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Monday, September 30, 2019

पुष्पगुच्छ रजनीगन्धा का



हसरत ही रही
मैं पुष्पगुच्छ बन रजनीगन्धा का
तुम्हें भेंट किया जाता !
तुम अतुलनीय प्यार से
मुझे अपने हाथों में थाम
माथे से लगातीं
सराहना भरी दृष्टि से
निर्निमेष मुझे देर तक निहारतीं
फिर नयन मूँद
चाँदनी से शुभ्र श्वेत मेरे
कोमल पुष्पों को
अपने मृदुल स्पर्श से
हौले हौले सहलातीं !
धीमे से उन्हें ऊपर उठा
गहरी साँस ले उनकी सारी
भीनी भीनी सुगंध को
बड़ी तृप्ति के साथ
आत्मसात करतीं  !
अपने कोमल कपोलों से
उन्हें बड़े प्यार से छुलातीं
और अगाध प्यार से
अपने हृदय से लगा कर
कमरे की खुली खिड़की के पास
जाकर मेरी यादों में खो जातीं !
तुम्हारे नैनों की आर्द्रता
मेरे जीवन की सबसे
अनमोल धरोहर होती !
और उस नमी के सहारे ही
मैं खिला रहता
अनंत काल तक
तुम्हारे सुबहो शाम
तुम्हारे दिन रात
महकाने के लिये
तुम्हारे तृषित अधरों पर
एक मीठी सी मुस्कान
लाने के लिये !
जो होता मैं एक पुष्पगुच्छ
रजनीगन्धा का !

साधना वैद



Tuesday, September 24, 2019

अनसुने गीत



तुम सुनो ना सुनो
सुबह की प्रभाती
दिन का ऊर्जा गान
साँझ का सांध्य गीत
रात्रि की लोरी
हमें तो रोज़ ही गाना है
यह स्वर साधना हमारी
दिनचर्या का
अनिवार्य अंग है !
हम नित्य इन सुरों को
साधते हैं और तुम
नित्य अनसुना कर देते हो
या इन्हें सुन कर भी
इनका कोई असर नहीं लेते !
नित्य गीत गाना
हमारी आदत है और
नित्य इन्हें अनसुना कर देना
तुम्हारी फितरत है !
तुम्हीं कहो ग़लत कौन है
तुम या हम ?
कि हमारे इतने मीठे
इतने सुरीले
इतने मधुर गीत
यूँ ही अनसुने
हवाओं में बिखर कर
व्यर्थ हो जाते हैं और
कितने ही कातर प्राण
स्पंदित होने से
वंचित रह जाते हैं?


साधना वैद


Friday, September 20, 2019

जश्न


पलक के निमिष मात्र से
क्षितिज में उठने वाले
प्रलयंकारी तूफान को तो
शांत होना ही था ,
तुम्हें बीहड़ जंगल में
अपनी राह जो तलाशनी थी !
गर्जन तर्जन के साथ
होने वाली घनघोर वृष्टि को भी
तर्जनी के एक इशारे पर
थमना ही था ,
तुम्हें चलने के लिये पैरों के नीचे
सूखी ज़मीन की ज़रूरत जो थी !
सागर में उठने वाली सुनामी की
उत्ताल तरंगों को तो
अनुशासित होना ही था ,
तुम्हारी नौका को तट तक
जो पहुँचना था !
ऊँचे गगन में
अपने शीर्ष को गर्व से ताने
सितारों की हीरक माला
गले में डाले उस पर्वत शिखर को भी
सविनय अपना सिर झुकाना ही था
कीर्ति सुन्दरी को उसका यह हार
तुम्हारे गले में जो पहनाना था !
राह की बाधाओं को तो
हर हाल में मिटना ही था
तुम्हें मंजिल तक जो पहुँचना था !
सांध्य बाला को भी अपने वाद्य के
सारे तारों को झंकृत करना ही था ,
उसे तुम्हारे सजदे में
सबसे सुन्दर, सबसे मधुर,
सबसे सरस और सबसे अनूठे राग में
एक अनुपम गीत जो सुनाना है
तुम्हारी जीत के उपलक्ष्य में !
जीत का यह जश्न तुम्हें
मुबारक हो !


