धरा नवोढ़ा
डाले अवगुंठन
प्रफुल्ल वदन
तरंगित तन
धारे पीत वसन
उल्लसित मन
विहँसती क्षण-क्षण !
उमड़े घन
करते गर्जन
कड़की बिजली
तमतमाया गगन
बरसा सावन
तृप्त तन मन
कुसुमित कण-कण
संचरित नवजीवन
खिले सुमन
सजा हर बदन
सुरभित पवन
पंछी मगन
हर्षित जन-जन
धरा पुजारन
मुग्ध नयन
अश्रु जल से
धोये चरण
करे अर्पण
निज जीवन धन
प्रकृति सुन्दरी
तुम्हें नमन !
साधना वैद
बहुत सुंदर और ललित वर्णन।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13 -07-2019) को "बहते चिनाब " (चर्चा अंक- 3395) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
हार्दिक धन्यवाद विश्वमोहन जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवारीय विशेषांक १५ जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !
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