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Wednesday, May 27, 2009

तुम आओगे ना !

रात ने अपनी अधमुँदी आँखे खोली हैं
सुबह ने अपने डैने पसार अँगड़ाई ली है ।
नन्हे से सूरज ने प्रकृति माँ के आँचल से मुँह घुमा
संसार को अपनी उजली आँखों से देखा है ।

दूर पर्वत शिखरों पर देवताओं की रसोई में
सुर्ख लाल अँगीठी सुलग चुकी है ।
कल कल बहते झरनों का आल्हादमय संगीत
सबको आनंद और स्फूर्ति से भर गया है ।

सुदूर गगन में पंछियों की टोली पंख पसार
अनजाने अनचीन्हे लक्ष्य की ओर उड़ चली है ।
फूलों ने अपनी पाँखुरियों से ओस के मोती ढुलका
बाल अरुण को अपना मौन अर्घ्य दिया है ।

मेरे मन में भी एक मीठी सी आशा अकुलाई है
मेरे मन में भी उजालों ने धीरे से दस्तक दी है ।
मेरे मन ने भी पंख पसार आसमान में उड़ना चाहा है
मेरे कण्ठ में भी मीठी सी तान ने आकार लिया है ।

मेरी करुणा के स्वर तुम तक पहुँच तो जायेंगे ना !
झर झर बहते अश्रुबिन्दु का अर्घ्य तुम्हें स्वीकृत तो होगा !
मैंने अंतर की ज्वाला पर जो नैवेद्य बनाया है प्रियतम
उसे ग्रहण करने को तो तुम आओगे ना !

साधना वैद

Sunday, May 24, 2009

यह कैसा विकास !

इक्कीसवीं सदी के इस मुकाम पर पहुँच कर हम गर्व से मस्तक ऊँचा कर खुद के पूरी तरह विकसित होने का ढिंढोरा पीटते तो दिखाई देते हैं लेकिन सच में हमें आत्म चिंतन की बहुत ज़रूरत है कि हम वास्तव में विकसित हो चुके हैं या विकसित होने का सिर्फ़ एक मीठा सा भ्रम पाले हुए हैं ।
विकास को सही अर्थों में नापने का क्या पैमाना होना चाहिये ? क्या आधुनिक और कीमती परिधान पहनने से ही कोई विकसित हो जाता है ? क्या परम्परागत जीवन शैली और नैतिकता को अमान्य कर पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने से ही कोई विकसित हो जाता है ? क्या सामाजिक मर्यादा और पारिवारिक मूल्यों की अवमानना कर विद्रोह की दुंदुभी बजाने का साहस दिखाने से ही कोई विकसित हो जाता है ? या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने के दम्भ में अपने से पीछे छूट जाने वालों को हिक़ारत और तिरस्कार की दृष्टि से देखने वालों को विकसित माना जा सकता है ? या फिर अकूत धन दौलत जमा कर बड़े बड़े उद्योग खड़े कर समाज के चन्द चुनिन्दा धनाढ्य लोगों की श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लेने वालों को विकसित माना जा सकता है ? या फिर वे लोग विकसित हैं जिन्होंने विश्व के अनेकों शहरों में आलीशान कोठियाँ और बंगले बनवा रखे हैं और जो समाज के अन्य सामान्य वर्गों के साथ एक मंच पर खड़े होने में भी अपना अपमान समझते हैं ? आखिर हम विकास के किस माप दण्ड को न्यायोचित समझें ? यह तस्वीर भारत के ऐसे बड़े शहरों की है जहाँ समाज के सबसे सभ्य और सम्पन्न समझे जाने वाले लोग