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Friday, July 31, 2020

त्रिशंकु




घर में प्रवेश करते ही प्रतीक ने वेतन का पैकेट पत्नी प्रतिमा के हाथों में थमाया और हाथ मुँह धोने के लिए बाथरूम में घुस गया ! बाथरूम से बाहर आया तो देखा प्रतिमा रुपये गिन रही थी ! अचानक ही प्रतीक असहज सा हो गया !
“अम्माँ के कमरे में जा रहा हूँ ! चाय वहीं ले आना !” प्रतीक ने कमरे से बाहर निकलते हुए प्रतिमा से कहा !
अलमारी में रुपये रख कर प्रतिमा चाय बनाने के लिए किचिन में चली गयी !
अम्माँ की तबीयत बहुत खराब चल रही थी ! बाबूजी भी अस्सी के पार हो चुके थे ! उनका स्वस्थ या अस्वस्थ होना कुछ मायने नहीं रखता था ! वर्षों पहले रिटायर हो चुके थे ! गाँव में न अच्छे डॉक्टर्स थे न इलाज की कोई अच्छी व्यवस्था ! पत्नी की सेहत जब बहुत अधिक गिरने लगी तो इकलौते बेटे के पास दिल्ली आने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था उनके पास ! दिल्ली में इलाज अच्छा हो या न हो मँहगा ज़रूर बहुत था ! यहाँ आकर वे सिर्फ घर के ही होकर रह गए थे ! ना किसीको जानते पहचानते थे ना दिल्ली की जीवन शैली की उन्हें आदत थी ! बस हैरान परेशान बीमार पत्नी के सिरहाने बैठे रहते और उनकी पल पल गिरती दशा को देख व्याकुल होते रहते !
प्रतिमा को अपने छोटे से फ़्लैट में बीमार सास और ससुर का यूँ आ जाना ज़रा भी नहीं सुहाया लेकिन कर भी क्या सकती थी ! इकलौते बेटे बहू का फ़र्ज़ तो निभाना ही था चाहे हँस कर या रोकर !
चाय पीते-पीते बाबूजी ने बताया, “दिन में डॉक्टर आये थे बबुआ ! तुम्हारी अम्माँ को जो बार बार दौरा सा आ जाता है उसके लिए एम आर आई करवाने के लिए कह गए हैं ! कल न हो तो आधे दिन की छुट्टी ले लेना तो दिखा देना अपनी अम्माँ को !” डॉक्टर का पर्चा देख प्रतीक का चेहरा उतर गया था !
“आप फ़िक्र ना करें बाबूजी ! मैं करता हूँ कुछ इंतजाम !” कह कर प्रतीक अपने कमरे में आ गया ! कमरे में प्रतिमा का मूड बहुत उखड़ा हुआ था,”तनख्वाह के रुपयों में दो हज़ार रुपये कम निकले ! किसीको दिए हैं क्या ?”
“हाँ ! अम्माँ बाबूजी अचानक से आये थे ना पिछले महीने ! तब अम्माँ के टेस्ट्स वगैरह कराने के लिए शुक्ला जी से लिए थे दो हज़ार रुपये ! आज सबको तनख्वाह मिली तो उन्होंने माँग लिए ! देने तो थे ही ! मना कैसे करता !” प्रतीक की आवाज़ में मायूसी थी ! “अब कल फिर डॉक्टर ने एम आर आई कराने को बोला है ! कम से कम चार पाँच हज़ार कल खर्च हो जायेंगे !”
प्रतिमा का पारा आसमान पर चढ़ चुका था !
”मुझे कुछ नहीं पता है ! दो महीने से विशु ट्रैकिंग पर जाने के लिए पाँच हज़ार रुपये माँग रहा है ! हमारा भी इकलौता बेटा है ! पिछले महीने भी उसे समझा बुझा कर टाल दिया था मैंने ! इस बार नहीं होगा यह ! अम्माँ बाबूजी को गाँव की बस में बिठा दो कल ! ये रुपये मेरे विशु के लिए हैं ! इनको हाथ नहीं लगाने दूँगी मैं !”
प्रतिमा की आवाज़ तार सप्तक में गूँज रही थी !  प्रतीक सहम गया था !
“अरे क्या हो गया है तुम्हें ? धीरे बोलो ! बाबूजी सुन लेंगे तो क्या सोचेंगे !”
बाबूजी स्याह चेहरा लिये दरवाज़े पर ही खड़े थे ! अम्माँ के कमरे से काँपती थरथराती आवाज़ आ रही थी, “बबुआ रे !”
बाबूजी की छाती फटी जा रही थी ! उनके चहरे पर की स्याही के कुछ छींटे उड़ कर प्रतीक के चहरे पर भी फ़ैल गए थे लेकिन प्रतिमा इस सबसे असम्पृक्त अपने रौद्र रूप में चंडिका बनी खड़ी हुई थी !

चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद

Wednesday, July 29, 2020

खलल



न नींद न ख्वाब
न आँसू न उल्लास,
वर्षों से उसके नैन कटोरे  
यूँ ही सूने पड़े हैं !

न शिकवा न मुस्कान
न गीत न संवाद,
सालों से उसके शुष्क अधरों के
रिक्त सम्पुट
यूँ ही मौन पड़े हैं !

न आवाज़ न आहट
न पदचाप न दस्तक,
युग-युग से उसके मन के
इस निर्जन वीरान कक्ष में
कोई नहीं आया !

न सुख न दुःख
न माया न मोह
न आस न निरास
न विश्वास न अविश्वास  
न राग न द्वेष
हर ध्वनि प्रतिध्वनि से
नितांत असम्पृक्त एवं विरक्त
आजीवन कारावास का
दंड भोगता यह एकाकी बंदी
अपनी उम्र की इस निसंग
अभिशप्त कारा में
पूर्णत: निर्विकार भाव से  
न जाने किस एकांत साधना में
एक अर्से से लीन है ! 

ऐसे में उसकी तपस्या में
‘खलल’ डालने के लिए
किसने उसके द्वार की साँकल
इतनी अधीरता से खटखटाई है ?
यह किसकी पदचाप है जो 
शत्रु सेना के आक्रामक सैनिकों की 
उद्दण्डता लिए हृदय को 
भयाक्रांत कर देने पर आमदा है ?

ओह, तो यह तुम हो मृत्युदूत !
कह देना प्रभु से,
परम मुक्ति का तुम्हारा यह
अनुग्रह्पूर्ण सन्देश 
या यूँ कह लो कि तुम्हारा यह 
धमकी भरा आदेश
आज उस निर्विकारी ‘संत’ को
ज़रा भी प्रभावित नहीं कर पायेगा 
आज वह अपने अंतर की 
अतल गहराइयों में स्वयं ही
समाधिस्थ हो चुका है !
आज उसे किसी सहचर या 
किसी विमान की दरकार नहीं !



चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद  

Saturday, July 25, 2020

तिजोरी




कितने ही सपने जो सच न हुए कभी,
कितने ही गीत जो गाये नहीं गये कभी,
ढेर सारे किस्से जिनका अधूरा रहना ही तय था,
तमाम सारी हसरतों की, ख्वाहिशों की
पुरानी धुरानी जर्जर तस्वीरें
जिन्हें सालों से बरसते हुए आँसुओं ने
भिगो भिगो कर बदरंग कर दिया है !
मेरे दिल की तिजोरी में बस
इसी तरह का फालतू सामान बाकी बचा है
कई दिनों से इस तिजोरी की चाबी
हथियाने की जुगत में थे ना तुम ?
लो यह चाबी और ले जाओ
जो ले जाना चाहते हो
चाहो तो सब कुछ ले जाओ
और मुक्त कर दो मुझे इस बोझ से
कि अब दिल की दीवारें भी थक चली हैं
और यह बोझ अब मुझसे
ढोया नहीं जाता !



