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Wednesday, July 31, 2019

रहें सुख से भैया जहाँ हों हमारे !

  














न अब वैसा सावन, न बारिश की बूँदें,
न अब वैसे झूले, जो आकाश छू लें !
न झूले की पींगें, न मीठी मल्हारें,
न कजरी की तानें, न भीगी फुहारें !
न सखियों का जमघट, न मेंहदी के बूटे,
न चूड़ी की छनछन, न चुनरी के गोटे !
न सलमा न मोती, न रेशम के धागे ,
न बहनों की बहसें, रहूँ सबसे आगे !
न चौके में अम्माँ की सौंधी रसोई,
न घेवर न लस्सी, जो घर की बिलोई !
हैं बाज़ार में इक से इक मँहगी राखी,
है मिलता सभी कुछ, नहीं कुछ भी बाकी !
है व्यापार सबमें, सभी कुछ है नकली ,
न मन में मुरव्वत, न है प्यार असली !
मुझे याद आते हैं वो दिन पुराने,
भरे सादगी से मगर थे सुहाने !
निकलती हैं दिल से दुआएँ हमारे
रहें सुख से भैया जहाँ हों हमारे !





साधना वैद 

Wednesday, July 24, 2019

धूम्रपान




बुरी है लत
समस्त व्यसनों में
धूम्रपान की

आपके साथ
बिगाड़े तबीयत
नन्ही जान की

ग्रहण करे
आपका छोड़ा धुँआ
पाये न पार

आपकी लत
आपके अपनों को
करे बीमार

संकटग्रस्त
धूम्रलती के संग
बच्चा बेचारा

कहाँ जाए वो
छोड़ निज घर को
बच्चा तुम्हारा

हुआ ग़ज़ब
धुआँँ छोड़ा आपने
बच्चा बीमार

भोगे आपके
दुर्व्यसनों की सज़ा
शिशु लाचार  

पड़े पत्थर
अक्ल पे व्यसनी के
एक ना सुनी

गुलाम हुआ
नशे की आदत का
जान पे बनी

खोखले हुए
जिगर औ फेंफड़े
विपदा भारी

लग जानी है
अब उपचार में
दौलत सारी

नहीं निशानी
सिगार सिगरेट
मर्दानगी की

सबब हैं ये
बर्बाद सेहत की
बेचारगी की

छोड़ें ये लत
सँवारें जीवन को
संकल्प धारें

छुएँ ना कभी
सिगार सिगरेट
भूल सुधारें





साधना वैद













Friday, July 19, 2019

अहसासों की पगडंडी




ज़िंदगी की राहों में
अहसासों की पगडंडी पर
पैर धरती मैं
जाने कब से चल रही हूँ
चलती ही जा रही हूँ !
मेरे तलवों ने
इन अहसासों की छुअन को
खूब पहचाना है !
चलते चलते राह में भूले भटके 
कभी फूलों की नर्म नाज़ुक रेशमी सी
पाँखुरियाँ बिखरी मिलीं
तो कभी बारिश से भीगी माटी का
सौंधा सा स्निग्ध शीतल स्पर्श मिला !
कभी चंचल पवन सा अल्हड़
मखमली अहसास मिला  
तो कभी पैने नुकीले काँटों की
तीखी चुभन मिली जिन्होंने
मेरे तलवों को इतना रक्तरंजित
कर दिया कि दो कदम भी
चलना मुश्किल हो गया !
मेरे भाल पर किस्मत ने शायद 
चुभन, दर्द, पीड़ा, और दुःख भरे
अहसासों का लेखा बड़ी तबीयत से
दिल खोल कर लिखा था !  
काँटों से छलनी हुए तलवों से
छलछला आये रक्त बिन्दुओं से
मैं अहसासों की इस पगडंडी पर
आने वाली पीढ़ियों के
अनुसरण करने के लिए अपने
पद चिन्ह छोड़ती जा रही हूँ !
हर पद चिन्ह के पीछे
अहसासों का एक बेहद घना जंगल है
जिसके अपरिमित विस्तार में
प्रवेश करना और फिर बाहर आ जाना
किसी चमत्कार से कम नहीं !
सोचती हूँ जिनके अहसास
सिर्फ और सिर्फ बड़े ही नर्म,
बड़े ही मधुर, बड़े ही कोमल होते हैं
वे अनुसरण करने के लिए
कौन से चिन्ह छोड़ते होंगे !


