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Monday, May 30, 2011

भ्रष्टाचार की गंगोत्री




अपने बचपन की याद है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर जब देश भर में जश्न मनाया जाता था और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का भाषण रेडियो पर प्रसारित होता था या पिक्चर हॉल में न्यूज़ रील में दिखाया जाता था तो मन गर्व से भर उठता था ! हृदय में अगाध श्रृद्धा की तरंगें उठने लगती थीं और इस बात का अहसास मन को हमेशा चेताता रहता था कि कितनी मंहगी कीमत चुका कर यह आज़ादी हमें मिली है ! आज जिस आज़ाद हवा में हम साँस ले रहे हैं उसके लिये कितने वीरों ने अपनी जान की बाज़ी लगाई है और कितने उदारमना नेताओं और महापुरुषों ने अपने सभी सुखों को देश हित के लिये न्यौछावर कर वर्षों जेल की सलाखों के पीछे यातना भरे दिन बिताये हैं ! दिल में यह भावना रहती थी कि गाँधी, नेहरू, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, सुभाषचंद्र बोस, मदनमोहन मालवीय, वल्लभ भाई पटेल, वीर सावरकर, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, दादा भाई नोरोजी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अनेकों अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के प्रशस्त किये मार्ग पर अग्रसर होते हुए देश को विकास और सफलता के शिखर पर पहुँचाना है और सम्पूर्ण विश्व में इसके गौरव को स्थापित करना है !

लेकिन आज़ाद भारत की यह मनमोहक तस्वीर बहुत दिनों तक अपने आकर्षण को बनाये नहीं रख सकी ! अंदर ही अंदर भ्रष्टाचार की दीमक इसको चाट कर खोखला करने की तैयारी में जुट चुकी थी ! कहते हैं कि सत्ता यदि पूर्ण बहुमत के साथ मिले तो अधिकार के साथ भ्रष्टाचार को पनपने के लिये भी भरपूर खाद पानी मिल जाता है ! लोकतंत्र के लिये यह अच्छा शगुन नहीं है ! स्वतन्त्रता के बाद दिसंबर 1947 में महात्मा गाँधी ने भी यह भाँप लिया था कि राजनेता पैसा कमाने के लिये अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त हो रहे हैं ! उन्होंने आंध्र प्रदेश के अपने एक वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी मित्र श्री वैन्कटपैया के एक उल्लेखनीय पत्र के बाद, जिसमें उन्होंने गाँधीजी को लिखा था कि कॉंग्रेस पार्टी का नैतिक पतन हो रहा है ! उसके नेता अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर पैसा कमाने में लगे हैं और लोगों में यह धारणा पनपने लगी है कि इससे तो ब्रिटिश रूल ही अच्छा था, गांधीजी ने यह सुझाव दिया था कि कॉंग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिये पर उनकी यह बात मानी नहीं गयी ! भ्रष्टाचार की आमद की यह पहली दस्तक थी !

भारतीय राजनीति के हिमालय से भ्रष्टाचार की गंगोत्री का उदगम वी के कृष्णामेनन के जीप काण्ड से माना जा सकता है ( 1948 ) ! इसके बाद इस गंगोत्री का आकार कुछ बढ़ा और हरिदास मूंदडा काण्ड प्रकाश में आया जिसकी पोल श्री फिरोज गाँधी ने 1958 में संसद में खोली थी ! के. डी. मालवीय एवं सिराजुद्दीन का ऑइल स्कैम तथा धरम तेजा काण्ड भी नेहरू जी के कार्यकाल में ही हुए थे ! उन दिनों देश भावनात्मक रूप से इन नेताओं पर इतना निर्भर था कि ऐसी कोई भी बात आसानी से उसके विश्वास को डिगा नहीं सकती थी और आज की तरह उस समय मीडिया भी इतना सक्रिय नहीं था ! इसलिए इन घोटालों की चर्चा बहुत अधिक नहीं हुई और बातें वहीं दब गयीं !

