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Tuesday, October 14, 2008

और सोनू हार गया

    मासूम सोनू ने गहरे बोरवेल में अपनी जान गँवा दी। चार दिन तक गड्ढे के अन्दर् मौत और ज़िन्दगी के बीच लम्बी खींचतान चलती रही और गड्ढे के बाहर ग्रामीणों और अधिकारियों के बीच आरोपों प्रत्यारोपों का निष्प्रयोजन लम्बा सिलसिला चलता रहा। वहाँ लहरा पुरा में हज़ारों ग्रामवासी बोरवेल के पास और सम्पूर्ण देश में करोड़ों दर्शक टी वी के सामने चार दिन तक साँस रोके सोनू के गड्ढे से सही सलामत बाहर आ जाने की प्रतीक्षा करते रहे। लेकिन सभी की प्रार्थनायें निष्फल हो गयीं। किसी की ग़लती का ख़ामियाज़ा उस अबोध बालक ने अपने प्राणों की आहुती देकर चुकाया। आश्चर्य होता है जो ग्रामवासी चार दिन तक खाना पीना सोना सब भूल कर दिन रात बोरवेल के पास सोनू को स्वयम बाहर निकालने की अनुमति देने के लिये प्रशासनिक अधिकारियों से जूझते रहे वे दुर्घटना से पहले चार मिनिट का समय निकाल कर किसी पत्थर से उस एक डेढ़ फीट के गड्ढे को ढँक क्यों नहीं सके ? क्या हमारी ज़िम्मेदारी सिर्फ अपने घर के दरवाज़े के अन्दर तक ही सीमित है ? क्या हम और हमारे बच्चे सड़कों और रास्तों का उपयोग नहीं करते ? तो फिर हम वहाँ उनकी सुरक्षा के प्रति जागरूक क्यों नहीं हैं ? घर के दरवाज़े के बाहर घटी हर दुर्घटना के लिये क्यों हम सरकार के सिर पर ठीकरा फोड़ने के लिये तत्पर रहते हैं ? क्या नागरिकों का कोई दायित्व नहीं है ? आवश्यक्ता है खुद को चौकस और चुस्त दुरुस्त रखने की। जिस जगह बोरवेल खोदने का काम आरंभ हो उस मोहल्ले के निवासियों को स्वयम काम के ख़त्म होने तक सबकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये और ठेकेदार या खुदाई करने वाले काम बन्द करने के बाद गड्ढे को ठीक से ढँक कर गये हैं या नहीं इसकी देख रेख करनी चाहिये। जिस गाँव में बोरवेल खुदे वहाँ के प्रधान को खुद अपनी निगरानी में यह काम करवाना चाहिये। अन्यथा ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी और कई मासूम सोनू की तरह ज़िन्दगी की जंग हारते रहेंगे। नेताओं से मेरी अपील है कि वे भोले भाले ग्राम वासियों को उकसा कर सिर्फ भड़काने का काम ही ना करें उन्हें उनके कर्तव्यों के प्रति भी सचेत करें क्योंकि यह तो निश्चित है जो लोग ज़रा से इशारे पर आगजनी , पथराव ,  घेराव कर सकते हैं , घंटों के लिये जाम लगा सकते हैं , हड़ताल , आन्दोलन और संघर्ष कर सारी व्यवस्था को तहस-नहस कर सकते हैं वे सही दिशा निर्देश मिलने पर एक सुन्दर , स्वस्थ और सुरक्षित समाज का निर्माण भी कर सकते हैं।

साधना वैद 

Saturday, October 11, 2008

आस्था अभी मरी नहीं

हिलती हुई मुंडेरें हैं और चटके हुए हैं पुल,

 दुनिया एक चुरमुराई हुई सी चीज़ हो गई है। 

लड़खड़ाते हुए सहारे हैं और डगमगाये हुए हैं कदम,

लक्ष्य तक पहुँचने की चाह आकाशकुसुम छूने जैसी हो गयी है। 

खण्डहर हो चुकी इमारतें हैं और धराशायी हैं भवन,

मलबे के ढेर में ‘घरों’ को ढूँढने की कोशिश अब थक चली है। 

टूटा हुआ विश्वास है और डबडबाई हुई है आँख,

अंधेरे की डाकिन आशा की नन्हीं सी लौ को 

फूँक मार कर बुझा गयी है। 

बेईमानों की भीड़ है और ख़ुदगर्ज़ों का है हुजूम,

इंसानियत के चेहरे की पहचान कहीं गुम हो गयी है। 

लहूलुहान है शरीर और क्षतविक्षत है रूह,

दुर्भाग्य के इस आलम में सुकून की एक साँस तक जैसे दूभर हो गयी है। 

ऐसे में मलबे के किसी छेद से बाहर निकल 

पकड़ ली है मेरी उँगली नन्हे से एक हाथ ने

भर कर आँखों में भोला विश्वास,

और लिये हुए होठों पर एक कातर गुहार।

आस्था अभी पूरी तरह मरी नहीं!

हे ईश्वर! तुझे कोटिश: प्रणाम,

आस्था अभी पूरी तरह मरी नहीं।

 

साधना वैद 
 

Saturday, October 4, 2008

तुम क्या जानो

दुर्गा पूजा के पावन पर्व पर सम्पूर्ण नारी शक्ति को मेरी यह कविता समर्पित है।

तुम क्या जानो !

रसोई से बैठक तक

घर से स्कूल तक

रामायण से अखबार तक

मैंने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है

तुम क्या जानो!