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद  


Wednesday, July 17, 2019

‘सत्यमेव जयते’






‘सत्यमेव जयते’
लिखने पढ़ने में यह नारा
कितना अच्छा लगता है,
‘सत्य का आभामण्डल
बहुत विशाल होता है’
कहने सुनने के लिये
यह कथन भी
कितना सच्चा लगता है !
लेकिन नायक
वर्तमान परिस्थितियों में
‘सत्य’जिन रूपों में समाज में
उद्घाटित प्रकाशित हो रहा है
उसे देख कर
क्या तुम कह पाओगे
कि इसी ‘सत्य’ की जीत हो,
क्या तुम सह पाओगे कि
इसी ‘सत्य’ के साथ
सबकी प्रीत हो ?
बोलो नायक
क्या यह सच नहीं कि
हमारे देश के कर्णधार
मासूम जनता के कान उमेठ
अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं,
और भोली जनता को लूट कर
अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं ?
क्या यह सच नहीं कि
पेट की आग बुझाने के वास्ते
कहीं एक गरीब माँ
चंद मुट्ठी अनाज के बदले
अपनी ममता का सौदा
करने के लिये विवश है
तो कहीं अनेक लाचार बहनें
अपने जिस्म की नुमाइश लगा
अपनी अस्मत को गिद्धों के सामने
परोसने के लिये अवश हैं ?
क्या यह सच नहीं कि
आज भी मंदिरों में
देवी की मूर्ति के सामने
मिथ्या भक्ति का ढोंग रचाने वाले
पाखंडी 'सदाचारी' लोग 
निर्बल असहाय नारी को
अकेला देख उस पर
वहशी दरिंदों की तरह
टूट पड़ते हैं,
और अपनी घिनौनी करतूतों से
इंसानियत के मुख पर
एक के बाद एक करारे
थप्पड़ से जड़ते हैं ?
बोलो नायक 
क्या यह सच नहीं कि
आज हमारे समाज में
किस्म-किस्म के भ्रष्टाचार,
अनाचार, दुराचार, व्यभिचार,
पापाचार और अपराध
अपने पूर्ण यौवन पर हैं,
और इन सबको खुले आम  
अंजाम देने वाले बहुत सारे
असामाजिक तत्व
अपनी सत्ता और सामर्थ्य
के मद में चूर
समाज के शिखर पर हैं ?
बोलो नायक
क्या अपने ‘सत्य’ के ऐसे ही
आभामण्डल पर
तुम मंत्रमुग्ध हो
या फिर अपने ‘सत्य’ का ऐसा
वीभत्स रूप और पतन देख
तुम भी अपने मन में
कहीं न कहीं  
आहत और क्षुब्ध हो ?
यदि ऐसे तामसिक सत्य का
न्याय करने के लिये
न्याय तुला
तुम्हारे हाथ में होती
तो तुम क्या करते नायक ?
क्या ‘सत्यमेव जयते’
उच्चारण करते हुए
तुम्हारा कंठ अवरुद्ध नहीं होता ?
या तुम्हारे अधर नहीं काँपते ?
या फिर तुम शतुरमुर्ग की तरह
आँखे मूँद सब अनदेखा कर देते
और बस केवल आदतन  
बिना सोचे समझे ही
दोहरा देते,
‘सत्यमेव जयते’....???????


चित्र - गूगल से साभार 


साधना वैद  
  

Thursday, July 11, 2019

घटायें सावन की



घटायें सावन की
सिर धुनती हैं
सिसकती हैं
बिलखती हैं
तरसती हैं
बरसती हैं
रो धो कर
खामोश हो जाती हैं
अपने आँसुओं की नमी से
धरा को सींच जाती हैं
हज़ारों फूल खिला जाती हैं
वातावरण को
महका जाती हैं
और सबके होंठों पर
भीनी सी मुस्कान
बिखेर जाती हैं !

साधना वैद

बरसा सावन



धरा नवोढ़ा
डाले अवगुंठन
प्रफुल्ल वदन
तरंगित तन
धारे पीत वसन  
उल्लसित मन
विहँसती क्षण-क्षण !
उमड़े घन
करते गर्जन
कड़की बिजली
तमतमाया गगन
बरसा सावन 
तृप्त तन मन
कुसुमित कण-कण
संचरित नवजीवन
खिले सुमन
सजा हर बदन
सुरभित पवन
पंछी मगन
हर्षित जन-जन
धरा पुजारन  
मुग्ध नयन
अश्रु जल से
धोये चरण
करे अर्पण
निज जीवन धन
प्रकृति सुन्दरी  
तुम्हें नमन !  


साधना वैद

सावनी ताँँका



बरस गयी
सावन की फुहार
अलस्सुबह,
भिगो गयी बदन
   सुलगा गयी मन ! 




झाँक रहा है
बादल की ओट से
नन्हा सूरज,
कैसे बाहर आऊँ 
कहीं भीग न जाऊँ !



भाग रहे थे
श्वेत श्याम बादल
पकड़ने को
धरा माँ का आँचल
   ना मिला तो रो पड़े ! 



सुहावनी है
सावन की बयार
साथ लाती है
मधुरिम पलों की
स्मृतियाँ बारम्बार !




याद आता है
बारिश में भीगना
चलते जाना
नर्म गीली दूब पे
पाँव थकने तक !


साधना वैद