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Friday, August 22, 2025

कान्हा आए - माहिया

 



नंदलाला घर आए 

यमुना धन्य हुई 

पुरवासी हर्षाए !

 

नंदबाबा पुलकित हैं

धूम मची जग में 

जसुदा के मुख स्मित है ! 

 

मैया माखन लाए 

नटखट बाल किशन 

खाने को ललचाए !


कान्हा पर सब खीझें 

मटकी फूट गई

मन ही मन पर रीझें ! 


कान्हा तुम आ जाओ 

यमुना तीर खड़ी 

बंसुरी सुना जाओ  ! 


सखियाँ भी आयेंगी 

झूला झूलेंगी 

नाचेंगी गायेंगी ! 


चित्र - गूगल से साभार 


साधना वैद 

Wednesday, August 13, 2025

दरार - एक लघुकथा

 



आज रक्षा बंधन का त्योहार है ! असलम के पैर धीरे-धीरे अपने प्रिय दोस्त विशाल के घर की तरफ बढ़ रहे थे ! सालों से उसकी बहन प्रतिभा विशाल के साथ-साथ उसे भी बड़े प्यार से राखी बाँधती आ रही है ! विशाल की माँ ने भी हमेशा असलम को अपने बेटे की तरह ही माना है ! हर ईद पर वे असलम और उसकी छोटी बहन सबा के लिए मिठाई और उपहार देना कभी नहीं भूलीं लेकिन इस बार पहलगाम के आतंकी हमले के बाद विशाल के घर में असलम का पहले सी गर्मजोशी के साथ स्वागत होना बंद हो गया था ! प्रकट रूप से किसीने कुछ कहा नहीं लेकिन व्यवहार में आया ठंडापन बिन कहे भी बहुत कुछ कह जाता था !
दरवाज़े पर पहुँच कर असलम ने कॉल बेल का बटन दबा दिया ! विशाल ने ही दरवाज़ा खोला ! माथे पर तिलक और कलाई पर सुन्दर सी राखी जगमगा रही थी !
“अरे, राखी बँध भी गई
? मुझे आने में देर हो गई क्या ?” असलम ने अपनी मायूसी को छिपाते हुए परिहास करते हुए कहा !
“कहाँ है प्रतिभा ? जल्दी से बुला लो उसे ! मुझे भी बाँध दे राखी ! आज अम्मी को नर्सिंग होम ले जाना है दिखाने के लिए !”
“अरे तो वही काम पहले करो न !” विशाल की माँ बोली ! “राखी का क्या है ! बाद में भी बँध सकती है ! अभी तो प्रतिभा को भी जाना है अपनी सहेली के यहाँ ! तुम पहले अपनी अम्मी को दिखा आओ !”
असलम संबंधों में आई दरार को शिद्दत से महसूस कर रहा था ! विशाल की माँ के लिए अम्मी की बीमारी की बात ढाल का काम कर रही थी ! वे चोर निगाहों से अन्दर कमरे की ओर देख रही थीं कहीं प्रतिभा बाहर न आ जाए !
तभी राखी की सजी हुई थाली हाथ में लिए प्रतिभा ने कमरे में प्रवेश किया !
“ओफ्फोह, कितनी देर लगा दी असलम भैया ! आप जानते तो हैं मैं जब तक आपको राखी नहीं बाँध लेती पानी भी नहीं पीती !” मिठाई का टुकड़ा असलम को खिलाते हुए प्रतिभा की आवाज़ रुँध गयी थी ! असलम की आँखें में भी नमी आ गई थी ! आकाश में धुंध को चीर कर धूप निकल आई थी !  

साधना वैद   


Sunday, August 10, 2025

नौकरी करने वाली महिलाओं की समस्याएँ

 




आज की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था में यह एक बहुत ही ज्वलंत समस्या है ! यह एक निर्मम यथार्थ है कि नौकरी करने वाली कामकाजी महिलाओं पर दोहरी ज़िम्मेदारी होती है और उन्हें घर की जिम्मेदारियों के साथ अपने कार्यक्षेत्र की जिम्मेदारियों को भी निभाना पड़ता है !

अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज में घर गृहस्थी के सारे कामों का दायित्व स्त्री पर ही होता है ! घर में खाना बनाना हो, मेहमानों की आवभगत करनी हो, बच्चों की लिखाई पढ़ाई हो या घर परिवार में किसी की बीमारी हारी की समस्या हो ! पतिदेव अपनी ज़िम्मेदारी पैसों की व्यवस्था करना या बाज़ार हाट का थोड़ा बहुत काम कर देने तक ही समझते हैं ! बाकी सारे कामों का दाइत्व स्त्री को ही निभाना पड़ता है ! अगर कहीं चूक हो जाती है तो घर में असंतोष और क्लेश का वातावरण बन जाता है ! जहाँ संयुक्त परिवार अभी भी अस्तित्व में हैं वहाँ परिवार की अन्य महिलाएं कुछ सहायता कर देती हैं लेकिन वह भी अक्सर एहसान की तरह ! जिसकी वजह से अक्सर सम्बन्ध खराब हो जाते हैं !