रहते हैं । लेकिन ऐसे ही विकसित और सभ्य लोगों के बीच जैसिका लाल हत्याकाण्ड, नैना साहनी हत्याकाण्ड, मधुमिता हत्याकाण्ड, बी. एम. डबल्यू काण्ड, शिवानी हत्याकाण्ड, निठारी काण्ड, आरुषी हत्याकाण्ड ऐसे ही और भी न जाने कितने अनगिनत जघन्य काण्ड कैसे घटित हो जाते हैं ? इन घटनाओं के जन्मदाता तो विकसित भारत का प्रतिनिधित्व करते जान पड़ते हैं । तो क्या ‘विकसित’ और ‘सभ्य’ भारतीयों की मानसिकता इतनी घिनौनी और ओछी है ? उनमें मानवीयता और सम्वेदनशीलता का इतना अभाव है कि इस तरह की लोमहर्षक और रोंगटे खड़े कर देने वाली वारदातें हो जाती हैं और बाकी सारे लोग निस्पृह भाव से मूक दर्शक बने देखते रहते हैं कुछ कर नहीं पाते । क़्या सभ्य होने की हमें यह कीमत चुकानी होगी ? तो क्या भौतिक सम्पन्नता को विकास का पैमाना मान लेना उचित होगा ?
भारत के छोटे शहरों की तस्वीर भी इससे कुछ अलग नहीं है । सभ्य और सुसंस्कृत होने का दम्भ हमारे छोटे शहरों के लोगों को भी कम नहीं है और विकास का झंडा वे भी बड़ी
शान से उठाये फिरते हैं । लेकिन यहाँ अशिक्षा, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह और सड़ी गली रूढ़ियों ने अपनी जड़ें इतनी मजबूती से जमा रखी हैं कि आसानी से उन्हें उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं है । शायद इसीलिये यहाँ 21वीं सदी के इस दौर में भी जात पाँत और छूत अछूत का भेद भाव आज भी मौजूद है । आज भी यहाँ सवर्णो द्वारा किसी दलित युवती को निर्वस्त्र कर गाँव में परेड करायी जाती है तो सारा गाँव दम साधे चुप चाप यह अनर्थ होते देखता रहता है विरोध का एक भी स्वर नहीं फूटता । आज भी यहाँ ठाकुरों की बारात में यदि कोई दलित सहभोज में साथ में बैठ कर खाना खा लेता है तो उसे सरे आम गोली मार दी जाती है । आज भी यहाँ अबोध बालिकायें वहशियों की हवस का शिकार होती रहती हैं और थोड़ी सी जमीन या दौलत के लिये पुत्र पिता का या भाई भाई का खून कर देता है । तो फिर हम कैसे खुद को सभ्य और विकसित मान सकते हैं ? हमें आत्म चिंतन की सच में बहुत ज़रूरत है । विकास भौतिक साधनों को जुटा लेने से नहीं आ जाता । अपने विचारों से हम कितने शुद्ध हैं, अपने आचरण से हम कितने सात्विक हैं, और दूसरों की पीड़ा से हमारा दिल कितना पसीजता है यह विचारणीय होना चाहिये । अपने अंतर में झाँक कर देखने की ज़रूरत है कि निज स्वार्थों को परे सरका कर हम दूसरों के हित के लिये कितने प्रतिबद्ध हैं, कितने समर्पित हैं । सही अर्थ में विकसित कहलाने के लिये मानसिक रूप से समृद्ध और सम्पन्न होना नितांत आवश्यक है और इसके लिये ज़रूरी है कि हम अपनी सोच को बदलें , अपने आचरण को बदलें और एक बेहतर समाज की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में कृत संकल्प हो जायें ।