करछुल से कलम तक

बुहारी से ब्रश तक

दहलीज से दफ्तर तक

मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है

तुम क्या जानो!


मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक

रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक

बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज की कॉकपिट तक

मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है

तुम क्या जानो!


जच्चा सोहर से जाज़ तक

बन्ना बन्नी से पॉप तक

कत्थक से रॉक तक

मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है

तुम क्या जानो!


सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये

बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये

निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उंगली मरोड़ने के लिये

मैंने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है

तुम क्या जानो!


आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर

प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर निखर कर

कंचन सी, कुन्दन सी अपरूप दपदपाती मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने

अजेय, अपराजेय, दिग्विजयी

मुझे इस रूप में भी तुम जान लो

पहचान लो!



साधना वैद


Wednesday, October 1, 2008

आह्वान

युग बदले, मान्यताएं बदलीं,

मूल्य बदले, परिभाषायें बदलीं,

नियम बदले, आस्थायें बदलीं।

नहीं बदली तो केवल आतंक, अन्याय और अत्याचार की हवा,

दमन और शोषण की प्रवृत्ति,

लोगों की ग़रीबी और भुखमरी,

बेज़ारी और बदहाली,

रोटी और मकान की समस्या,

इज़्ज़त और आत्म सम्मान के सवाल !

समय ने करवट ली है।

इतिहास के दृश्य पटल पर तस्वीरें बदली हैं।

छ: दशक पहले वाले दृश्य अब बदल गये हैं।

एक लंगोटी धारी, निहत्थे, निशस्त्र, आत्मजयी नेता के नेतृत्व के दिन अब लद गये हैं।

वह महान् कृशकाय नेता 

जिसने अहिंसा का सूत्र थाम

तोप बन्दूकधारी विदेशी शासकों के हाथों से

देश को स्वतंत्रता कि सौगात दिलवाई थी,

अब नही रहा।

अहिंसा और मानवता की बातें आज के सन्दर्भों में बेमानी हो गयी हैं।

आज अपने ही देश में 

अपने ही चुने हुए शासकों के सीनों पर

अपनी मांगों की पूर्ती के लिये

देश की संतानें बन्दूकों की नोक ताने हुए हैं।

आज बन्दूकें शासक के हाथों में नहीं याचक के हाथों में हैं।

गौतम और महवीर, गांधी और नेहरू के देश में

हिंसा और अराजकता का ऐसा प्रचन्ड ताण्डव देख

आत्मा कराहती है।

कल्पनाओं के कुसुम मुरझा गये हैं,

आंसुओं के आवेग से दृष्टि धुंधला गयी है,

कण्ठ में शब्द घुट से गये हैं,

लेखनी कुण्ठित हो गयी है,

पक्षाघात के रोगी की तरह बाहें

पंगु हो उठने से लाचार हो गयी हैं।

वरना आज मैं तुमसे यह तो अवश्य पूछती

मेरे बच्चों,

क्या तुमने कभी सोचा है अपनी संतानों के लिये

विरासत में तुम क्या छोड़े जा रहे हो?

तुम्हारी उंगलियां जो बन्दूकों के ट्रिगर दबाने में इतनी सिद्धहस्त हो चुकी हैं

कभी उनसे उन बेवा माँ बहनों के आँसू भी पोंछे होते

जिनके सुहाग तुमने उजाड़े हैं।

मशीनगन उठाने के अभ्यस्त इन हाथों से

कभी खेतों में हल भी चलाये होते

तो मानव रक्त से सिंचित ये उजड़े बंजर खेत फसलों का सोना उगलते

और भूख से बिलखते उन तमाम मासूम बच्चों के पेट भरते

जिनके पिता, भाई, चाचा तुम्हारी गोलियों का शिकार हो

उन अभागों को उनके हाल पर छोड़ 

चिरनिद्रा में सो गये हैं।

क़्या तुम्हें नहीं लगता इन अनाथ, बेसहारा, निराश्रित बच्चों के

अन्धकारमय भविष्य के उत्तरदायी तुम हो?

कभी सोचा है तुम्हारी अपनी ही संतानें 

तुमसे क्रूरता, नृशंसता और हिंसा की यही इबारत सीख 

तुम्हारे ही कारनामों से प्रेरित हो

कभी तुम्हारे ही सीनों की ओर 

अपनी बन्दूकों का रुख कर देंगी?

तब तुम उन्हें कोई सफाई नहीं दे पाओगे,

चाह कर भी अपने कलुषित अतीत के धब्बों को नहीं धो पाओगे,

अपने गुनाहों का कोई प्रायश्चित नहीं कर पाओगे

और अपनी उस घुटन, उस तड़प को बर्दाश्त भी नहीं कर पाओगे।

इसीलिये कहती हूं मेरे दुलारों,

अपनी इस पवित्र पुण्य मातृभूमि को इस तरह अपवित्र तो ना करो।

इसकी माटी को चन्दन की तरह 

अपने भाल पर लगा इसका मान बढ़ाओ,

इसे यूं बेगुनाहों के खून से लथपथ कर 

इसका अनादर तो मत करो।

कैसी विडम्बना है

इस उर्वरा पावन धरा पर

जहां सोना उगलते खेत और महकती केसर की क्यारियां होनी चाहिये थीं

आज वहां हर तरफ 

सफेद कबूतरों की लाशें बिखरी पड़ी हैं!

 
साधना वैद