साधना वैद

चित्र - गूगल से साभार

Friday, July 24, 2020

बादल तेरे आ जाने से ....




बादल तेरे आ जाने से
जाने क्यूँ मन भर आता है,
मुझको जैसे कोई अपना,
 कुछ कहने को मिल जाता है !

पहरों कमरे की खिड़की से
तुझको ही देखा करती हूँ ,
तेरे रंग से तेरे दुःख का
अनुमान लगाया करती हूँ !
यूँ उमड़ घुमड़ तेरा छाना
तेरी पीड़ा दरशाता है ,
बादल तेरे आ जाने से
जाने क्यूँ मन भर आता है !

तेरे हर गर्जन के स्वर में
मेरी भी पीर झलकती है,
तेरे हर घर्षण के संग-संग
अंतर की धरा दरकती है !
तेरा ऐसे रिमझिम रोना
मेरी आँखें छलकाता है ,
बादल तेरे आ जाने से
जाने क्यूँ मन भर आता है !

कैसे रोकेगा प्रबल वेग
इस झंझा को बह जाने दे ,
मत रोक उसे भावुक होकर
अंतर हल्का हो जाने दे !
धरिणी माँ का आकुल आँचल
व्याकुल हो तुझे बुलाता है ,
बादल तेरे आ जाने से
जाने क्यूँ मन भर आता है !

हैं यहाँ सभी तेरे अपने
झरने, नदिया, धरती, सागर ,
तू कह ले इनसे दुःख अपना
रो ले जी भर नीचे आकर !
तेरा यूँ रह-रह कर रिसना
इन सबका बोझ बढ़ाता है
बादल तेरे आ जाने से
जाने क्यूँ मन भर आता है !

तेरे आँसू के ये मोती
जब खेतों में गिर जायेंगे ,
हर एक फसल की डाली में
सौ सौ दाने उग जायेंगे !
धरती माँ का सूखा आँचल
तेरे आँसू पी जाता है !
बादल तेरे आ जाने से
जाने क्यूँ मन भर आता है ,
मुझको जैसे कोई अपना
   कुछ कहने को मिल जाता है !  

साधना वैद

Monday, July 20, 2020

विकास या विनाश



वो कभी शहर से गुज़रे तो पूछेंगे
अरे सुलू !
यहीं हुआ करता था न आशियाँ हमारा
आम के इस घने छायादार पेड़ के नीचे ?
कितने परिंदे चह्चहाते थे हरदम और
हमारी अनवरत बातों में
अपना भी मीठा सुर मिला कर
कोयल कितने मीठे सुर में गाती थी,
कच्ची अमिया का स्वाद चखने के लिए
कितने तोते झुण्ड बना कर आ जाते थे
और तुम सुलू !
कैसी ललचाई नज़रों से
गदराई अमिया को देख कर खीझती थीं
ये तोते चोंच मार कर सारी अमिया
ऊपर पेड़ पर ही खराब कर देते हैं  
ये नहीं कि दो चार नीचे भी गिरा दें !
फिर मैं कभी गुलेल से ,कभी पत्थर से
तो कभी पेड़ पर चढ़ कर तुम्हारे लिए
झोली भर अमिया तोड़ दिया करता था !
आम का वह पेड़ कहाँ गया सुलू ?
विकास के नाम पर कट गया क्या ?
वो कभी शहर से गुज़रे तो पूछेंगे
बताओ ना सुलू
छोटे छोटे क्वार्टर्स की लम्बी सी कतार में यहाँ
एक घर तुम्हारा भी तो हुआ करता था न
जिसके दरवाज़े पर आम के कोमल मुलायम
हरे हरे ताज़े पत्तो की सुन्दर सी वन्दनवार
तुम हर रोज़ अपने हाथों से लगाया करती थीं
और जिसके आँगन में बीचों बीच तुम हर सुबह
बहुत ही चिताकर्षक रंगोली बनाया करती थीं
रात को उस रंगोली पर ढेर सारे दीपक
जला कर तुम रख दिया करती थीं
जिसके प्रकाश में वह रंगोली और भी सुन्दर
और भी मनोहारी दिखने लगती थी !
घर की दहलीज पर पाँव रखने से पहले ही 
तुम्हारे आँगन में खिले
मोगरा, बेला और गुलाबों की खुशबू
माँ की बनाई सौंधी रसोई की
खुशबू के साथ मिल कर  
मुझे दीवाना बना दिया करती थी !
कहाँ गया वो स्वर्ग सा छोटा सा घर सुलू ?
यहाँ तो अब कई मंज़िला मॉल
आसमान से बातें कर रहा है !
वो कभी शहर से गुज़रे तो पूछेंगे
बताओ ना सुलू
गहन अवसाद के पलों में
अपनी स्मृतियों में बसी जिन पनाहगाहों में
मैं पल भर के लिए सुकून ढूँढा लिया करता था
मेरी यादों के वो खूबसूरत आशियाने
किसने मिटा दिये सुलू ?
वो कभी शहर से गुज़रे तो पूछेंगे
यह ‘विकास’ है या ‘विनाश’?
तो मैं उन्हें क्या जवाब दूँगी ?