समय के साथ भ्रष्टाचार की इस गंगोत्री में कई धाराएं और उपधाराएं मिलती चली गयीं और इसके रूप रंग आकार को और अधिक विस्तार और गहराई प्रदान करती गयीं ! 1971 के नागरवाला काण्ड और मारुती उद्योग की धाँधलियों को बांग्लादेश की विजय के सामने अनदेखा कर दिया गया ! 1981 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ए. आर. अंतुले के सीमेंट स्कैम जैसे अनेक घोटाले सामने आने लगे परन्तु 1987 में राजीव गाँधी के कार्यकाल में जब बोफोर्स तोप घोटाला प्रकाश में आया तो जनता का मोहभंग होना शुरू हुआ ! इसके बाद तो घोटालों का लंबा सिलसिला आरम्भ हो गया ! गंगोत्री अब पहाड़ों से उतर कर मैदानों में आ गयी थी और वृहद स्वरुप धारण कर चुकी थी ! यूरिया काण्ड (1990), हर्षद मेहता केतन पारेख काण्ड (1992), हवाला काण्ड (1993), सुखराम का टेलीकॉम घोटाला (1996), बिहार का चारा घोटाला (1996), जे. एम.एम. का रिश्वत काण्ड (1996) सबने राजनीति में भ्रष्टाचार की गहराई और विस्तार को इस तरह से उजागर किया कि आम जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस करने लगी ! तमाम बड़े बड़े नेताओं और उच्च पादासीन अधिकारियों के घरों से, यहाँ तक कि उनके बिस्तर के गद्दों तक से काला धन बरामद होने लगा ! जनता को समझ आने लगी कि उसका मेहनत से कमाया हुआ धन ये चंद भ्रष्ट और पतित नेता हड़प किये जा रहे हैं और जनता को नित नये करों के बोझ से लादते जा रहे हैं ! मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है ! संसद तथा टीवी चैनलों के टॉक शोज़ में निरंतर चलने वाली अंतहीन, अर्थहीन, और निरुद्देश्य बहसें जनता को कोई दिलासा या दिशा नहीं दे रही हैं !

मीडिया फिर भी सक्रियता के साथ अपनी भूमिका निभाता रहा है ! आरम्भ में नेताओं की ये खबरें प्राय: दबा दी जाती थीं ! अशिक्षा के कारण अखबारों की पहुँच बहुत कम लोगों तक सीमित थी लेकिन टी.वी. के आगमन तथा गाँव देहात तक फ़ैल जाने का एक फ़ायदा यह हुआ कि भष्टाचार की सारी खबरें घर घर पहुँचने लगीं ! नेताओं का कद घटने लगा ! उनके प्रति जनता के मन में मान सम्मान कम होने लगा और आक्रोश की आँच सुलगने लगी !

सत्ता में गहराई तक ऊँची पहुँच, धीमी न्याय प्रक्रिया और प्रशासन की मिलीभगत ने भ्रष्टाचार की जड़े और गहरी कीं और स्वार्थी नेताओं की ढिठाई और हौसले बुलंद होते चले गये ! अधिकार का दुरुपयोग कर कई नेताओं ने अनुचित तरीकों से अपने स्वार्थ साधने की कोशिश की और कतिपय बड़े लोगों को लाभ दिला कर अपना बैक बलैंस खूब मज़बूत किया ! प्रमोद महाजन का टेलीकॉम घोटाला (२००२) इसी श्रेणी में आता है ! भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री अब आकार प्रकार में सागर का रूप ग्रहण करने लगी ! पहले किये जाने वाले कुछ लाखों करोड़ों के घोटाले अब हज़ारों करोड़ों तक के आँकड़े को छूने लगे ! (२००६) का अब्दुल करीम तेलगी का स्टैम्प घोटाला, (२००९) का मधु कोड़ा काण्ड, (२०१०) का ए. राजा का टू जी स्पेक्ट्रम काण्ड, (२०१०) का कलमाड़ी का राष्ट्र मण्डल खेल घोटाला, (२०१०) का ही सत्यम घोटाला अब महासागर का रूप ले चुके हैं !

दिमाग में सवाल उठता है क्या इस समस्या का कोई निदान है ? आशा करते हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे जुझारू कर्मठ एवं देशभक्त व्यक्तियों का प्रयास अवश्य रंग लायेगा और आज़ादी के बाद से लगातार चलने वाला यह सिलसिला अब ज़रूर टूटेगा ! हम सभी भारतीय उनके साथ हैं और उनके इस अभियान को अशेष शुभकामनायें देते हैं !

