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Friday, December 30, 2016

मुदित मन से आ रहा नव वर्ष है



हास है, उल्लास है, उत्कर्ष है
मुदित मन से आ रहा नव वर्ष है !

हो रहा है अवतरण नव वर्ष का
और है अवसान बीते साल का
प्रफुल्लित कण-कण प्रकृति का हर्ष से
पर्व अनुपम है सकल संसार का ! 

दर्द दुःख की कालिमा से मुक्त हो
उदित हो सूरज क्षितिज के भाल पे
उल्लसित हो थिरकने वसुधा लगे
मुग्ध हो संसृति प्रकृति की चाल पे !

बह चले गंगा पराई पीर से
पिघलता हो मन किसी बदहाल पे
जंग और आतंक की बातें न हों  
शुभाशंसा हो लिखी हर भाल पे !

शुद्ध हो मन आचरण भी शुद्ध हो
प्रेम और करुणा से अंतस हो भरा
रख सकूँ मरहम किसी के ज़ख्म पर
कोटि सुख पर दर्द को मैंने वरा !

है हरा हर ज़ख्म जो सौगात में
साल बीता दे गया धर थाल में
कब तलक रोते रहेंगे हम उन्हें
हमें तो जीना ही है हर हाल में !

भूल सब संकल्प यह मन में करें
   हर कदम आगे बढ़ें दृढ़ चाल में    
है मिटाना बैर और नफ़रत हमें
प्रेम मय संसार हो नव साल में !


इसी मंगलकामना के साथ आप सभी को नूतन वर्ष २०१७ की हार्दिक बधाई एवं अशेष शुभकामनायें !


साधना वैद

Wednesday, December 28, 2016

अलविदा प्यारे सम्राट



अलविदा प्यारे सम्राट

मिलेगा न तुझसा कोई दोस्त प्यारा  
अकेले पलों का तू ही था सहारा
न होंगी किसीसे अब बातें हमारी
कटेगा न काटे समय अब हमारा !

तू था घर की रौनक कलेजे का टुकड़ा
तेरे जाने से घर लगे उजड़ा-उजड़ा
हैं मायूस सब सबकी आँखें हैं गीली
कहें किससे मन में छिपा अपना दुखड़ा !

चमकती थी आँखें हमें सूँघते ही
थिरकते थे अंग एक पुचकार से ही
न होगा कभी ऐसा स्वागत हमारा
हिलाता था दुम दूर से देखते ही !

न आएगा अब सुन के आवाज़ कोई
न भौंकेगा हल्की सी आहट पे कोई
कहाँ पायेंगे तुझसा न्यारा कहीं हम
न माँगा कभी हमसे उपहार कोई !

है सूना हर एक कोना घर का तेरे बिन
न भाएगा अब कुछ भी खाना तेरे बिन
तुझे ही नज़र ढूँढती हर जगह है
तू था जैसे साया मेरे संग पल छिन !

फिर क्यों चल दिया उठ के बेगानों जैसे !
न सोचा कि तुझ बिन रहेंगे हम कैसे
तू था सबसे प्यारा खिलौना हमारा
तेरे बिन जियेंगे मरेंगे हम कैसे !

न मुड़ के ही देखा खफा हो गया तू
बिना कुछ भी बोले विदा हो गया तू
न भूलेंगे हम तुझको पल के लिए भी
रहेगा हमारे दिलों में सदा तू !

अलविदा गुड बॉय !




साधना वैद

  

Sunday, December 25, 2016

अवमूल्यन



नहीं आये न तुम !
अच्छा ही किया !
जो आते तो शायद
निराश ही होते ! 
कौन जाने मैं पहले की तरह
तुम्हारी आवभगत
तुम्हारा स्वागत सत्कार
तुम्हारी अभ्यर्थना  
कर भी पाती या नहीं ?
आखिरकार इंतज़ार भी तो
निरंतर कसौटी पर कसा जाकर
कभी न कभी  
दम तोड़ ही देता है !
आशा की डोर भी तो
कभी न कभी
कमज़ोर होकर
टूट ही जाती है और
जतन से सहेजी हुई
माला के सारे मनके
एक ही पल में भू पर
बिखर कर रह जाते हैं !
पथ पर टकटकी लगाए
आँखे भी तो थक कर
कभी न कभी  
पथरा ही जाती हैं और
परस्पर पत्थरों के मध्य
भाव सम्प्रेषण की
सारी संभावनाएं फिर 
शून्य हो जाती हैं !
और अनन्य प्रेम की
सुकोमल पौध में भी
बारम्बार गुज़रते मौसमों की
बेरहम चोटों से
कभी न कभी
नाराज़गी की दीमक
लग ही जाती है
जो कालान्तर में उसे
समूल नष्ट कर जाती है !
अब इस खंडहर में
इन अनमोल भावनाओं के  
सिर्फ चंद अवशेष ही बाकी हैं !
जो शायद किसी को भी
प्रीतिकर नहीं होंगे !
कम से कम
तुम्हें तो हरगिज़ नहीं !
क्योंकि अपना ही ह्रास
अपना ही अवमूल्यन
अपना ही क्षरण
भला कोई कैसे
स्वीकार कर सकता है !
इसलिये
वक्त की फिरी हुई
नज़रों के इस वार से
जो तुम बचना चाहते हो
तो इस वीरान खंडहर में
अब फिर कभी
भूले से भी न आना
वही ठीक रहेगा !