साधना वैद   



Friday, July 17, 2020

मैं धरा हूँ


मैं धरा हूँ
रात्रि के गहन तिमिर के बाद
भोर की बेला में
जब तुम्हारे उदित होने का समय आता है
मैं बहुत आल्हादित उल्लसित हो
तुम्हारे शुभागमन के लिए
पलक पाँवड़े बिछा
अपने रोम रोम में निबद्ध अंकुरों को
कुसुमित पल्लवित कर
तुम्हारा स्वागत करती हूँ !
तुम्हारे बाल रूप को अपनी
धानी चूनर में लपेट
तुम्हारे उजले ओजस्वी मुख को
अपनी हथेलियों में समेट
बार बार चूमती हूँ और तुम्हें
फलने फूलने का आशीर्वाद देती हूँ !
लेकिन तुम मेरे प्यार और आशीर्वाद
की अवहेलना कर
अपने शौर्य और शक्ति के मद में चूर
गर्वोन्नत हो
मुझे ही जला कर भस्म करने में
कोई कसर नहीं छोड़ते !
दिन चढ़ने के साथ-साथ
तुम्हारा यह रूप
और प्रखर, और प्रचंड,
रौद्र और विप्लवकारी होता जाता है !
लेकिन एक समय के बाद
जैसे हर मदांध आतातायी का
अवसान होता है !
संध्या के आगमन की दस्तक के साथ
तुम्हारा भी यह
रौरवकारी आक्रामक रूप
अवसान की ओर उन्मुख होने लगता है
और तुम थके हारे निस्तेज
विवर्ण मुख
पुन: मेरे आँचल में अपना आश्रय
ढूँढने लगते हो !
मैं धरा हूँ !
संसार के न जाने कितने कल्मष को
जन्म जन्मांतर से निर्विकार हो
मैं अपने अंतर में
समेटती आ रही हूँ !
आज तुम्हारा भी क्षोभ
और पश्चाताप से आरक्त मुख देख
मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही हूँ !
आ जाओ मेरी गोद में
मैंने तुम्हें क्षमा किया
क्योंकि मैं धरा हूँ !