साधना वैद

Friday, May 27, 2011

असमंजस

तुम तो मेरे नयनों के हर आँसू में समाये हो

जिन्हें मैं पलकों के कपाटों के पीछे

बड़े जतन से छिपा कर रखती हूँ

कि कहीं तुम उन आँसुओं की धार के साथ

बह कर बाहर ना चले जाओ !

तुम तो मेरे हृदय से निसृत

हर आह में बसते हो जिसे मैं

दांतों तले अपने अधरों को कस कर

दबा कर बाहर निकलने से रोक लेती हूँ

कि कहीं तुम भी उस आह के साथ

हवा में विलीन ना हो जाओ !

तुम तो अंगूठे से लिपटे आँचल की

हर सिलवट में छिपे हो

जिसे मैं कस कर मुठ्ठी में भींच लेती हूँ

कि कही तुम इस नेह्बंध से

मुक्त होकर अन्यत्र ना चले जाओ !

तुम तो मेरी डायरी में लिखी

नज़्म के हर लफ्ज़ में निहित हो

जिसे मैं बार-बार सिर्फ इसीलिये

पढ़ लेती हूँ कि जितनी बार भी

मैं उसे पढूँ

उतनी बार तुम्हें देख सकूँ !

तुम तो मेरे अंतस में

एक दिव्य उजास की तरह विस्तीर्ण हो

मेरे मन को आलोकित करते हो

और उस प्रकाश के दर्पण में ही

मैं अपने अस्तित्व को पहचान पाती हूँ !

लेकिन मैं जहाँ हूँ

वह जगह मुझे साफ़

दिखाई क्यों नहीं देती !

मुझे पहचान में क्यों नहीं आती !

एक गहन वेदना

एक घनीभूत पीड़ा

और एक अंतहीन असमंजस के

दोराहे पर मैं खुद को पाती हूँ

जहाँ से आगे बढ़ने के लिये हर राह

बंद नज़र आती है !

साधना वैद

Monday, May 23, 2011

इंतज़ार


वल्लाह नये दर्द रुलाने के वास्ते,
यादें पुरानी सिर्फ लुभाने के वास्ते.
कुछ तल्खियाँ भी बनके रहीं बोझ हमेशा,
कुछ बात के नश्तर हैं चुभाने के वास्ते.
रहमत से तेरी हम ही हैं महरूम, मगर क्यों ?
दर तो खुला था तेरा ज़माने के वास्ते.
ज़ख्मों की दिल में एक नुमाइश लगी रही,
ऐ मेरे ख़ुदा तुझको दिखाने के वास्ते.
सोचा था तुझ से अब न शिकायत करेंगे हम,
थपकी भी दी थी मन को सुलाने के वास्ते.
तेरा है इंतज़ार मुझे अब भी 'साधना'
हैं अश्क रवां तुझको बुलाने के वास्ते.


साधना वैद

Friday, May 20, 2011

आह्वान

युग बदले, मान्यताएं बदलीं,

मूल्य बदले, परिभाषायें बदलीं,

नियम बदले, आस्थायें बदलीं।

नहीं बदली तो केवल आतंक,

अन्याय और अत्याचार की हवा,

दमन और शोषण की प्रवृत्ति,

लोगों की ग़रीबी और भुखमरी,

बेज़ारी और बदहाली,

रोटी और मकान की समस्या,

इज़्ज़त और आत्म सम्मान के सवाल !

समय ने करवट ली है !

इतिहास के दृश्य पटल पर तस्वीरें बदली हैं !

छ: दशक पहले वाले दृश्य अब बदल गये हैं !

एक लंगोटी धारी, निहत्थे, निशस्त्र,

आत्मजयी नेता के

नेतृत्व के दिन अब लद गये हैं !

वह महान् कृशकाय नेता

जिसने अहिंसा का सूत्र थाम

तोप बन्दूकधारी विदेशी शासकों के हाथों से

देश को स्वतंत्रता की सौगात दिलवाई थी,

अब नही रहा !

अहिंसा और मानवता की बातें

आज के सन्दर्भों में बेमानी हो गयी हैं !

