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Monday, March 30, 2015

जी लेती हूँ

      
                      

                                       
छू लेती हूँ जब मखमल सी यादें 
जैसे एक उम्र को जी लेती हूँ 
बूँद भर इस प्रेम रस की चाहत में 
सागर भर ज़हर भी पी लेती हूँ ! 


साधना वैद

Wednesday, March 18, 2015

एक बार फिर



एक बार फिर

लौटे हैं एक और मुकाम से

जहाँ ढूँढते रहे हम 

ज़मीं के चप्पे-चप्पे पर

तेरे कदमों के निशाँ,

चलते रहे नंगे पाँव

कंकर पत्थरों से भरे

खुरदुरे रास्तों पर

कि शायद

इन कंकरों की चुभन में

हमें किसी तरह 

तेरे हमकदम हो जाने का,

झूठा ही सही,

 बस एक

भरम भर हो जाए,

खड़े रहे देर तक

बहती नदी की

तेज धार में

सिर्फ इसी ख्याल से

 कि

कभी इसी जगह

इसी तरह खड़े होकर

तूने भी इसी पानी का

आचमन लिया होगा !

नहीं जानते

जाने कितना पानी

तब से अब तक

इन किनारों को छूकर

बह चुका होगा

लेकिन न जाने कैसे

तेरे ख़याल भर से

मंदिर की सीढ़ियां

प्राणवान हो उठती हैं,

संकरे गलियारों की दीवारों से

अनायास ही तेरी उँगलियाँ

हाथ थामती सी

महसूस होने लगती हैं,

हवाओं में कहीं तेरी खुशबू सी

तैरने लगती है,

पानी के शीतल स्पर्श से  

मन को कहीं सुकून सा

मिलने लगता है कि  

तेरे भीगे हाथों को  

आहिस्ता से छू लिया है !

और फिर 

जाने किस जादू से 

अजनबी शहर का 

हर मकान अपना सा

लगने लगा 
और

हर खिड़की

हर दरवाज़े से हमें

तेरे झाँकने का

गुमां होने लगा !

लेकिन  

हर जगह भीड़ में शुमार

सैकड़ों चेहरों में बस

तुझे ही देख लेने की

नाकाम चाहत लिये

एक बार फिर

खाली हाथ  

लौट आये हैं हम,

एक बस तुझे

ढूँढ लेने की ज़िद में  

बेनाम मंज़िलों के

अजनबी रास्तों पर

एक बार फिर

कहीं खुद को 

भूल आये हैं हम !



साधना वैद

Wednesday, March 4, 2015

सूर्य और धरा


अपनी स्वर्ण रश्मियों की
       सुदीर्घ लेखनी से        
बालारुण जब
उषा काल के
इस बृह्म मुहूर्त में 
धरा के प्रशस्त भाल पर
सुनहरे शब्दों से अपनी
दिव्य शुभाशंसा उकेर देता है
धरा विभोर हो
उस शुभाशंसा के हर शब्द को
अपनी प्रभाती के
कोमल स्वरों में शामिल कर
समूचे बृह्मांड में
विस्तीर्ण कर देती है ! 

 

मध्यान्ह की बेला में
प्रखर प्रभाकर जब
अपनी अग्नि शलाका सी
विशाल बाहुओं की
ऊर्जावान उँगलियों से
धरा के चप्पे चप्पे की
निराई करता है और 
अपने प्रगल्भ, प्रचण्ड ताप से
उर्वर धरा को उष्मित कर
उस पर जलाशयों से संचित
वाष्प का छिड़काव करता है  
अति प्रफुल्लित एवं उपकृत धरा
अपने रोम-रोम से
अंकुरित, पल्लवित, कुसुमित हो
इस महादानी की कृपा का
प्रतिदान देती है !

संध्याकाल में जब
यही चितेरा भुवन भास्कर
धरा के सौंदर्य पर विमुग्ध हो  
अपनी सुकुमार रश्मियों की
दीर्घ तूलिकाओं को
इन्द्रधनुषी रंगों में डुबो कर
उसका श्रृंगार करने के लिये
गगन से नीचे उतारता है
दिन भर के श्रम से क्लांत
उसके थरथराते हाथों से
रंगों की यह प्याली
नीचे गिर जाती है और  
धरा से अम्बर तक
समूचा संसार
मनमोहक सप्तवर्णी रंगों से
सराबोर हो जाता है ! 


दूर क्षितिज में
कदाचित अपनी भूल से क्षुब्ध
कुछ सकुचाया सा
कुछ शर्माया सा
पश्चाताप में डूबा
लज्जित आदित्य
आरक्त मुख लिये
धरा से विदा ले
पश्चिम दिशा की ओर
उन्मुख हो जाता है
किन्तु तभी
आकुल व्याकुल व्यग्र धरा
निस्तेज निष्प्रभ सूर्य को
आकाश से नीचे खींच
अतिशय दुलार से
अपनी ममतामयी गोद में 
आश्रय दे देती है !  



साधना वैद