जाने क्यों
आज सारे शब्द चुप हैं ,
सपने मूर्छित हैं ,
भावनायें विह्वल हैं ,
कल्पनाएँ आहत हैं ,
गज़लें ग़मगीन हैं ,
इच्छाएं घायल हैं ,
अधर खामोश हैं ,
गीतों के सातों
स्वर सो गये हैं
और छंद बंद
लय ताल सब
टूट कर
बिखर गये हैं !
मेरे अंतर के
चिर परिचित
निजी कक्ष के
नितांत निर्जन,
सूने, नीरव,
एकांत में
आज यह कैसी
बेचैनी घिर आई है
जो हर पल व्याकुल
करती जाती है !
कहीं कुछ तो टूटा है ,
कुछ तो बिखर कर
चूर-चूर हुआ है ,
जिसे समेट कर
एक सूत्र में पिरोना
मुश्किल होता
जा रहा है !
मुझे ज़रूरत है
तुम्हारी मुट्ठी में
बँधी उज्ज्वल धूप की ,
तुम्हारी आँखों में
बसी रेशमी नमी की ,
तुम्हारे अधरों पर
खिली आश्वस्त करती
मुस्कुराहट की ,
और तुम्हारी
उँगलियों के
जादुई स्पर्श की !
क्योंकि मेरे मन पर
छाये हर अवसाद
हर उदासी का
घना कोहरा
तभी छँटता है
जब मेरे मन के
आकाश पर
तुम्हारा सूरज
उदित होता है !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
लाजवाब भाव
ReplyDeleteवाह
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-07-2019) को "चिट्ठों की किताब" (चर्चा अंक- 3390) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह!!साधना जी ,अद्भुत!!
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ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शुभाजी ! आभार आपका!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ऋतु जी ! आभार आपका !
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सदर वन्दे !
ReplyDeleteहृदय से आपका आभार वर्मा जी ! स्वागत है आपका!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अहसास और उनकी सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कैलाश जी ! बड़े दिनों के बाद आपका पदार्पण हुआ ! स्वागत है ! आभार आपका !
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