आज अपने ही देश में

अपने ही चुने हुए शासकों के सीनों पर

अपनी माँगों की पूर्ति के लिये

देश की संतानें बन्दूकों की नोक ताने हुए हैं !

आज बन्दूकें शासक के हाथों में नहीं

याचक के हाथों में हैं !

गौतम और महावीर, गाँधी और नेहरू के देश में

हिंसा और अराजकता का ऐसा प्रचण्ड ताण्डव देख

आत्मा कराहती है !

कल्पनाओं के कुसुम मुरझा गये हैं,

आँसुओं के आवेग से दृष्टि धुँधला गयी है,

कण्ठ में शब्द घुट से गये हैं,

लेखनी कुण्ठित हो गयी है,

पक्षाघात के रोगी की तरह बाहें

पंगु हो उठने से लाचार हो गयी हैं !

वरना आज मैं तुमसे यह तो अवश्य पूछती

मेरे बच्चों,

क्या तुमने कभी सोचा है अपनी संतानों के लिये

विरासत में तुम क्या छोड़े जा रहे हो ?

तुम्हारी उंगलियाँ जो बन्दूकों के ट्रिगर दबाने में

इतनी सिद्धहस्त हो चुकी हैं

कभी उनसे उन बेवा माँ बहनों के आँसू भी पोंछे होते

जिनके सुहाग तुमने उजाड़े हैं !

मशीनगन उठाने के अभ्यस्त इन हाथों से

कभी खेतों में हल भी चलाये होते

तो मानव रक्त से सिंचित ये उजड़े बंजर खेत

फसलों का सोना उगलते

और भूख से बिलखते उन तमाम

मासूम बच्चों के पेट भरते

जिनके पिता, भाई, चाचा

तुम्हारी गोलियों का शिकार हो

उन अभागों को उनके हाल पर छोड़

चिरनिद्रा में सो गये हैं।

क़्या तुम्हें नहीं लगता इन अनाथ, बेसहारा,

निराश्रित बच्चों के

अन्धकारमय भविष्य के उत्तरदायी तुम हो ?

कभी सोचा है तुम्हारी अपनी ही संतानें

तुमसे क्रूरता, नृशंसता और हिंसा की यही इबारत सीख

तुम्हारे ही कारनामों से प्रेरित हो

कभी तुम्हारे ही सीनों की ओर

अपनी बन्दूकों का रुख कर देंगी?

तब तुम उन्हें कोई सफाई नहीं दे पाओगे,

चाह कर भी अपने कलुषित अतीत के

धब्बों को नहीं धो पाओगे,

अपने गुनाहों का कोई प्रायश्चित नहीं कर पाओगे

और अपनी उस घुटन, उस तड़प को

बर्दाश्त भी नहीं कर पाओगे !

इसीलिये कहती हूँ मेरे दुलारों,

अपनी इस पवित्र पुण्य मातृभूमि को

इस तरह अपवित्र ना करो !

इसकी माटी को चन्दन की तरह

अपने भाल पर लगा इसका मान बढ़ाओ,

इसे यूँ बेगुनाहों के खून से लथपथ कर

इसका अनादर मत करो !

कैसी विडम्बना है

इस उर्वरा पावन धरा पर

जहाँ सोना उगलते खेत और

महकती केसर की क्यारियाँ होनी चाहिये थीं

आज वहाँ हर तरफ

सफेद कबूतरों की लाशें बिखरी पड़ी हैं !


साधना वैद

Sunday, May 15, 2011

अहसास








मन के सूने गलियारों में किसीकी

जानी पहचानी परछाइयाँ टहलती हैं ,

दिल की सख्त पथरीली ज़मीन पर

दबे पाँव बहुत धीरे-धीरे चलती हैं !

पलकों के बन्द दरवाज़ों के पीछे

किसीके अंदर होने का अहसास मिलता है ,

कनखियों की संधों से अश्कों की झील में

किसीका अक्स बहुत हौले-हौले हिलता है !

हृदय के गहरे गह्वर से कोई पुकार

कंठ तक आकर घुट जाती है ,

कस कर भिंचे होंठों की कंपकंपाहट

बिन बोले ही बहुत कुछ कह जाती है !