साधना वैद    

Monday, December 19, 2016

कैसे इनके जाल से बच पायेगा देश



चलो आज परिचय करें, करें ज़रा कुछ गौर
कर्णधार कैसे मिले, जनता के सिरमौर !

कितना ये सच बोलते, कितनी करते फ़िक्र
कितना इनकी बात में, देश काल का ज़िक्र !

कथनी करनी में बड़ा, अंतर है श्रीमान
जिह्वा पर भगवान हैं, अंतर में शैतान !

मिलते रंगे सियार हैं, धर साधू का वेश
कैसे इनके जाल से, बच पायेगा देश !

बच के रहना भाइयों, शातिर को पहचान
इनके फेंके जाल में, फँसना है आसान !

झूठे वादों का बहुत, इनको है अभ्यास
इनकी बातों पर कभी, मत करना विश्वास !

लुटा रहे हैं गड्डियाँ, जी भर कर उपहार
मिल जाए सत्ता इन्हें, किसी तरह इस बार !

है चुनाव के वास्ते, इनका यह अवतार
फिर तुम इनको ढूँढना, गली-गली हर द्वार !

थोड़ी सी खुशियाँ अभी, फिर भारी नुक्सान
खुद ही करना सीख लो, दुश्मन की पहचान !

झूठे हैं नेता सभी, उथली इनकी सोच
लोकतंत्र के पैर में, इसीलिये है मोच !

जैसे उगते सूर्य का, होता है अवसान
नेता जी के तेज का, अंत निकट लो जान !

साधना वैद  


Sunday, December 18, 2016

प्रकोपी सर्दी



दूर है सूर्य 
पथराई वसुधा 
आ जाओ पास 

थमा जीवन 
धीमी हुई रफ़्तार 
सर्दी के मारे 

पेड़ों ने किया 
बर्फ से उबटन 
श्वेत सर्वांग 

बर्फ का फर्श 
बिछाया वसुधा ने 
रवि के लिए 

इंतज़ार में 
हिम हुई धरिणी 
आ जाओ रवि 

पथ पे बर्फ 
फिसलने का डर
रुका काफिला 

अस्फुट स्वर 
जमे हुए हैं अंग 
प्रकोपी सर्दी 

कर्म ही धर्म 
मुस्तैद हैं जवान 
देश रक्षा में 

सूनी सड़कें 
टिमटिमाते बल्ब 
घना कोहरा 

दुबके पंछी 
माँ के पंखों के नीचे 
ठण्ड के मारे 

मारक सर्दी 
अदरक की चाय 
देती आराम 

ठिठुरे लोग 
ढाबे की गर्म चाय 
जले अलाव 

काँँपते हाड़
ठिठुरता बदन 
बजते दाँत 


सर्दी की भोर 
क्षितिज पे उभरा 
जकड़ा सूर्य 


साधना वैद 

Wednesday, December 14, 2016

मोक्ष - लघुकथा




 स्वप्नगंधा साहित्यिक मंच आपका हार्दिक स्वागत करता है। और अब समय है हमारी प्रतियोगिता के निर्णय का, प्रतियोगिता में सारी ही लघुकथायें बहुत अच्छी आई थी।पर हमारी मजबूरी है की हमें तीन लघुकथा ही चुननी थी। चुनी गई तीनों लघुकथाओं का कोई जवाब नहीं है।तीनों लघुकथाओं के गहन अध्ययन के बाद आदरणीय Mahendra Bhishma जी ने Sadhana Vaid की लघुकथा मोक्ष को सर्वश्रेष्ठ लघुकथा घोषित किया है अगली प्रतियोगिता का चित्र साधना जी देंगी ।और तीनों चुनी गई लघु कथाएं हमारी पत्रिका वैष्णव-गुण का हिस्सा भी बनेंगी।