साधना वैद

Wednesday, May 13, 2009

विश्वासघात या अवसरवाद

चुनाव चक्र अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच रहा है और अब एक नये दुष्चक्र के आरम्भ का सूत्रपात होने जा रहा है । मंत्रीमंडल में अपनी कुर्सी सुरक्षित करने के लिये सांसदों की खरीद फरोख्त और जोड़ तोड़ का लम्बा सिलसिला शुरु होगा और आम जनता ठगी सी निरुपाय यह सब देख कर अपना सिर धुनती रहेगी । व्यक्तिगत स्तर पर चुनाव लड़ने वाले निर्दलीय प्रत्याशियों और छोटी मोटी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं का वर्चस्व रहेगा । उनकी सबसे मँहगी बोली लगेगी और सत्ता लोलुप और सिद्धांतविहीन राजनीति करने वाले आयाराम गयारामों की पौ बारह होगी |
नेताओं के प्रति विश्वास और सम्मान आम आदमी के मन से इस तरह धुल पुँछ गया है कि गिने चुने अपवादों को छोड़ दिया जाये तो किसी भी नेता के नाम पर मतदाता को मतदान केंद्रों तक खींच कर लाना असम्भव है । आज भी मतदाता पार्टी के नाम पर अपना वोट देता है और पार्टी के घोषणा पत्र पर भरोसा करता है । लेकिन यही सिद्धांतविहीन नेता चुनाव जीतने के बाद आम जनता के विश्वास का गला घोंट कर और पार्टी विशेष की सारी नीतियों के प्रति अपनी निष्ठाओं की बलि चढ़ा कर कुर्सी के पीछे पीछे सम्मोहित से हर इतर किस्म के समझौते करते दिखाई देते हैं तो आम जनता की वितृष्णा की कोई सीमा नहीं रहती । मतदान के प्रति लोगों की उदासीनता का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि लोगों के मन में निराशा ने इस तरह से जड़ें जमा ली हैं कि किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव का आश्वासन उन्हें आकर्षित और उद्वेलित नहीं कर पाता । तुलसीदास की पंक्तियाँ आज के राजनैतिक परिदृश्य में उन्हें अधिक सटीक लगती है-
कोई नृप होहि हमहुँ का हानि
चेरी छोड़ि ना होवहिं रानी ।।
जनता की इस निस्पृहता को कैसे दूर किया जाये , उनके टूटे मनोबल को कैसे सम्हाला जाये और नेताओं की दिन दिन गिरती साख को कैसे सुधारा जायें ये आज के युग के ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनके उत्तर शायद आज किसी युधिष्ठिर के पास नहीं हैं ।
इन समस्याओं को विराम देने के लिये एक विकल्प जो समझ में आता है वह यह है कि देश में सिर्फ दो ही पार्टीज़ होनी चाहिये । अन्य सभी छोटी मोटी और क्षेत्रीय पार्टियों का इन्हीं दो पार्टियों में विलय हो जाना चाहिये । जो पार्टी चुनाव में बहुमत से जीते वह सरकार का गठन करे और दूसरी पार्टी एक ज़िम्मेदार और सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाये । इस कदम से सांसदों की खरीद फरोख्त पर रोक लगेगी और अवसरवादी नेताओं की दाल नहीं गल पायेगी । इसके अलावा संविधान में इस बात का प्रावधान होना चाहिये कि चुनाव के बाद प्रत्याशी पार्टी ना बदल सके और जिस पार्टी के झंडे तले उसने चुनाव जीता है उस पार्टी के प्रति अगले चुनाव तक वह् निष्ठावान रहे । यदि किसी तरह का मतभेद पैदा होता है तो भी वह पार्टी में रह कर ही उसे दूर करने की कोशिश करे । पार्टी छोड़ने का विकल्प उसके पास होना ही नहीं चाहिये । तभी नेताओं की निष्ठा के प्रति लोगों में कुछ विश्वास पैदा हो सकेगा और पार्टीज़ की कार्यकुशलता के बारे में लोग आश्वस्त हो सकेंगे । इस तरह के उपाय करने से जनता स्वयम को छला हुआ महसूस नहीं करेगी और राजनेताओं और राजनीति का जो पतन और ह्रास इन दिनों हुआ है उसे और गर्त में जाने से रोका जा सकेगा और उसकी मरणासन्न साख को पुनर्जीवित किया जा सकेगा ।

साधना वैद

Friday, May 8, 2009

दोषी कौन ?