किसीका ज़िक्र भर क्यों मन के

शांत सागर में सौ तूफ़ान उठा जाता है ,

मैं चाहूँ या ना चाहूँ क्यों मेरे स्वत्व को

नित नयी कसौटियों पर कस जाता है !



साधना वैद

Thursday, May 12, 2011

राष्ट्र गान--किसकी जय गाथा

आजकल ब्लॉग जगत में एक अभियान छिड़ा हुआ है कि हमारा राष्ट्र गान जन गण मन अधिनायक जय है वास्तव में भारत माता या भारत वर्ष की महिमा को वर्णित नहीं करता अपितु महा कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने यह गीत किंग जॉर्ज पंचम तथा इंग्लैण्ड की क्वीन के सम्मान में रचा था जिसे हम सभी लोग पिछले ६२-६३ सालों से अज्ञानतावश राष्ट्र गान का मान देते हुए गाते आ रहे हैं और अब यह समय आ गया है कि हमें अपनी भूल का सुधार कर लेना चाहिये और जन गण मन को हटा कर वंदे मातरम या सारे जहाँ से अच्छा गीत को राष्ट्र गान के रूप में स्थापित करने के अभियान को पुरजोर समर्थन देना चाहिये !

मुद्दा बड़ा संवेदनशील है और इसके साथ करोड़ों भारतीयों की भावनायें जुडी हुई हैं ! इसलिए यह आवश्यक है कि कोई भी ठोस कदम उठाने से पहले इससे जुड़े सभी पहलुओं पर गंभीरता के साथ विचार कर लिया जाये और सभी तथ्यों की भली प्रकार जाँच पड़ताल कर ली जाये !

आइये सबसे पहले इस गीत के शब्दों को भली प्रकार जाने और समझें ! विकीपीडिया पर इस गीत के पाँचों अंतरों का अंग्रेज़ी अनुवाद जो उपलब्ध है वह इस प्रकार है !

The lyrics of all 5 stanzas of the complete song "Jana Gana Mana"

The English translation below has been adapted from one posted by Sitansu Sekhar Mittra many years ago.[1]


Bengali Transcription

English Translation

Stanza 1:-


Jano Gano Mano Adhinaayako Jayo Hey,Bhaarato Bhaagyo Bidhaataa
Panjaabo Sindhu Gujaraato Maraathaa,Draabiro Utkalo Bango
Bindhyo Himaachalo Jamunaa Gangaa, Uchchhalo Jalodhi Tarango
Tabo Shubho Naamey Jaagey, Tabo Shubho Aashisho Maagey
Gaahey Tabo Jayogaathaa
Jano Gano Mangalo Daayako, Jayo Hey Bhaarato Bhaagyo Bidhaataa
Jayo Hey, Jayo Hey, Jayo Hey,Jayo Jayo Jayo, Jayo Hey

Oh! the ruler of the minds of people, Victory be to You, dispenser of the destiny of India!
Punjab, Sindh, Gujarat, Maharashtra,Dravida(South India), Orissa, and Bengal,
The Vindhya, the Himalayas, the Yamuna, the Ganges,and the oceans with foaming waves all around
Wake up listening to Your auspicious name, Ask for Your auspicious blessings,
And sing to Your glorious victory.
Oh! You who impart well being to the people!
Victory be to You, dispenser of the destiny of India!
Victory to You, victory to You, victory to You, Victory, Victory, Victory, Victory to You!
(refrain repeated five times)

Stanza 2:-


Ohoroho Tobo Aahbaano Prachaarito,Shuni Tabo Udaaro Baani
Hindu Bauddho Shikho Jaino,Parashiko Musholmaano Christaani
Purabo Pashchimo Aashey,Tabo Singhaasano Paashey
Premohaaro Hawye Gaanthaa
Jano Gano Oikyo Bidhaayako Jayo Hey,Bhaarato Bhaagyo Bidhaataa
Jayo Hey, Jayo Hey, Jayo Hey,Jayo Jayo Jayo, Jayo Hey

Your call is announced continuously,we heed Your gracious call
The Hindus, Buddhists, Sikhs, Jains, Parsees, Muslims, and Christians,
The East and the West come,to the side of Your throne
And weave the garland of love.
Oh! You who bring in the unity of the people!
Victory be to You, dispenser of the destiny of India!