साधना वैद 

Tuesday, September 17, 2019

मत करना आह्वान कृष्ण का


मत करना आह्वान कृष्ण का

जीवन संग्राम में
किसी भी महासमर के लिये
अब किसी भी कृष्ण का
आह्वान मत करना तुम सखी !
किसी भी कृष्ण की प्रतीक्षा
मत करना !
इस युग में उनका आना
अब संभव भी तो नहीं !
और उस युग में भी
विध्वंस, संहार और विनाश की
वीभत्स विभीषिका के अलावा
कौन सा कुछ विराट,
कौन सा कुछ दिव्य,
और कौन सा कुछ
गर्व करने योग्य
दे पाये थे वो ?
जीत कर भी तो
सर्वहारा ही रहे पांडव !
अपनी विजय का कौन सा
जश्न मना पाये थे वो ?
पांडवों जैसी विजय तो
अभीष्ट नहीं है न तुम्हारा !
इसीलिये किसी भी युग में
ऐसी विजय के लिये
तुम कृष्ण का आह्वान
मत करना सखी !
विध्वंस की ऐसी विनाश लीला
अब देख नहीं सकोगी तुम
और ना ही अब
हिमालय की गोद में
शरण लेने के लिये
तुममें शक्ति शेष बची है !

साधना वैद



Friday, September 13, 2019

सन्नाटा


दर्पण के सामने खड़ी हूँ

लेकिन नहीं जानती
मुझे अपना ही प्रतिबिम्ब
क्यों नहीं दिखाई देता ,
कितने जाने अनजाने लोगों की
भीड़ है सम्मुख
लेकिन नहीं जानती
वही एक चिर परिचित चेहरा
क्यों नहीं दिखाई देता ,
कितनी सारी आवाजें हरदम
गूँजती हैं इर्द गिर्द
लेकिन नहीं जानती
खामोशी की वही एक
धीमी सी फुसफुसाहट
क्यों नहीं सुनाई देती ,
कितने सारे मंज़र
बिखरे पड़े हैं चारों ओर
लेकिन नहीं जानती
मन की तपन को जो
शांत कर दे वही एक मंज़र
क्यों नहीं दिखाई देता !
नहीं जानती
यह हमारे ही वजूद के
मिट जाने की वजह से है
या दुनिया की इस भीड़ में
तुम्हारे खो जाने के कारण
लेकिन यह सच है कि
ना अब दर्पण मुस्कुराता है
कि मन को शक्ति मिले
ना कोई चेहरा स्नेह विगलित
मुस्कान से आश्वस्त करता है
कि सारी पीड़ा तिरोहित हो जाये ,
ना खामोशी की धीमी-धीमी
आवाजें सुनाई देती हैं
कि हृदय में जलतरंग बज उठे ,
ना आत्मा को तृप्त करने वाला
कोई मंज़र ही दिखाई देता है
कि मन का पतझड़ वसंत बन जाये !
अब सिर्फ सन्नाटा ही सन्नाटा है
भीतर भी और बाहर भी !





