कब तक तुम
अपने अस्तित्व को
पिता या भाई
पति या पुत्र
के साँचे में ढालने के लिये
काटती छाँटती
और तराशती रहोगी ?
तुम मोम की गुड़िया तो नहीं !
कब तक तुम
तुम्हारे अपने लिये
औरों के द्वारा लिये गए
फैसलों में
अपने मन की अनुगूँज को
सुनने की नाकाम कोशिश
करती रहोगी ?
तुम गूंगी तो नहीं !
कब तक तुम
औरों की आँखों में
अपने अधूरे सपनों की
परछाइयों को
साकार होता देखने की
असफल और व्यर्थ सी
कोशिश करती रहोगी ?
नींदों पर तुम्हारा भी हक है !
कब तक तुम
औरों के जीवन की
कड़वाहट को कम
करने के लिये
स्वयम् को पानी में घोल
शरबत की तरह
प्रस्तुत करती रहोगी ?
क्या तुम्हारे मन की
सारी कड़वाहट धुल चुकी है ?
तुम कोई शिव तो नहीं !
कब तक तुम
औरों के लिये
अपना खुद का वजूद मिटा
स्वयं को उत्सर्जित करती रहोगी ?
क्यों ऐसा है कि
तुम्हारी कोई आवाज़ नहीं?
तुम्हारी कोई राय नहीं ?
तुम्हारा कोई निर्णय नहीं ?
तुम्हारा कोई सम्मान नहीं ?
तुम्हारा कोई अधिकार नहीं ?
तुम्हारा कोई हमदर्द नहीं ?
तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं ?
अब तो जागो
तुम कोई बेजान गुडिया नहीं
जीती जागती हाड़ माँस की
ईश्वर की बनायी हुई
तुम भी एक रचना हो
इस जीवन को जीने का
तुम्हें भी पूरा हक है !
उसे ढोने की जगह
सच्चे अर्थों में जियो !
अब तो जागो
नयी सुबह तुम्हें अपने
आगोश में समेटने के लिये
बाँहे फैलाए खड़ी है !
दैहिक आँखों के साथ-साथ
अपने मन की आँखें भी खोलो !
तुम्हें दिखाई देगा कि
जीवन कितना सुन्दर है !
साधना वैद
अब तो जागो
ReplyDeleteतुम कोई बेजान गुडिया नहीं
जीती जागती हाड़ माँस की
ईश्वर की बनायी हुई
तुम भी एक रचना हो
इस जीवन को जीने का
तुम्हें भी पूरा हक है !
बहुत अच्छी रचना !!
नयी सुबह तुम्हें अपने
ReplyDeleteआगोश में समेटने के लिये
बाँहे फैलाए खड़ी है !
दैहिक आँखों के साथ-साथ
अपने मन की आँखें भी खोलो !
तुम्हें दिखाई देगा कि
जीवन कितना सुन्दर है !
Dant fatkar, aakrosh, seekh aur asha ki kiran sabhee kuch to hai is sunder si kawita me.
सच्चाई को उकेर कर रख दिया ............
ReplyDeleteहर पंक्ति अर्थपूर्ण/// शानदार रचना!
ReplyDeleteलेकिन वो जाग नही पाती--- चाहते हुये भी। बहुत अच्छी रचना है आज कल व्यस्त हूँ बच्चे आये हैं । इस लिये ब्लाग पर आ नही पाती। शुभकामनायें
ReplyDeleteसच है..नारी को जागना ही होगा...बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमन के हर भाव व्यक्त हुए हैं इस कविता में....जागने का आह्वान भी है, जोश भी है....ऐसे ही ख़याल हर नारी -मन में घर बना लें...फिर सबेरा बस आ ही गया...
ReplyDeleteकविता पढकर मन गदगद हो गया | सच तो है पर हम तस्लीमा का हश्र देख चुके है अपना जीवन जीने से पहले अपनी प्राथमिकताये तय करनी बहुत जरूरी है | जो भी करे वे फैसले हमारे और केवल हमारे हो ताकि बाद में हर दुःख आने पर हम हिम्मत से मुकाबला कर सके | इस कविता ने तो न जाने क्या क्या याद दिला दिया |
ReplyDelete"क्या तुम्हारी सारी कडवाहट --------"
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव लिए रचना |नारी जागृती का उत्तम
प्रयास |बधाई
आशा
आज आपकी ये कविता पढ़ कर दो भाव जो मन में उठे.... कहती हू..
ReplyDeleteपहली ये की इसे पढ़ कर आपकी माता जी का कविता लिखने का तरीका याद आ गया..मतलब आज आपकी लेखनी में उनका प्रतिबिम्ब दीखता है .
दूसरा भाव ये की आपकी इतनी अच्छी कविता पढ़ कर खुद भी कुछ लिखने का दिल हुआ.
आपकी यह प्रस्तुति कल २८-७-२०१० बुधवार को चर्चा मंच पर है....आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा ..
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
aapki rachna ne mujhe mahadevi verma ki yaad dila di ....
ReplyDeleteइस जीवन को जीने का
ReplyDeleteतुम्हें भी पूरा हक है !
उसे ढोने की जगह
सच्चे अर्थों में जियो !
अब तो जागो
बहुत सुन्दर सार्थक प्रेरक पांम्क्तियाँ हैं। बधाई।
साधना जी अच्छी रचना. जिन्हें आप आवाज दे रहीं हैं, उनकी आंखें खुल चुकी हैं, आप की हांक उन्हें और सजग करे, मेरी ऐसी आशा है.
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