चुनाव का चौथा चरण भी बीत गया । बड़े दुख की बात है कि मतदान का प्रतिशत अभी तक जस का तस है । लोगों को ‘जगाने’ के सारे भागीरथ प्रयत्न विफल हो गये । लेकिन उससे भी बडे दुख की बात यह है कि जो ‘जाग’ गये थे उनको हमारे अकर्मण्य तंत्र की खोखली अफसरी ने दोबारा ‘सोने’ के लिये मजबूर कर दिया ।
जिस दिन से चुनाव की घोषणा हुई थी मतदाता सूचियों के सुधारे जाने और उनका नवीनीकरण किये जाने का एक ‘वृहद कार्यक्रम’ चलाया गया । कई दिनों तक दिन में शांति से बैठ नहीं सके कि कभी फोटो चाहिये तो कभी पासपोर्ट की कॉपी तो कभी ड्राइविंग लाइसेंस की कॉपी तो कभी परिवार के सारे सदस्यों के विस्तृत वृत्तांत कि कौन कहाँ रहता है और उसकी आयु क्या है आदि आदि । हमने भी बडे धैर्य के साथ उन्हें पूरा सहयोग दिया और सभी वांछित जानकारी उन्हें उपलब्ध कराई इस आशा के साथ कि इस बार तो बड़ी मुस्तैदी से काम हो रहा है और इस बार के चुनाव के साथ अवश्य ही बदलाव की सुख बयार बहेगी और भारतीय लोकतंत्र की जीर्ण शीर्ण काया का अकल्पनीय रूप से सशक्तिकरण हो जायेगा । लेकिन कल बड़ी कोफ्त हुई जब मतदाता सूची में अपना नाम ढूँढने में हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ी और उससे भी ज़्यादह कोफ्त शाम को हुई जब टी.वी. पर कई लोगों को अपना दर्द बयान करते देखा कि मतदाता सूची में नाम नहीं मिलने की वजह से उन्हें वोट नहीं डालने दिया गया । अपने मताधिकार से वंचित रहने वालों में एक बडी संख्या अशिक्षित मतदाताओं की थी । व्यवस्था में इतनी बड़ी चूक के लिये आप किसे दोष देंगे ? मतदाता सूचियों में सुधार की प्रक्रिया का प्रदर्शन क्या दिखावा भर था ? कई लोग अपना फोटो पहचान पत्र भी दिखा रहे थे लेकिन क्योंकि सूची में नाम नहीं था इसलिये उन्हें वोट नहीं डालने दिया गया । जहाँ इतनी लचर व्यवस्था हो और उनकी ‘कार्यकुशलता’ के आधार पर नियमों का अनुपालन हो वहाँ सुधार की गुंजाइश कहाँ रह जाती है !
मतदान केन्द्रों पर एक ऐसे निष्पक्ष अधिकारी को नियुक्त करना चाहिये जो स्वविवेक से यह निर्णय ले सके कि निकम्मी व्यवस्था के शिकार ऐसे लोग किस तरह से अपने मताधिकार का प्रयोग करें और उन्हें अपने बुनियादी अधिकार से वंचित रहने का दंश ना झेलना पड़े । भारत जैसे विशाल देश में जहाँ एक बड़ी संख्या में अशिक्षित मतदाता हैं शासन तंत्र को उनका छोटे बच्चों की तरह ध्यान रखने की ज़रूरत है । छिद्रांवेषण कर उनको वोट देने से रोकने से काम नहीं चलेगा ज़रूरत इस बात की है कि तत्काल वहीं के वहीं उन कमियों को दूर करने के विकल्प तलाशे जायें और उन्हें भी नई सरकार के निर्माण में अपना अनमोल योगदान देने के गौरव को अनुभव करने दिया जाये । चुनाव का अभी भी अंतिम चरण बाकी है । शायद चुनाव आयोग इस ओर ध्यान देगा ।
साधना वैद