साधना वैद

Saturday, July 11, 2020

प्रकृति - हाइकु



मौन मयंक
हर्षित उडुगण
धरा विमुग्ध


गिरि चोटी से
बहे पिघल कर
फेनिल दुग्ध


सूर्य रश्मियाँ
रचें जल कण से
इन्द्रधनुष


विस्मित सृष्टि
पुलकित प्रकृति
मुग्ध मनुष्य


यादें सुलगीं
पिघला दिनकर
सुलगा मन


रोई वसुधा
बादल बन कर
बरसे घन


खिले सुमन
सुरभित पवन
विहँसी उषा


लपेट बाना
गहन तिमिर का
चल दी निशा


हुई सुबह
जगमग हो गयी
संसृति सारी


नीले नभ में
कलरव करतीं
चिड़ियाँ प्यारी


शाम हो गयी
समाधि ली जल में
क्षुब्ध रवि ने


किया उदास
अनुरक्त धरा को
सूर्य छवि ने


घिरी घटाएं
बरसे जल कण
कोयल बोली


मस्त हवा ने
वन उपवन में
खुशबू घोली


नाच रहे हैं
ठुमक ठुमक के
मस्त मयूर


देख रहे हैं
वनचर नभ में
गिरा सिन्दूर



साधना वैद

Thursday, July 9, 2020

शरणागत




कोरोना महामारी क्या आई गाँवों से रोज़गार की तलाश में आये मजदूरों के पैरों के नीचे से ज़मीन और सर के ऊपर से छत ही छिन गयी ! कारखानों में ताले पड़ गए ! रहने का कोई ठौर ठिकाना न रहा और पेट की भूख मिटाने के लिए जब अंटी में पैसे भी बाकी न रहे तो दीनू ने सोचा चलो गाँव ही चले जाएँ ! उसीके गाँव के और भी कई मजदूर वापिस गाँव को लौट रहे थे ! सोचा उन्हीं के साथ वह भी निकल जाएगा ! यहाँ तो बीबी बच्चों के रहने खाने का कोई बंदोबस्त ही नहीं रहा ! गाँव पहुँच जायेंगे तो पेट भरने की फिकर तो कम से कम नहीं रहेगी और कुछ दिन अम्मा बाबू के साथ भी रह लेगा ! गाँव में अपने छोटे से खेत में जो थोड़ी बहुत फसल होती वह परिवार के गुज़ारे के लिए काफी हो जाती थी ! इन दिनों तो फसल की कटाई का काम चल रहा होगा खेतों में ! बाबू को भी तो लॉक डाउन के चलते काम वाले नहीं मिल रहे होंगे ! कैसे अकेले सम्हालेंगे सब कुछ ! वह गाँव पहुँच जाएगा तो फसल की कटाई में बाबू की मदद कर देगा !
दीनू की घरवाली सुरतिया को भी अच्छा लगा यह विचार लेकिन वह पशोपेश में थी कि दो दो छोटे बच्चों के साथ इतना लंबा सफ़र पैदल कैसे तय होगा ! फिर यही सोच कर तसल्ली कर ली कि जो सबके साथ होगा वही उनके साथ भी होगा ! दोनों ने झटपट अपना सारा सामान बाँधा और बच्चों का हाथ थाम गाँव के सफ़र पर चल दिए ! सात साल का सुरेश उत्साह से भरा दौड़ दौड़ कर आगे चल रहा था लेकिन तीन साल के गणेश को गोदी में लेकर सुरतिया के लिए जल्दी जल्दी कदम उठाना मुश्किल हो रहा था ! दीनू के पास तो कपडे लत्तों के संदूक के अलावा घर गृहस्थी के ज़रूरी ज़रूरी सामान का बोझा ही बहुत अधिक था ! कहीं किसीके पास रखने का ठिकाना नहीं था तो साथ ही ले आये ! एक ख़याल कहीं यह भी था दिल में कि अबकी बार गाँव में ही काम काज खोजने की कोशिश करेगा दीनू ! शहर में दर ब दर की ठोकरें खाने अब वह नहीं आयेगा !