Stanza 3:-


Potono Abhbhudoy Bandhuro Ponthaa,Jugo Jugo Dhaabito Jaatri
Hey Chiro Saarothi, Tabo Ratha Chakrey Mukhorito Potho Dino Raatri
Daaruno Biplabo Maajhey,Tabo Shankhodhwoni Bajey
Sankato Dukkho Traataa
Jano Gano Potho Parichaayako,Jayo Hey Bhaarato Bhaagyo Bidhaataa
Jayo Hey, Jayo Hey, Jayo Hey,Jayo Jayo Jayo, Jayo Hey

The way of life is somber as it moves through ups and downs,But we, the pilgrims, have followed it through ages.
Oh! Eternal Charioteer, the wheels of your chariot echo day and night in the path
In the midst of fierce revolution, your conch shell sounds.
You save us from fear and misery
Oh! You who guide the people through tortuous path...
Victory be to You, dispenser of the destiny of India!

Stanza 4:-


Ghoro Timiro Ghono Nibiro,Nishithey Peerito Murchhito Deshey
Jagrato Chhilo Tabo Abicholo Mangalo,Noto Nayoney Animeshey
Duhswapney Aatankey,Rokkhaa Koriley Ankey
Snehamoyi Tumi Maataaa
Jano Gano Duhkho Trayako,Jayo Hey Bhaarato Bhaagyo Bidhaataa
Jayo Hey, Jayo Hey, Jayo Hey,Jayo Jayo Jayo, Jayo Hey

During the bleakest of nights,when the whole country was sick and in swoon
Wakeful remained Your incessant blessings,through Your lowered but winkless eyes
Through nightmares and fears,You protected us on Your lap
Oh Loving Mother
Oh! You who have removed the misery of the people...
Victory be to You, dispenser of the destiny of India!

Stanza 5:-


Raatri Prabhatilo Udilo Rabichhabi, Purbo Udayo Giri Bhaaley
Gaahey Bihangamo Punyo Samirano, Nabo Jibano Rasho Dhaley
Tabo Karunaaruno Ragey,Nidrito Bhaarato Jagey
Tabo Chorone Noto Maatha
Jayo Jayo Jayo Hey, Jayo Rajeshwaro, Bhaarato Bhaagyo Bidhaataa
Jayo Hey, Jayo Hey, Jayo Hey,Jayo Jayo Jayo, Jayo Hey

The night is over, and the Sun has risen over the hills of the eastern horizon.
The birds are singing, and a gentle auspicious breeze is pouring the elixir of new life.
By the halo of Your compassion India that was asleep is now waking
On your feet we lay our heads
Victory, Victory, Victory be to You, the Supreme King, the dispenser of the destiny of India!

इस गीत की रचना दिसंबर १९११ में की गयी थी ! लगभग उसी समय जब किंग जॉर्ज पंचम का राज्याभिषेक हुआ था ! यह गीत सबसे पहली बार उस समय की इन्डियन नॅशनल कोंग्रेस के अधिवेशन के दूसरे दिन २६ दिसंबर को गाया गया था ! संयोग से उस दिन के एजेंडा में भारत आगमन पर जॉर्ज पंचम व क्वीन का स्वागत और सम्मान भी शामिल था ! इसीलिये यह भ्रांति फ़ैल गयी कि कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह गीत जॉर्ज पंचम के सम्मान में लिखा है और कविता में उद्धृत शब्द ‘अधिनायक एवं ‘भाग्यविधाता’ उनके लिये संबोधित हैं ! जबकि वास्विकता यह है कि उनकी शान में एक अन्य गीत ‘बादशाह हमारा’ दूसरे कवि श्री रामभुज चौधरी द्वारा उसी कार्यक्रम में गाया गया था ! ब्रिटिश इन्डियन प्रेस के अखबारों में इस कार्यक्रम की रिपोर्ट कुछ इस तरह छापी गयी !