Tuesday, May 5, 2009

एक आम आदमी की कहानी

जीवन के महासंग्राम में दिन रात संघर्षरत एक आम इंसान के कटु अनुभव से अपने सुधी पाठकों को अवगत कराना चाहती हूं और अंत में उनके अनमोल सुझावों की भी अपेक्षा रखती हूँ कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में उस व्यक्ति को क्या करना चाहिये था ।
मेरे एक पड़ोसी के यहाँ चोरी हो गयी । चोर घर में ज़ेवर, नकदी और जो भी कीमती सामान मिला सब बीन बटोर कर ले गये । पड़ोसी एक ही रात में लाखपति से खाकपति बन गये । उस वक़्त उनको जो आर्थिक और मानसिक हानि हुई उसका अनुमान लगाना तो मेरे लिये मुश्किल है लेकिन उसके बाद उन्हें सालों जो कवायद करनी पड़ी और जिस तरह से न्याय पाने की उम्मीद में वे पुलिस की दुराग्रहपूर्ण कार्यप्रणाली की चपेट में आकर थाने और कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा लगा कर चकरघिन्नी बन गये इसे मैने ज़रूर देखा है । चोरी की घटना के बाद उन्होंने थाने में रिपोर्ट लिखा दी । तीन चार दिन तक लगातार जाँच की प्रक्रिया ‘ सघन ‘ रूप से चली । परिवार के सदस्यों सहित सारे नौकर चाकर और पड़ोसियों तक के कई कई बार बयान लिये गये । फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट, फोटोग्राफर्स के दस्तों ने कई बार घटनास्थल पर फैले बिखरे सामान, अलमारियों के टूटे तालों, और टूटे खिड़की दरवाज़ों का निरीक्षण परीक्षण किया । नगर के सभी प्रमुख समाचार पत्रों के पत्रकार पड़ोसी के ड्राइंग रूम में सोफे पर आसीन हो घटना की बखिया उधेड़ने मे लगे रहे । इस सबके साथ साथ इष्ट मित्र , रिश्तेदार और पास पडोसी भी सम्वेदना व्यक्त करने और अपना कौतुहल शांत करने के इरादे से कतार बाँधे आते रहे और चाय नाश्ते के दौर चलते रहे ।
अंततोगत्वा इतनी कवायद के बाद इंसपेक्टर ने अज्ञात लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर मुकदमा दायर कर दिया । पड़ोसी महोदय ने चैन की साँस ली । उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वे अभी बेटी के ब्याह से फारिग हुए हैं । अब पुलिस वाले चंद दिनों में चोरों को पकड़ लेंगे और चोरी गये सामान की रिकवरी हो जायेगी और सब कुछ ठीक हो जायेगा । उन्हें क्या पता था कि असली मुसीबत तो अब पलकें बिछाये उनकी प्रतीक्षा कर रही है ।
क़ई दिन की उठा पटक के बाद उन्होंने चार पाँच दिन बाद ऑफिस की ओर रुख किया । मेरे पड़ोसी एक प्राइवेट कम्पनी में प्रोडक्शन इंजीनियर हैं । इतने दिन की अनुपस्थिति के कारण कम्पनी के काम काज का जो नुक्सान हुआ उसकी वजह से उन्हें बॉस का भी कोप भाजन बनना पड़ा । खैर जैसे तैसे उन्होंने पटरी से उतरी गाड़ी को फिर से पटरी पर चढ़ाने की कोशिश की और अपने सारे दुख को भूल फिर से जीवन की आपाधापी में संघर्षरत हो गये ।
लेकिन अब एक कभी ना टूटने वाला कोर्ट कचहरी का सिलसिला शुरु हुआ । आरम्भ में हर हफ्ते और फिर महीने में दो – तीन बार केस की तारीखें पड़ने लगीं । हर बार वे ऑफिस से छुट्टी लेकर बड़े आशान्वित हो कोर्ट जाते कि इस बार कुछ हल निकल जायेगा लेकिन हर बार बाबू लोगों की जमात और वकीलों के दल बल को चाय पानी पिलाने चक्कर में और सुदूर स्थित कचहरी तक जाने के लिये गाड़ी के पेट्रोल का खर्च वहन करने में उनके चार - पाँच सौ रुपये तो ज़रूर खर्च हो जाते लेकिन केस में कोई प्रगति नहीं दिखाई देती । केस की तारीख फिर आगे बढ़ जाती और वे हताशा में डूबे घर लौट आते । यह क्रम महीनों तक चलता रहा ।
परेशान होकर पड़ोसी ने पेशी पर कोर्ट जाना बन्द कर दिया । चोरी की घटना बीते तीन साल हो चुके थे । ना तो किसी सामान की बरामदगी हुई थी ना ही कोई चोर पकड़ में आया था । चोरी के वाकये को वे एक बुरा सपना समझ कर सब भूल चुके थे और नये सिरे से जीवन समर में कमर कस कर जुट गये थे कि अचानक कोर्ट से नोटिस आ गया कि मुकदमें की पिछली तीन तारीखों पर पड़ोसी कोर्ट में नहीं पहुँचे इससे कोर्ट की अवमानना हुई है और अगर वे अगली पेशी पर भी कोर्ट नहीं पहुँचेंगे तो उनके खिलाफ सम्मन जारी कर दिया जायेगा । ज़िसने चोरी की वह आराम से मज़े उड़ा रहा था क्योंकि वह कानून की गिरफ्त से बाहर था और पुलिस तीन सालों में भी उसे पकड़ने में नाकाम रही थी । पर जिसका सब कुछ लुट चुका था वह तो एक सामाजिक ज़िम्मेदार नागरिक था वह कहाँ भागता ! इसीलिये उस पर नकेल कसना आसान था । लिहाज़ा उसे ही कानूनबाजी का मोहरा बनाया गया । अंधेर नगरी चौपट राजा ! नोटिस पढ़ कर पड़ोसी के होश उड़ गये । फिर भागे कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने । कई दिनों की कवायद के बाद अंततोगत्वा पाँच हज़ार रुपये की रिश्वत देकर उन्होने अपना पिंड छुड़ाया और अज्ञात चोरों के खिलाफ अपना मुकदमा वापिस लेकर इस जद्दोजहद को किसी तरह उन्होंने विराम दिया ।
अपने पाठकों से मैं उनकी राय जानना चाहती हूँ कि इन हालातों में क्या पडोसी को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का दोषी माना जाना चाहिये ? अगर वे उसे ग़लत मानते हैं तो उसे मुसीबत का सामना कैसे करना चाहिये था इसके लिये उनके सुझाव आमंत्रित हैं जो निश्चित रूप से ऐसे ही दुश्चक्रों में फँसे किसी और व्यक्ति का मार्गदर्शन ज़रूर करेंगे ।

साधना वैद