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Friday, February 20, 2009

कितना चाहा

कितना चाहा
कि अपने सामने अपने इतने पास
तुम्हें पा तुम्हें छूकर तुम्हारे सामीप्य की अनुभूति को जी सकूँ,
लेकिन हर बार ना जाने कौन सी
अदृश्य काँच की दीवारों से टकरा कर मेरे हाथ घायल हो जाते हैं
और मैं तुम्हें छू नहीं पाती ।
कितना चाहा
कि बिन कहे ही मेरे मन की मौन बातों को तुम सुन लो
और मैं तुम्हारी आँखों में उजागर
उनके प्रत्युत्तर को पढ़ लूँ,
लेकिन हर बार मेरी मौन अभ्यर्थना तो दूर
मेरी मुखर चीत्कारें भी समस्त ब्रह्मांड में गूँज
ग्रह नक्षत्रों से टकरा कर लौट आती हैं
लेकिन तुम्हारे सुदृढ़ दुर्ग की दीवारों को नहीं बेध पातीं ।
कितना चाहा
कि कस कर अपनी मुट्ठियों को भींच
खुशी का एक भी पल रेत की तरह सरकने ना दूँ,
लेकिन सारे सुख न जाने कब, कैसे और कहाँ
सरक कर मेरी हथेलियों को रीता कर जाते हैं
और मैं इस उपमान की परिभाषा को बदल नही पाती ।
कितना चाहा
कि मौन मुग्ध उजली वादियों में
सुदूर कहीं किसी छोर से हवा के पंखों पर सवार हो आती
अपने नाम की प्रतिध्वनि की गूँज मैं सुन लूँ
और वहीं पिघल कर धारा बन बह जाऊँ,
लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाता
और मैं अपनी अभिलाषा को कभी कुचल नहीं पाती ।

साधना वैद