संपन्न घरों में सहायता के लिए नौकर रख लिए जाते हैं लेकिन अक्सर उन घरों में चोरी इत्यादि के समाचार भी सुनने में आते हैं ! बच्चों की परवरिश पर भी बुरा असर पड़ता है और बच्चे उस प्यार और परवरिश से वंचित रह जाते हैं जो एक माँ उन्हें दे सकती है ! कभी काम से खीझ कर या कभी बच्चों की जिद या असहयोग से चिढ कर नौकर अक्सर बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करने लगते हैं ! उनके साथ गाली गलौज की भाषा का प्रयोग करते हैं जिसकी वजह से बच्चे भी गंदी आदतें और गंदी भाषा का प्रयोग करना सीख जाते हैं ! काम के बोझ से त्रस्त माता-पिता भी अपने अपराध बोध की क्षतिपूर्ति के लिए बच्चों की हर जिद पूरी करने का प्रयास करते हैं जिसकी वजह से बच्चे जिद्दी और उद्दंड हो जाते हैं ! नौकरों के हाथ का बना खाना पसंद न आने पर वे बाहर से खाना ऑर्डर करके मँगवाने लगते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है ! बच्चों को न तो अच्छे संस्कार मिलते हैं, न स्वास्थ्यवर्धक भोजन, न ही उचित परवरिश !
रुग्ण मानसिकता वाले परिवारों में कामकाजी महिलाओं के चरित्र पर भी संदेह किया जाता है और ऑफिस के काम में देर हो जानी वजह से घर पर उनके काम का बोझ और अधिक बढ़ा दिया जाता है !
कामकाजी स्त्रियों को भी स्कूल या ऑफिस के लिए समय पर ही निकलना होता है ! जहाँ पुरुष को उनके हाथों में चाय नाश्ता, खाना, कपड़े आदि थमाए जाते हैं वहीं स्त्री को ये सारे काम परिवार के बाकी सदस्यों के लिए भी करना पड़ता है और अपने खुद के लिए भी ! अगर न कर पाए तो उसी दिन सबका मूड खराब हो जाता है !
यह समस्या तो विकट है लेकिन इसका समाधान यही है कि पति व परिवार के अन्य सदस्यों को अपनी सोच को थोड़ा बदलना चाहिए और कामकाजी स्त्री का पूरी तरह से सहयोग करना चाहिए ! आखिर वह अपने परिवार की बेहतरी के लिए ही तो इतनी मेहनत कर रही है ! अभी तक कई घरों में लोगों की यह मानसिकता बनी हुई है कि जो स्त्री नौकरी कर रही है तो वह शौकिया कर रही है ! उसका स्थान परिवार में हमेशा सबसे नीचा ही माना जाता है ! जो कि सर्वथा अनुचित है और गलत है ! खुद स्त्रियाँ भी ऐसा ही सोचती हैं इसीलिये न वो डट कर विरोध ही कर पाती हैं और न ही लोगों की सोच बदल पाती हैं ! अपनी स्वयं की सोच के चलते वे खुद भी पिसती जाती हैं और दोहरी जिम्मेदारियाँ उठा कर थकती भी हैं
, असंतुष्ट भी रहती हैं और अवसादग्रस्त भी हो जाती हैं !
इस समस्या का एक ही समाधान है कि परिवार के लोग स्त्री के साथ सहानुभूति और संवेदना के साथ व्यवहार करें ! उसके काम को भी गंभीरता से लें, घर के कामों में उसकी सहायता और सहयोग करें और उसकी समस्याओं का संज्ञान लेते हुए उसके साथ नरमी से पेश आएं और उसके साथ मीठा व्यवहार करें ! स्त्रियाँ स्वभाव से ही भावुक होती हैं और अगर उनकी उपेक्षा अवहेलना की जाती है तो स्थिति सम्हलने की जगह और बिगड़ जाती है ! यहाँ परिवार के सभी सदस्यों से समझदारी की अपेक्षा की जाती है ! 

