
मैं अपनी कल्पना के संसार में
विचरण करने के लिये निकल पड़ती हूँ,
जहाँ कोई अकुलाहट नहीं,
कोई पीड़ा नहीं,
कोई छटपटाहट नहीं
बस केवल आनंद ही आनंद है !
फिर मैं एकाकी कहाँ !

जब भी कभी सावन की घटाएं
मेरे ह्रदय के तारों को झंकृत कर जाती हैं,
टीन की छत पर सम लय में गिरती
घनघोर वृष्टि की थाप पर
मेरा मन मयूर थिरक उठता है,
खिड़की के शीशे पर गिरती
बारिश की बूँदों की संगीतमय ध्वनि
मेरे मन को आल्हादित कर जाती है
और उस अलौकिक संगीत से
मेरे अंतर को
निनादित कर जाती है !
फ़िर मैं एकाकी कहाँ !

जब भी कभी मेरा मन
किसी उत्सव समारोह में सम्मिलित होने को
उतावला हो जाता है
मैं अपने ह्रदय यान पर सवार हो
सुदूर आकाश में पहुँच जाती हूँ
जहाँ सितारों की रोशनी से
सारा उत्सव स्थल जगमगाता सा प्रतीत होता है,
जहाँ घटाओं की मृदंग
और बिजली की धार पर
दिव्य अप्सराओं का नृत्य हो रहा होता है
और समस्त गृह नक्षत्र झूम-झूम कर
करतल ध्वनि से उनका
उत्साहवर्धन करते मिल जाते हैं !
फिर इन सबके सान्निध्य में
मैं एकाकी कहाँ !


साधना वैद

Sunday, July 11, 2010

वो आँखें

नहीं भूलतीं वो आँखें !

मुझे छेडतीं, मुझे लुभातीं,
सखियों संग उपहास उड़ातीं,
नटखट, भोली, कमसिन आँखें !

हर पल मेरा पीछा करतीं,
नैनों में ही बाँधे रहतीं,
चंचल, चपल, विहँसती आँखें !

मुझे ढूँढतीं, मुझे निरखतीं,
मुझे देख कर खिल-खिल उठतीं,
इंतज़ार में व्याकुल आँखें !

मुझ पर फिर अनुराग जतातीं,
कभी रूठतीं, कभी मनातीं,
स्नेह भार से बोझिल आँखें !

प्रथम प्रणय के प्रथम निवेदन
पर लज्जा से सिहर-सिहर कर
सकुचाती, शर्माती आँखें !

कभी बरजतीं, कभी टोकतीं,
कभी मानतीं, कभी रोकतीं,
मर्यादा में सिमटी आँखें !

विरह व्यथा से अकुला जातीं,
बात-बात में कुम्हला जातीं,
नैनन नीर बहाती आँखें !

पर पीड़ा से भर-भर आतीं,
चितवन से ही सहला जातीं,
करुणा कलश लुटाती आँखें !

जिनके भावों में भाषा है,
जिनकी भाषा में कविता है,
मौन, मुखर, मतवाली आँखें !

जिनमें रह कर जीना सीखा,
जिनमें बह कर तरना सीखा,
अंतर पावन करती आँखें !


साधना वैद

Thursday, July 8, 2010

दिल दरिया

लम्हा-लम्हा ज़िंदगी,
तिनका-तिनका नशेमन,
कतरा-कतरा हर खुशी,
रेशा-रेशा पैरहन !

जो कुछ है बस
ये ही मेरी पूँजी है,
दो सुर की सरगम से
दुनिया गूँजी है !

यह मेरे सारे
जीवन की बाज़ी है,
इस दौलत पर
दिल भी मेरा राजी है !

अगर तुम्हारे मन को
कुछ भी भाता है,
मुझे किफायत से भी
रहना आता है !

नहीं हटूँगी पीछे
आज कसम ले लो,
चाहो तो इसमें से
आधा तुम ले लो !

साधना वैद

Sunday, July 4, 2010

छोटी सी आशा

मुट्ठी भर आसमान
टुकड़ा भर धूप
दामन भर खुशियाँ
दर्पण भर रूप
इतना ही बस मैंने तुमसे माँगा है !

नींद भर सपने
कंठ भर गीत
बूँद भर सावन
नयन भर प्रीत
इससे ज्यादह कब कुछ मैंने माँगा है !

आँचल भर आँसू
ह्रदय भर पीर
शब्द भर कविता
पर्वत भर धीर
यह भी तो मैंने ही तुमसे माँगा है

यह भी क्या तुम
मुझे नहीं दे पाओगे ?
छोटी सी आशा भी
ना सह पाओगे ?
तुम कैसे 'भगवान'
मुझे शक होता है
जागे सबके भाग
मेरा क्यों सोता है !

साधना वैद

Thursday, July 1, 2010

शुभकामना

मैंने तुम्हारे लिए
एक खिड़की खोल दी है
ताकि तुम
स्वच्छंद हवा में,
अनंत आकाश में,
अपने नयनों में भरपूर उजाला भर कर ,
अपने पंखों को नयी ऊर्जा से सक्षम बना कर
क्षितिज के उस पार
इतनी ऊँची उड़ान भर सको
कि सारा विश्व तुम्हें देखता ही रह जाए !

मैंने तुम्हारे लिए
बर्फ की एक नन्हीं सी शिला पिघला दी है
ताकि तुम पहाड़ी ढलानों पर
अपना मार्ग स्वयम् बनाती हुई
पहले दरिया तक पहुँच जाओ
तदुपरांत उसके अनंत प्रवाह में मिल
सागर की अथाह गहराइयों में
अपने स्वत्व को समाहित कर
उससे एकाकार हो जाओ
और उसके उस अबूझे रहस्य का हिस्सा बन जाओ
जिसे सुलझाने में
सारा संसार सदियों से लगा हुआ है !

मैंने तुम्हारे लिए
तुम्हारे घर आँगन की क्यारी में
सौरभयुक्त सुमनों के कुछ बीज बो दिये हैं
ताकि तुम उनमें नियम से खाद पानी डाल
उन्हें सींचती रहो
और समय पाकर तुम्हारे उपवन में उगे
सुन्दर, सुकुमार, सुगन्धित सुमनों के सौरभ से
सारा वातावरण गमक उठे
और उस दिव्य सौरभ की सुगंध से
तुम अपने काव्य को भी महका सको
जिसे पढ़ कर सदियों तक लोग
मंत्रमुग्ध एवं मोहाविष्ट हो बैठे रह जाएँ !

मैंने तुम्हारे लिए
मन की वीणा के तारों को
एक बार फिर झंकृत कर दिया है
ताकि तुम उस वीणा के उर में बसे
अमर संगीत को
अपनी सुर साधना से जागृत कर सको
और दिग्दिगंत में ऐसी मधुर स्वर लहरी को
विस्तीर्ण कर सको
कि सारी सृष्टि उसके सम्मोहन में डूब जाए
और तुम उस दिव्य संगीत के सहारे
सातों सागर और सातों आसमानों को पार कर
सम्पूर्ण बृह्मांड पर अपने हस्ताक्षर चस्पाँ कर सको !
तथास्तु !


साधना वैद