Followers

Friday, September 28, 2018

माँ मुझको भी रंग दिला दे



माँ मुझको भी रंग दिला दे
मुझको जीवन रंगना है  
सपनों के कोरे कागज़ पर
इन्द्रधनुष एक रचना है !

लाल रंग से मैं अपना
सौभाग्य लिखूँगी माथे पर
नारंगी से हर्ष और
उल्लास रचूँगी माथे पर !

पीला रंग जीवन में मेरे
ज्ञान बुद्धि भर जायेगा
हरा रंग आध्यात्म और
प्रकृति से मुझे मिलायेगा !

नीले रंग से धैर्य, न्याय के
गुण मैं चित्रित कर लूँगी
जामुनी रंग से निर्भय होकर
दूर गगन तक उड़ लूँगी !

रंग बैंगनी मानवता के
सद्गुण मुझमें भर देगा
माँ रंगों का तोहफा मेरे
सब सपने सच कर देगा !

इन्द्रधनुष के रंगों से
जीवन मेरा खिल जायेगा
मेरे हर सपने को जैसे
नया अर्थ मिल जायेगा !



साधना वैद








Thursday, September 20, 2018

जा रहा मधुमास है





पंछियों के स्वर मधुर खोने लगे
चाँद तारे क्लांत हो सोने लगे    
क्षीण होती प्रिय मिलन की आस है  
मलिन मुख से जा रहा मधुमास है ! 

वन्दना के स्वर शिथिल हो मौन हैं
करें किसका गान अतिथि कौन है
भ्रमित नैनों में व्यथा का भास है
भाव विह्वल जा रहा मधुमास है !

राह कितनी दूर तक सुनसान है
पंथ की कठिनाइयों का भान है
किन्तु मन में ढीठ सा विश्वास है
आओगे तुमजा रहा मधुमास है !

प्रेम की प्रतिमा सजाने के लिए
अर्चना के गीत गाने के लिये
तृषित उर में भावना का वास है
चकित विस्मित ठगा सा मधुमास है !

हृदय की तृष्णा विकल हो बह रही
युगों से पीड़ा विरह की सह रही
प्रियमिलन की साध का यह मास है
व्यथित व्याकुल जा रहा मधुमास है !

आओगे कब फूल मुरझाने लगे
खुशनुमां अहसास भरमाने लगे
जतन से थामे हूँ जो भी पास है
आ भी जाओ जा रहा मधुमास है ! 

साधना वैद







Friday, September 7, 2018

मेरे मितवा




मेरे मितवा
न कोई ख़त, न सन्देश, न संकेत
हर जगह से आज फिर मुझे   
खाली हाथ, रिक्त हृदय, रिक्त मन
लौटाया है तुमने   
एक बार फिर मेरी उम्मीदों,
मेरी आशा, मेरे विश्वास को
नर्मम होकर बलि
चढ़ाया है तुमने !
मितवा मेरे
ठान लिया है मैंने
तुम्हारे ज़ुल्म ओ सितम से
अब हार नहीं मानूँगी
चाहे जितनी बेरुखी दिखा लो
मैं हथियार नहीं डालूँगी !
ओ मनमीत   
आशा निराशा की इन
सावनी बदलियों को
अपने मनाकाश के किसी
सुदूर कोने में बहुत सहेज कर
छिपा लूँगी मैं और अगले बरस
सावन के महीने में
जब फिर से पुरवा चलेगी
मेरे मन में छिपी
आशा निराशा की ये बदलियाँ
एक बार फिर उमड़ घुमड़ कर
घिर आयेंगी और प्रेम रस की
उस घनघोर बारिश में भीग कर  
तुम्हारी बेरुखी का यह ताप   
खुद ब खुद शीतल हो जाएगा !
मितवा मेरे
प्रकृति से यही तो सीखा है मैंने
हर मौसम अपना पूरा जलवा दिखा
एक दिन उतार पर
अवश्यमेव आता ही है
और अंतत: परास्त हो कहीं
पार्श्व में विलीन हो जाता है
 अगले बरस एक बार फिर
उसी जोश खरोश के साथ
लौट कर आने के लिए !
मनमितवा
मैं भी अगली बार
फिर से लौट कर ज़रूर आऊँगी
और साथ ले आऊँगी वह जादू
जो विवश कर देगा तुम्हें
बेरुखी का अपना यह मुखौटा
उतार फेंकने के लिए
क्योंकि कभी हारना तो मैंने
सीखा ही नहीं !


साधना वैद 




  

Tuesday, September 4, 2018

गुरु शिष्य



शिक्षक दिवस पर विशिष्ट 

गुरु गोविन्द 
खड़े मेरे सामने
शीश उठाये 

भ्रमित मन 
सोच है भारी शीश 
किसे नवाये 

राह दिखाओ 
हरो विपदा सारी 
बाँँके बिहारी 

किसको गहूँँ 
असमंजस भारी 
कृष्ण मुरारी

गुरु को बड़ा 
बताया था जग ने 
जानता हूँ मैं 

गुरू का स्थान 
है प्रभु से भी ऊँचा
मानता हूँ मैं 

लेकिन है क्या 
शिक्षक का दायित्व 
जानते हैं वे ?

भोले बच्चों का 
क्या खुद को सर्जक 
मानते हैं वे ?  

निर्दय होके 
बच्चों पे हिंसा नहीं 
गुरु का धर्म 

देना सुशिक्षा 
सँँवारना  व्यक्तित्व 
गुरू का कर्म 

हुए शिक्षक 
लक्ष्मी के उपासक 
भूले कर्तव्य 

छोड़ी कलम 
भूले सरस्वती को 
उठाया द्रव्य 

देना सम्मान 
आदेश का पालन 
छात्र का कर्म 

गुरु की शिक्षा 
धारना अंतर में 
छात्र का धर्म 

जीवन डोर 
सौंप दी है तुमको 
पार लगाना 

दे के सुशिक्षा 
संस्कार औ' करुणा
मान बढ़ाना 

हर के तम 
भर देना प्रकाश 
सूर्य समान 

मेरे श्रद्धेय 
मेरे अभिभावक 
तुम्हें प्रणाम 



साधना वैद