साधना वैद

Thursday, September 12, 2019

एक पन्ना --- डायरी का



दूर क्षितिज पर भुवन भास्कर सागर की लोल लहरियों में जलसमाधि लेने के लिये अपना स्थान सुनिश्चित कर संसार को अंतिम अभिवादन करते विदा होने को तत्पर हैं ! सूर्यास्त के साथ ही अन्धकार त्वरित गति से अपना साम्राज्य विस्तृत करता जाता है ! जलनिधि की चंचल तरंगों के साथ अठखेलियाँ करती अवसान को उन्मुख रवि रश्मियों का सुनहरा, रुपहला, रक्तिम आवर्तन-प्रत्यावर्तन हृदय को स्पंदित कर गया है ! संध्या के आगमन के साथ ही पक्षी वृन्दों को चहचहाते हुए अपने बसेरों की तरफ लौटते देख मन अवसाद से भर उठा है ! क्यों मेरा मन इतना निसंग, एकाकी और उद्भ्रांत है ! अंधकार की गहनता के साथ ही नीरवता भी पल-पल बढ़ती जाती है ! दूर-दूर तक अब कहीं प्रकाश की कोई रेखा दिखाई नहीं देती ! बच्चों का कलरव भी मंद हो चला है ! कदाचित सभी अपने-अपने घरों को लौट गये हैं ! मैं भी अनमनी सी शिथिल कदमों से लौट आई हूँ अपने अंतर के निर्जन सूने एकांतवास में जहाँ रात के इस गहन सन्नाटे में कहीं से भी कोई आहट, कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती कि मैं खुद के ज़िंदा होने का अहसास महसूस कर सकूँ ! पंछी भी मौन हो गये हैं ! इसी तरह निर्निमेष अन्धकार में छत की कड़ियों को घूरते कितने घण्टे बीत गये पता ही नहीं चला ! अब कुछ धुँधला सा भी दिखाई नहीं देता ! जैसे मैं किसी अंधकूप में गहरे और गहरे उतरती चली जा रही हूँ ! मेरी सभी इंद्रियाँ घनीभूत होकर सिर्फ कानों में केंद्रित हो गयी हैं ! हल्की सी सरसराहट को भी मैं अनुभव करना चाहती हूँ शायद कहीं कोई सूखा पीला पत्ता डाल से टूट कर भूमि पर गिरा हो, शायद किसी फूल से ओस की कोई बूँद ढुलक कर नीचे दूब पर गिरी हो, शायद किसी शाख पर किसी घोंसले में किसी गौरैया ने पंख फैला कर अपने नन्हे से चूजे को अपने अंक में समेटा हो, शायद किसी दीपक की लौ बुझने से पूर्व भरभरा कर प्रज्वलित हुई हो ! इस घनघोर अन्धकार और भयावह सन्नाटे में वह कौनसी आवाज़ है जिसे मैं सुनना चाहती हूँ मैं नहीं जानती लेकिन इतना ज़रूर जानती हूँ कि साँसों की धीमी होती रफ़्तार को गति तभी मिल सकेगी जब मुझे वह आवाज़ सुनाई दे जायेगी !


चित्र - गूगल से साभार

साधना वैद

Tuesday, September 10, 2019

यह कैसी खामोशी




जाने क्यों ऐसा लगता है कि इस एक लफ्ज़ में ही सारे ज़माने का शोर समाया हुआ है ! डर लगता है इसे उच्चारित करूँगी तो उससे उपजे शोर से मेरे दिमाग की नसें फट जायेंगी ! एक चुप्पी, एक मौन, एक नीरवता, एक निशब्द सन्नाटा जो हर वक्त मन में पसरा रहता है जैसे अनायास ही तार-तार हो जायेगा और इस शब्द मात्र का उच्चारण मुझे मेरे उस सन्नाटे की सुकून भरी पनाहों से बरबस खींच कर समंदर के तूफानी ज्वार भाटों की ऊँची-ऊँची लहरों के बीच फेंक देगा ! मुझे अपने मन की यह नीरवता मखमल सी कोमल और स्निग्ध लगती है ! यह एकाकीपन और सन्नाटा अक्सर आत्मीयता का रेशमी अहसास लिये मुझे बड़े प्यार से अपने अंक में समेट लेता है और मैं चैन से उसकी गोद में अपना सर रख उस मौन को बूँद-बूँद आत्मसात करती जाती हूँ !
साँझ के उतरने के साथ ही मेरी यह नि:संगता और अँधेरा बढ़ता जाता है और हर पल सारी दुनिया से काट कर मुझे और अकेला करता जाता है ! आने वाले हर लम्हे के साथ यह मौन और गहराता जाता है और मैं अपने मन की गहराइयों में नीचे और नीचे उतरती ही जाती हूँ ! और तब मैं अपनी क्षुद्र आकांक्षाओं, खण्डित सपनों, भग्न आस्थाओं, आहत भावनाओं, टूटे विश्वास, नाराज़ नियति और झुके हुए मनोबल के इन्द्रधनुष को अपने ही थके हुए जर्जर कंधों पर लादे अपने रूठे देवता की छुटी हुई उँगली को टटोलती इस घुप अँधेरे में यहाँ से वहाँ भटकती रहती हूँ ! तभी सहसा मेरे मन की शिला पर सर पटकती मेरी चेतना के घर्षण से एक नन्हीं सी चिन्गारी जन्म लेती है और उस चिन्गारी की क्षीण रोशनी में मेरे हृदय पटल पर मेरी कविताओं के शब्द प्रकट होने लगते हैं ! धीरे-धीरे ये शब्द मुखर होने लगते हैं और मेरे अंतर में एक जलतरंग सी बजने लगती है जिसकी सम्मोहित करती धुन एक अलौकिक संगीत की सृष्टि करने लगती है ! मेरा सारा अंतर एक दिव्य आलोक से प्रकाशित हो जाता है और तब कल्पना और शब्द की, भावना और संगीत की जैसी माधुरी जन्म लेती है वह कभी-कभी अचंभित कर जाती है ! मेरे मन के गवाक्ष तब धीरे से खुल जाते हैं और मेरे विचारों के पंछी सुदूर आकाश में पंख फैला ऊँची बहुत ऊँची उड़ान भरने लगते हैं साथ ही मुझे भी खामोशी की उस दम घोंटने वाली कैद से मुक्त कर जाते हैं !
मुझे अपने मन का यह शोर भला लगता है ! मुझे खामोशी का अहसास डराता है लेकिन मेरे अंतर का यह कोलाहल मुझे आतंकित नहीं करता बल्कि यह मुझे आमंत्रित करता सा प्रतीत होता है !

चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद

Saturday, September 7, 2019

मेरी बेटी




धड़धड़ाते हुए कमरे में प्रवेश कर वैशाली ने हाथ में टेलर के यहाँ से लाया हुआ यूनीफॉर्म के ब्लेज़र का पैकेट सोफे पर फेंका और मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने में मशगूल अपने छोटे भाई निनाद से पूछा, “माँ कहाँ हैं निनाद ? “
मोबाइल से नज़र हटाये बिना ही निनाद ने मुँह बिचका कर उत्तर दिया, “ऊपर के कमरे में हैं दीदी ! अपने कपों की प्रदर्शनी लगा कर बॉक्सर की सफाई में लगी हैं !”
“और तू यहाँ मोबाइल पर गेम खेल रहा है ! माँ की हेल्प नहीं कर सकता ज़रा भी !” बड़बड़ाते हुए वैशाली दो-दो सीढ़ियाँ चढ़ पलक झपकते ही ऊपर पहुँच गयी !
“क्या कर रही हो माँ ? बड़ी ज़ोर से भूख लगी है !“
वैशाली माँ के कन्धों पर झूल गयी ! माँ एक पुराने से बैग से कई रंग उतरे उनकी स्टूडेंट लाइफ में उन्हें इनाम में मिले कपों को ज़मीन पर करीने से सजा कर बड़ी हसरत से निहार रही थीं ! पास ही उनके गर्ल्स रिप्रेजेंटेटिव और बैडमिंटन चैम्पियन के मोनोग्राम्स भी पड़े हुए थे जो कभी किसी ब्लेज़र पर नहीं टँक पाये ! अपने ज़माने की बड़ी मेधावी छात्रा थीं वैशाली की माँ ! एक बार पूछा था वैशाली ने कि ये मोनोग्राम्स उन्होंने अपने ब्लेज़र पर क्यों नहीं टँकवाये तो बड़ी उदासी से उन्होंने बताया था कि कभी ब्लेज़र ही नहीं बना तो लगातीं किस पर ! वैशाली की आवाज़ सुन माँ ने जल्दी से सारे कप्स समेट बैग में डाल दिये और रसोई की ओर चल दीं !
“हाँ चल, आजा जल्दी से ! तेरी पसंद के गोभी के पराँठे बनाए हैं मैंने !”
माँ के जाते ही वैशाली ने चुपके से वह बैग बाहर निकाल लिया !
“अभी आती हूँ माँ !” कह कर वह झटपट सीढ़ियाँ उतर कर फिर से अपना ब्लेज़र उठा बाहर निकल गयी !
“कहाँ चली गयी फिर से ! अभी तो भूख लग रही थी बड़ी ज़ोर से और अब फिर घूमने चल दी ! ये लड़की भी अजीब है बिलकुल ! मेरा काम भी रुकवा दिया और खाना भी नहीं खाया !” माँ बड़बड़ा रही थीं !
दो घंटे बाद जब वैशाली लौटी तो कमरे को झाड़ पोंछ कर माँ आईने के सामने खड़ी अपने बाल सँवार रही थीं ! वैशाली ने पीछे से आकर माँ की आँखें बंद कर लीं !
“कहाँ चली गयी थी मुझे रसोई में भेज कर ? भूख लगी थी ना तुझे ?” कुछ झल्लाई सी माँ बोलीं !
‘श् श् श् .... ! आँखें बंद करो ना माँ !” वैशाली ने मनुहार की ! माँ के आँखें बंद करते ही वैशाली ने एक कोट माँ को पहना दिया !
“अब आँखें खोलो माँ !” ब्लेज़र की पॉकेट पर माँ का बैडमिन्टन चैम्पियन का मोनोग्राम चमक रहा था !
माँ का गुस्सा काफूर हो चुका था ! नम आँखों में खुशी का सागर लहरा रहा था !
“ओ ओ .. मेरी बेटी !”
हर्षातिरेक से उन्होंने वैशाली को गले लगा लिया ! मुग्ध वैशाली उन्हें एकटक निहार रही थी !