कई घंटों से चलते चलते वे लोग थकान भूख और प्यास से बेहाल हो रहे थे ! साथ वाले श्रमिक काफी आगे निकल गए थे ! छोटे बच्चों के कारण इनकी रफ़्तार धीमी थी !  थोड़ा बहुत चना चबैना जो साथ लेकर चले थे अब ख़त्म हो चुका था ! पानी की बोतल भी खाली हो चुकी थी ! सुरतिया का थकान से बुरा हाल था ! घिसी पिटी चप्पल की पतली तली धधकती ज़मीन की गर्मी से ज़रा सा भी बचाव नहीं कर पा रही थी ! उसके पैर जले जा रहे थे ! गणेश थक कर सो गया था तो और भारी हो गया था ! सुरेश भी दीनू का हाथ थाम गोदी में लेने की गुहार लगा रहा था ! भूख और प्यास से सबका बुरा हाल था ! लेकिन सब चुपचाप बढ़े जा रहे थे ! जानते थे कि खाने की पोटली खाली हो चुकी है ! दीनू का मन दुःख से भरा हुआ था ! सुरतिया निढाल हो चुकी थी ! जब टाँगों ने आगे बढ़ने से बिलकुल इनकार कर दिया तो वह गणेश को लेकर सड़क किनारे की एक पुलिया पर बैठ गयी !
‘अब और न चल सकत हैं सुरेस के बापू ! कहीं ते पानी मिल जाए तो पिल्बाय दो ! छोरा को भी मुँह उतर रऔ है  !”
दीनू समझ रहा था ! सड़क पर कोई वाहन भी तो आता जाता दिखाई नहीं दे रहा था ! ना कोई पानी की प्याऊ या हैण्ड पम्प ही दिख रहा था ! कहाँ से लाये पानी ? उसने खोजी नज़रों से दूर तक निगाह दौड़ाई ! कोई बस्ती आस पास थी शायद ! दूर सड़क से लगा हुआ एक बड़ा सा मकान दिखाई दे रहा था ! कुछ आस बँधी ! कम से कम पानी तो मिल जाएगा यहाँ !
“नेक सुस्ता ले थोड़ी देर सुरतिया ! बस थोड़ा सा और चल ले ! देख उतै एक बड़ो सो मकान दिख रऔ है ! वहाँ पानी तो ई मिल जाएगो बच्चन को !”
सुरतिया ने आस भरी नज़रों से मकान की ओर देखा और हिम्मत बाँध कर उठ खड़ी हुई ! मन में कहीं उम्मीद बँधी बड़े लोगों का घर दीखता है शायद कुछ खाने को भी मिल जाए ! बच्चों ने सुबह बची खुची डबल रोटी के ही दो चार टुकड़े निगल लिए थे चाय के साथ ! भूख और धूप से चेहरा कैसा कुम्हला गया है ! सुरतिया की आँखों में पानी आ गया जिसे उसने दीनू की नज़र बचा कर अपनी धोती के पल्लू से सुखा लिया !
किसी बड़े आदमी की कोठी मालूम पड़ती थी ! बड़ा सा हरा भरा लॉन था ! गेट के पास एक छोटा सा सर्वेंट क्वार्टर भी दिखाई दे रहा था ! दीनू ने हिम्मत करके गेट का लैच खोल कर अन्दर कदम रखा ! बाहर की भीषण गर्मी से बचने के लिए शायद सब घरों के अन्दर बंद थे ! दीनू के पीछे पीछे सुरतिया भी अन्दर चली आई ! धड़कते दिल से दीनू ने दरवाज़े की घंटी दबा दी !
थोड़ी देर में दरवाज़े की बमुश्किल दो इंच की फाँक खुली और चहरे पर मास्क और आँखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ाए एक अधेड़ महिला ने बाहर झाँका ! “कौन है ? क्या काम है ?’” फिर दीनू और दीनू के पीछे सुरेश और गणेश को सम्हालती सुरतिया को देख कर वह एकदम आपे से बाहर हो गयी !