साधना वैद  


Friday, August 8, 2025

बचपन का रक्षा बंधन

 



बचपन की बातें और बचपन की यादें जब भी दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती हैं मन गुलाबी-गुलाबी सा होने लगता है ! विशेष तौर पर जब किसी त्योहार से जुड़ी यादों का ज़िक्र हो तो न जाने कितनी खुशबुओं से घिरा पाने लगती हूँ खुद को !
कोई भी पर्व त्योहार हो मम्मी का आसन रसोई में सुनिश्चित होता था और घर भर में सुबह शाम पकवानों की खुशबू बरबस ही हम सबको खींच-खींच कर चौके में ले जाती जहाँ हर पकवान का भोग हम ही सबसे पहले लगाते !
सावन का महीना विशेष रूप से उल्लास और उत्साह को समेट लाता ! घर में बड़ी मजबूत रस्सी वाला झूला डाला जाता ! कारपेंटर से लकड़ी की बड़ी सी पटलियाँ बनवाई जातीं कि कम से कम दो लोग तो एक साथ झूले पर बैठ जाएं ! तीजों पर मम्मी हमारे दुपट्टे रंगतीं कभी चुनरी प्रिंट के कभी लहरिये के ! उनमें रात-रात भर जाग कर किरण गोटा लगातीं ! पत्तों वाली मेंहदी सिल बट्टे पर पीस कर मूँज की खरेरी खाट पर पुरानी दरी पर लिटा कर हमारे हाथों और पैरों में मेंहदी लगातीं और घर में सिंवई
, घेवर, खीर, अंदरसे की खुशबू तैरती रहती !
रक्षा बंधन के आने से पंद्रह दिन पहले से हलचल मची रहती ! राखियाँ दूसरे शहरों में रहने वाले चचेरे, तयेरे
, मौसेरे, ममेरे भाइयों को भी तो भेजनी होती थीं ! लिफ़ाफ़े में कौन सी राखी ठीक रहेगी और कौन सी सबसे सुन्दर भी हो यह छाँटने में ही बहुत समय लग जाता ! आठ दिन पहले ही सब पोस्ट हो जाएं यह कोशिश रहती थी ताकि सबको समय से मिल जाएं !
रक्षा बंधन के दिन सुबह से व्रत रखते थे कि जब तक राखी नहीं बाँध लेंगे मुँह नहीं जुठारेंगे ! भैया को सुबह से ही जल्दी-जल्दी तैयार होने के लिए मम्मी टोकती रहतीं, “अरे ! नहाए नहीं अभी तक ? जल्दी राखी बँधवा लो देखो तुम्हारी छोटी बहन सुबह से भूखी बैठी है !”
बड़ी खातिर होती थी उस दिन हमारी ! राखी बाँधने के बाद शगुन के पाँच रुपये मिला करते थे ! पाँच रुपये भैया देते पाँच रुपये बाबूजी ! कुछ अपनी गुल्लक से बचत किये हुए पैसे निकाल कर हम दूसरे ही दिन बाज़ार पहुँच जाते ! उन दिनों आजकल की तरह मँहगे-मँहगे सूट साड़ियों या उपहारों का फैशन नहीं था ! दो तीन रंगों की सलवारें हुआ करती थीं ! उनसे मैचिंग प्रिंट का कपड़ा लाकर घर में ही हमारे कुरते मम्मी खुद सिया करती थीं ! दर्जी से जनाने कपडे सिलवाने का चलन उन दिनों नहीं था ! बहुत बढिया कॉटन के प्रिंटेड कपड़े चार पाँच रुपये मीटर के आ जाया करते थे ! दो मीटर में हमारा कुर्ता बन जाता था ! कुछ पैसे मम्मी से भी मिल जाते ! तो बस रक्षाबंधन के अगले ही दिन कम से कम दो कुर्तों का कपड़ा आ जाता और हमारी बल्ले-बल्ले हो जाती !
तो ऐसे मनाते थे हम अपने त्योहार ! न थोड़ा सा भी शोर शराबा
, न कोई आडम्बर, न दिखावा लेकिन सुख, आनंद और संतुष्टि अपरम्पार !

चित्र - गूगल से साभार 


साधना वैद


Friday, August 1, 2025

दो - मुक्तक - सावन

 



जाने कैसे सावन में मेरा ये मन बँट जाता है !
‘पी’ घर ‘बाबुल’, ‘बाबुल’ के घर ‘साजन’ क्यों तरसाता है
बैठी हूँ बाबुल के अँगना झूल रही हूँ झूले पे 
पर कजरी का हर मुखड़ा प्रियतम की याद दिलाता है !  


सीला सावन, तृषित तन मन, दूर सजन 
गाते विहग, सुरभित सुमन, पुलकित पवन
सावन आया, रिमझिम फुहार, झूमी धरा  
भीगे नयन, व्याकुल है मन, आओ सजन !


चित्र  - गूगल से साभार 

साधना वैद