"The Bengali poet Babu Rabindranath Tagore sang a song composed by him specially to welcome the Emperor." (Statesman, Dec. 28, 1911)
"The proceedings began with the singing by Babu Rabindranath Tagore of a song specially composed by him in honour of the Emperor." (Englishman, Dec. 28, 1911)
"When the proceedings of the Indian National Congress began on Wednesday 27th December 1911, a Bengali song in welcome of the Emperor was sung. A resolution welcoming the Emperor and Empress was also adopted unanimously." (Indian, Dec. 29, 1911)

नॅशनल इन्डियन प्रेस ने इस कार्यक्रम की रिपोर्ट अपने समाचार पत्रों में कुछ इस तरह से छापी !

"The proceedings of the Congress party session started with a prayer in Bengali to praise God (song of benediction). This was followed by a resolution expressing loyalty to King George V. Then another song was sung welcoming King George V." (Amrita Bazar Patrika, Dec.28,1911)
"The annual session of Congress began by singing a song composed by the great Bengali poet Babu Ravindranath Tagore. Then a resolution expressing loyalty to King George V was passed. A song paying a heartfelt homage to King George V was then sung by a group of boys and girls." (The Bengalee, Dec. 28, 1911)

यहाँ तक कि इन्डियन नॅशनल कोंग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की दिसंबर १९११ की रिपोर्ट में इस कार्यक्रम के सन्दर्भ में यह लिखा गया था !

"On the first day of 28th annual session of the Congress, proceedings started after singing Vande Mataram. On the second day the work began after singing a patriotic song by Babu Ravindranath Tagore. Messages from well wishers were then read and a resolution was passed expressing loyalty to King George V. Afterwards the song composed for welcoming King George V and Queen Mary was sung."

परमपिता परमात्मा एवं अपनी मातृभूमि की स्तुति में रचित अपनी इस रचना पर छिड़े विवाद ने कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी बहुत मर्माहत किया था ! १० नवंबर १९३७ को श्री पुलिन बिहारी दास को लिखे एक पत्र में उन्होंने अपनी पीड़ा को इस तरह व्यक्त किया था !

"A certain high official in His Majesty's service, who was also my friend, had requested that I write a song of felicitation towards the Emperor. The request simply amazed me. It caused a great stir in my heart. In response to that great mental turmoil, I pronounced the victory in Jana Gana Mana of that Bhagya Vidhata [ed. God of Destiny] of India who has from age after age held steadfast the reins of India's chariot through rise and fall, through the straight path and the curved. That Lord of Destiny, that Reader of the Collective Mind of India, that Perennial Guide, could never be George V, George VI, or any other George. Even my official friend understood this about the song. After all, even if his admiration for the crown was excessive, he was not lacking in simple common sense."

यह पत्र जो मौलिक रूप से बांग्ला में लिखा गया था श्री प्रभात कुमार मुखर्जी द्वारा रचित रवींद्र नाथ टैगोर की जीवनी ‘रवीन्द्रजीवनी’ के दूसरे वॉल्यूम के पेज ना. ३३९ पर उद्धृत है !

पुन: १९ मार्च १९३९ के अपने एक पत्र में रवीन्द्र बाबू ने लिखा है –

"I should only insult myself if I cared to answer those who consider me capable of such unbounded stupidity as to sing in praise of George the Fourth or George the Fifth as the Eternal Charioteer leading the pilgrims on their journey through countless ages of the timeless history of mankind." (Purvasa, Phalgun, 1354, p738.)

स्वयं रवीन्द्रनाथ टैगोर के पत्रों के इन उद्धरणों के बाद मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि किसी भी तरह के संशय की कोई गुंजाइश अब बाकी रह गयी है ! जलियाँवाला बाग के नर संहार के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सम्मान में मिली अपनी ‘सर’ की उपाधि लौटा दी थी ! अपने देश की महिमा में उन्होंने बेमिसाल गीतों की रचना की है ! उनकी रचनाधर्मिता तथा उनके मंतव्यों को तोड़ मरोड़ के प्रस्तुत करना और भ्रामक प्रचार करना किसी भी तरह से उचित नहीं है ! रवीन्द्रनाथ टैगोर हमारा मान हैं, हमारी शान हैं और भारत के आकाश के दैदीप्यमान ध्रुव तारे के समान हैं इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकतीं ! हम कभी उनके ॠण से उॠण नहीं हो सकेंगे !

जय भारत !

साधना वैद !