“कौन हो तुम लोग ? अन्दर कैसे आये ? यह वाचमैन क्या करता रहता है ? कोई भी घर में घुसा चला आता है इसे कुछ पता ही नहीं चलता ! चलो चलो ! पहले तो गेट से बाहर जाओ ! जो कुछ कहना है वहाँ से कहो !”
अकस्मात इस फायरिंग से दीनू और सुरतिया घबरा गए थे ! दीनू ने बड़ा साहस बटोर कर रिरियाते हुए कहा, “माँजी, छोटे छोटे बच्चा हैं साथ में ! बड़ी दूर से आये हैं ! बड़ी प्यास लगी है थोड़ा पानी मिल जाता तो बड़ी किरपा होती !”
महिला माथे पर त्यौरियाँ चढ़ा ज़ोर से दहाड़ी,  “राम सिग राम सिंग !“ हाथ में पकड़े हुए फोन से उसने कोई नंबर मिलाया ! एकदम से आउटहाउस का दरवाज़ा खुला और डंडा हाथ में सम्हाले वाचमैन भागता हुआ आया !
“आपने बुलाया मेम साब ?“
“क्या करते रहते हो तुम ? कोई भी घुसा चला आ रहा है घर में तुम्हें कुछ पता ही नहीं चलता ! निकालो बाहर इनको ! अभी सारा घर सेनीटाईज करवाया था थोड़ी देर पहले ! जाने कहाँ से चले आ रहे हैं पूरा घर सर पर उठाये ! और सीधे अन्दर तक आ गए ! तुम क्या कर रहे थे ? तुमको कैसे पता नहीं चलता है कुछ भी ? सब गंदा कर दिया ! हटाओ इन्हें यहाँ से !”
रामसिंग ने दीनू और सुरतिया को बाहर जाने का इशारा किया !
“सॉरी मेम साब गलती हो गयी ! आप आराम करिए मैं देखता हूँ इनको !” और दरवाज़ा खटाक से बंद हो गया अन्दर से ! प्यास से बेहाल सुरतिया की आँखों से आँसू बहने लगे ! सुरेश भी माँ के घुटनों से लिपट कर बिलख पडा ! दीनू अपमानित सा खडा हुआ था ! इतने बड़े घर की शरण में आया था सोचा था घड़ी दो घड़ी आराम कर लेंगे बाहर ही बरामदे में फिर चल पड़ेंगे आगे ! धूप कम हो जायेगी तो बच्चों का जी ठिकाने आ जाएगा ! लेकिन यहाँ तो पानी भी ना मिला वह तो थोड़े बहुत खाने की आस लगाए था ! उसका चेहरा उतर गया !
राम सिंग से इन लोगों की दुर्दशा देखी नहीं गयी ! वह सबको अपने कमरे में ले गया ! कमरे में पंखा चल रहा था ! इन सबको थोड़ी राहत मिली लेकिन भूख प्यास थकान और अपमान ने उनकी बोलती बंद कर दी थी !
“कहाँ जा रहे हो इतनी धूप में छोटे छोटे बच्चों के साथ ?” पानी का जग दीनू की और बढाते हुए राम सिंग ने पूछा ! राम सिंग से जग लेते हुए दीनू की आँखों में कृतज्ञता छलक उठी ! थैले से गिलास निकाल सबसे पहले उसने सुरेश को पानी दिया ! फिर सुरतिया की ओर बढ़ाया ! सबसे आखीर में उसने ओक से ही पानी पी लिया ! गणेश अभी भी बेसुध सो रहा था ! रामसिंग की सहानुभूति ने दीनू को द्रवित कर दिया ! राम सिंग के सामने उसने अपनी सारी व्यथा कथा उड़ेल दी ! पहले कोरोना की मार, कारखानों की तालाबंदी, खुद की बेरोज़गारी का आलम और फिर जब रहने और खाने पीने का भी कोई बंदोबस्त नहीं रहा तो कैसे उसने अपने गाँव लौटने का फैसला लिया सब कहानी उसे सुना दी !
पानी पीकर जी कुछ शांत हो गया था ! पंखे की हवा से कुछ शान्ति मिल गयी थी ! उसने उठने का उपक्रम किया ! लेकिन तभी राम सिंग ने उसे रोक लिया,