चित्र - गूगल से साभार 
साधना वैद

Thursday, September 5, 2019

ज़िंदगी का फलसफा


बोलो तो ज़रा   
किसने सुझाई थी तुम्हें ये राह
किसने दिखाई थी ये मंज़िल
किसने आँखों के सामने से
चहुँ ओर फैले जाले हटाये थे ?
ज़िंदगी गिटार या वायोलिन पर
बजने वाली एक मीठी धुन
भर ही नहीं है
ज़िंदगी एक अनवरत जंग है,
संघर्ष है, चुनौती है, स्पर्धा है
एक कठिन इम्तहान है 
यह एक ऐसी अथाह नदी है
जिसे पार करने के लिए
जो इकलौता पुल है वह भी
टूट कर नष्ट हो चुका है
यह एक ऐसा अलंघ्य पर्वत है
जिसके दूसरी ओर जाना
इसलिए मुमकिन नहीं क्योंकि
तुम्हारे पास
शिखर तक जाने के लिए
ना तो पर्याप्त प्राण वायु है  
ना ही यथोचित साधन !
क्या करना चाहते हो
एहसानमंद हो उस शख्स के
कि उसने तुम्हें
सही वक्त पर चेता कर
तुम्हें सत्य के दर्शन करा दिए
और तुम्हें तुम्हारी
औकात और कूवत से
   परिचित करा दिया ?   
या उसकी गर्दन दबोचना चाहते हो
कि सत्य से मुँह चुरा कर
कल्पना के मिथ्या संसार में जीकर
खुद को सूरमा समझ लेने के
एक और खुशनुमां एहसास को
जी लेने के शानदार मौके से
तुम्हें वंचित कर दिया ?  
बोलो क्या चुनना चाहते हो तुम ?
यथार्थ या कल्पना
सत्य या मिथ्या
सही या ग़लत
क्या है तुम्हारा पाथेय ?
क्या है तुम्हारा गंतव्य ?
क्या है तुम्हारा लक्ष्य ?
जब किसी नतीजे पर पहुँच जाओ
तो मुझे भी ज़रूर बताना !


चित्र --- गूगल से साभार 

साधना वैद