जाने क्यों ऐसा लगता है कि इस एक लफ्ज़ में ही सारे ज़माने का शोर समाया हुआ है ! डर लगता है इसे उच्चारित करूँगी तो उससे उपजे शोर से मेरे दिमाग की नसें फट जायेंगी ! एक चुप्पी, एक मौन, एक नीरवता, एक निशब्द सन्नाटा जो हर वक्त मन में पसरा रहता है जैसे अनायास ही तार-तार हो जायेगा और इस शब्द मात्र का उच्चारण मुझे मेरे उस सन्नाटे की सुकून भरी पनाहों से बरबस खींच कर समंदर के तूफानी ज्वार भाटों की ऊँची-ऊँची लहरों के बीच फेंक देगा ! मुझे अपने मन की यह नीरवता मखमल सी कोमल और स्निग्ध लगती है ! यह एकाकीपन और सन्नाटा अक्सर आत्मीयता का रेशमी अहसास लिये मुझे बड़े प्यार से अपने अंक में समेट लेता है और मैं चैन से उसकी गोद में अपना सर रख उस मौन को बूँद-बूँद आत्मसात करती जाती हूँ !
साँझ के उतरने के साथ ही मेरी यह नि:संगता और अँधेरा बढ़ता जाता है और हर पल सारी दुनिया से काट कर मुझे और अकेला करता जाता है ! आने वाले हर लम्हे के साथ यह मौन और गहराता जाता है और मैं अपने मन की गहराइयों में नीचे और नीचे उतरती ही जाती हूँ ! और तब मैं अपनी क्षुद्र आकांक्षाओं, खण्डित सपनों, भग्न आस्थाओं, आहत भावनाओं, टूटे विश्वास, नाराज़ नियति और झुके हुए मनोबल के इन्द्रधनुष को अपने ही थके हुए जर्जर कंधों पर लादे अपने रूठे देवता की छुटी हुई उँगली को टटोलती इस घुप अँधेरे में यहाँ से वहाँ भटकती रहती हूँ ! तभी सहसा मेरे मन की शिला पर सर पटकती मेरी चेतना के घर्षण से एक नन्हीं सी चिन्गारी जन्म लेती है और उस चिन्गारी की क्षीण रोशनी में मेरे हृदय पटल पर मेरी कविताओं के शब्द प्रकट होने लगते हैं ! धीरे-धीरे ये शब्द मुखर होने लगते हैं और मेरे अंतर में एक जलतरंग सी बजने लगती है जिसकी सम्मोहित करती धुन एक अलौकिक संगीत की सृष्टि करने लगती है ! मेरा सारा अंतर एक दिव्य आलोक से प्रकाशित हो जाता है और तब कल्पना और शब्द की, भावना और संगीत की जैसी माधुरी जन्म लेती है वह कभी-कभी अचंभित कर जाती है ! मेरे मन के गवाक्ष तब धीरे से खुल जाते हैं और मेरे विचारों के पंछी सुदूर आकाश में पंख फैला ऊँची बहुत ऊँची उड़ान भरने लगते हैं साथ ही मुझे भी खामोशी की उस दम घोंटने वाली कैद से मुक्त कर जाते हैं !
मुझे अपने मन का यह शोर भला लगता है ! मुझे खामोशी का अहसास डराता है लेकिन मेरे अंतर का यह कोलाहल मुझे आतंकित नहीं करता बल्कि यह मुझे आमंत्रित करता सा प्रतीत होता है !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
बेहतरीन साधनाजी ! मन की खामोसी जब संगीतमय आवाज के साथ उभरेगी तब सन्नाटा तोड़ सच्चाई सामने लाएगी।
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद सुजाता जी ! आभार !
Deleteचिंतन-मनन के लिए, ज्ञान-ध्यान के लिए भी ख़ामोशी की आवश्यकता होती ही नहीं, बल्कि नितांत आवश्यक है। प्रकृत्ति की आवाज़ सुनने के लिए भी ख़ामोशी ही चाहिए। शोर तो लाउडस्पीकर वाली तथाकथित भक्ति के लिए चाहिए होती है , चाहे वो अज़ान के लिए हो, भजन-आरती के लिए हो या फिर शबद-गुरुवाणी के लिए हो।
ReplyDeleteदुनिया के कई आविष्कार और अनुसन्धान भी ख़ामोशी के गोद में ही हुए है। अजंता-एलोरा जैसी कृतियाँ ख़ामोशी के साये में ही पनपे हैं।
ये ख़ामोशी अगर स्वयं स्वेक्षा से स्वीकारी गई हो तो सुख का अहसास होता है, पर जब यह परिस्थितिप्रदत मिली हो तो असहनीय होती है। ठीक उस उपवास की तरह जो मज़बूरीवश कभी सफ़र या फिर प्राकृतिक आपदा के वक्त में करनी पड़ी हो, वनिस्पत किसी पूजा-श्रद्धा के उपवास के।
कल्पना के पँख पर उड़ते शब्दों का समूह जो कागज़ के आँगन में अनायास उतर आते हैं, इनके सुकून के साथ-साथ बारहा प्रकृत्ति का सानिध्य भी उनके संगत की संगीत, गुनगुनाहट, लयबद्ध आहट सब मिलकर ख़ामोशी का गला दबा देते हैं और हम ख़ामोशी की जकड़न से मुक्त हो जाते हैं।
बहुत ही संवेदनशील उदगार है आपकी जो ख़ामोशी से ही उपजी है ..
इतनी संवेदनशील प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार सुबोध जी ! जब सहृदय पाठकों की सराहना मिलती है तो अपना लिखा हुआ ही प्रीतिकर लगने लगता है !
Deleteबेहतरीन आलेख..
ReplyDeleteसादर नमन..
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 11 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार प्रिय यशोदा जी ! सप्रेम वंदे !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वंदे !
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति साधना जी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनुराधा जी ! आभार आपका !
Deleteउम्दा लेख |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी ! दिल से आभार आपका !
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