“अभी रुक जाओ थोड़ी देर ! घंटा दो घंटा आराम कर लो फिर चले जाना धूप भी उतर जायेगी तब तक !’”
दीनू को बाल बच्चों की भूख की चिंता सता रही थी ! राम सिंग से कैसे कहता यह बात ! लेकिन पंखे की हवा में आँखें तो उसकी भी मुँदी जा रही थीं !
“नहीं भैया ! बड़ो उपकार तुम्हारो ! पानी मिल गऔ तो प्रान मिल गए जैसे ! निकल जइहैं धीरे धीरे तो संजा तक कोई न कोई ठिकाने पहुँच ही जइहैं  ! चल सुरतिया ! ले अबकी तू ये संदूक धर ले मूड़ पे गनेसवा को मैं ले लउंगो !”
“अरे ठहरो भाई !” रामसिंग ने उसे प्यार के साथ कंधे से पकड़ कर बिठा दिया ! फिर दूसरे कमरे से एक थाली में जो कुछ भी खाने पीने का सामान उसकी रसोई में रखा हुआ था वह सब उठा लाया !
“अकेला हूँ यहाँ कोई बनाने खिलाने वाला नहीं है ! वरना तुम्हें भूखा नहीं जाने देता ! जो कुछ है वह बच्चों को खिला दो ! अच्छा हुआ आज केले बेचने वाला आ गया तो ले लिए थे मैंने ! कभी कुछ बनाने का मन ना हो तो केले से बड़ा सहारा हो जाता है !“ रामसिंग ने हँसते हुए कहा ! अब तक दीनू भी नॉर्मल होता जा रहा था ! थाली में ६-७ केले, एक बड़ी ब्रेड, एक अचार की शीशी और उबले आलू की सूखी सब्जी रखी हुई थी ! पोलीथीन की एक थैली में कुछ मीठे बिस्किट भी थे ! दीनू संकुचित हो गया !
“भैया, ऐसो लगत है आप तो सबई उठा लाये चौका से हमरे काजे ! फिर आप का खाई हो संजा को ?”
“अरे तुम इसकी फिकर ना करो ! हम तो यहीं रहते हैं हम सब इंतजाम कर लेंगे ! पहले तुम लोग खा लो ! मैं देखता हूँ कुछ और मिल जाए तो !”
“अरे नहीं भैया ! जे तो भोत है हम सबके काजे ! आप बैठो अब ! हुई जईहै सबको काम इसीमें !” शरमाते सकुचाते सबने भर पेट खाना खा लिया ! सुरतिया खाना खाने के बाद एक कोने में लुढ़क गयी थी ! दीनू राम सिंग के साथ अपने सुख दुःख बाँट रहा था ! सुरेश गणेश के साथ मस्ती कर रहा था ! राम सिंग को अपने कमरे में होने वाली यह रौनक अच्छी लग रही थी कि उसके फोन की घंटी घनघना उठी !
“जी मेम साब आया अभी !”
मालकिन का फोन आ गया था ! दरवाज़ा खुलते ही सुरेश ने भी बाहर दौड़ लगा दी ! मेम साहब की दहाड़ फिर सुनाई दी !
“राम सिंग, ये भिखमंगे यहाँ क्या कर रहे हैं ! गये नहीं अभी तक ? क्या करते रहते हो तुम ? कोई काम नहीं होता तुमसे ठीक से !”
दीनू का कलेजा काँप गया कि तभी राम सिंग की आवाज़ आई !
“मेम साब ! हमारी शरण में आये थे तो ऐसे कैसे भगा देता ! प्यासे को पानी और भूखे को रोटी ना दो तो अगले कई जन्मों तक भगवान् हमें भी भूखा प्यासा रखता है धरती पर ऐसा शास्त्रों में लिखा है ! एक बार कथा सुनाते वक्त पंडित जी ने बताया था गाँव में !”
दीनू ने अपनी रिसती हुई आँखों पर गमछा रख लिया था !


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद