घटायें सावन की
घटायें सावन की
सिर धुनती हैं
सिसकती हैं
बिलखती हैं
तरसती हैं
बरसती हैं
रो धो कर
खामोश हो जाती हैं
अपने आँसुओं की नमी से
धरा को सींच जाती हैं
हज़ारों फूल खिला जाती हैं
वातावरण को
महका जाती हैं
और सबके होंठों पर
भीनी सी मुस्कान
बिखेर जाती हैं !
साधना वैद
वाह! सुन्दर मानवीयकारण।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए आभार आपका विश्वमोहन जी ! हृदय से धन्यवाद !
ReplyDeleteवाह,बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी !
ReplyDeleteमनमोहक रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार विभा जी ! प्रफुल्लित हूँ आपको यहाँ देख कर ! स्वागत है आपका !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवारीय विशेषांक १५ जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपका हृदय से बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteये बूँदें कितना दर्द समेट लाती हैं दुनिया का ... फिर ख़ुशी बन के भ्बिखर जाती हैं ...
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचना है ...
हार्दिक धन्यवाद नासवा जी ! आभार आपका !
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