मोक्ष  -  लघुकथा

अंतत: मुझे मेरी मंज़िल मिल ही गयी ! सारी उम्र इस तट से उस तट तक मैं सरिता की उत्ताल तरंगों पर दौड़ती रही ! कभी टनों सामान लेकर तो कभी अनगिनत यात्रियों को लेकर ! कभी युवाओं के लिए नौकायन का साधन बनी तो कभी दुर्भाग्य से नदी की धार में बहे हत्भागे प्राणियों को ढूँढने का ज़रिया बनी ! पतवार थामने वाले हाथ बदलते रहे और मैं किसी न किसी वजह से लहरों पर डोलती रही ! अहर्निश, अथक, अविराम ! जिस दिन दीनू बढ़ई ने अपने सुगढ़ हाथों से तैयार कर मुझे भीखू माँझी को सौंपा और भीखू ने अपनी रोज़ी रोटी के लिए मुझे नदी में उतारा उस दिन से आज तक आराम क्या होता है यह मैंने एक पल को भी न जाना ! दिन में भीखू की चाकरी की तो रात में हर उस नये मालिक की जिसको भीखू ने मुझे किराए पर दिया ! कई बार तो मेरी क्षत विक्षत देह को बिना पर्याप्त उपचार के ही भीखू ने खूब रगड़ा !
शायद इंसान की यही फितरत होती है ! सुनते हैं वृद्ध और अशक्त हो जाने पर ये अपने माता पिता को भी वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं ! वे माता पिता जिन्होंने उन्हें जन्म दिया, परवरिश की, पढ़ाया लिखाया, जीवन की धूप-छाँह में उनकी हिफाज़त की, उनकी खुशी के लिए अपने सारे सुख निमिष मात्र में कुर्बान कर दिए ! जब उन्हें ही ये बच्चे घर से निकालने में देर नहीं लगाते तो मैं तो एक नाव हूँ !
अच्छा हुआ जो कल तूफ़ान आया ! जर्जर इंसानी रिश्तों सी जीर्ण शीर्ण मेरी रस्सी भी टूट गयी और लहरें मुझे बहा कर इस अत्यंत सुरम्य सुरक्षित स्थान पर ले आईं जहाँ अपार सुख है, शान्ति है और विश्राम है ! आज मुझे सच्चे अर्थों में मोक्ष मिल गया है !
सर्वथा मौलिक, अप्रकाशित एवं अप्रसारित
साधना वैद
साधना वैद जी के साथ ,प्रेरणा गुप्ता जी की लघुकथा हौसले की पतवार और प्रतिभा जोशी पाण्डे जी की लघुकथा चट्टानों के पार हमारी साहित्यक पत्रिका वैष्णव -गुण में शीघ्र ही प्रकाशित की जायेगी।

Wednesday, December 7, 2016

शिक्षा और श्रम




जीवन यापन के लिए करना है उद्योग

लेकन समुचित काम का बना नहीं संयोग !



ऑफिस-ऑफिस फिर रहे बैग हाथ में थाम

व्यर्थ हुईं सब डिग्रियाँ मिला न कोई काम !



रद्दी का हैं ढेर सब कहीं न इनका मोल

सुनने को मिलते रहे सबके कड़वे बोल !



कब तक हम भटका करें नाकारा बेकार

नैया कर दो पार अब जग के पालन हार !



बीत रहा जीवन फिसल ज्यों हाथों से रेत

संभल न जाते हम तभी जो आ जाती चेत !



इससे तो हम सीखते हाथों का कुछ काम

‘बेकारों’ की लिस्ट से हट तो जाता नाम !



मिहनत करने से भला क्यों कतराते लोग

कुर्सी पर बैठे रहे लगा लिए सौ रोग !



बेशक करते रात दिन हाड़ तोड़ कर काम

‘बेकारी’ के दंश से बच जाते श्रीमान  !



श्रमिकों की महिमा बड़ी श्रम का जग में मान  

हुनरमंद इंसान का होता जग में गान !



श्रम बिन शिक्षा व्यर्थ है जब होगा यह ज्ञान

इनके समुचित मेल से पाओगे सम्मान !







साधना वैद




Saturday, December 3, 2016

इम्तहान


अब बस भी कर
ऐ ज़िंदगी !
और कितने इम्तहान
देने होंगे मुझे ?
मेरे सब्र का बाँध
अब टूट चला है !
मुट्ठी में बँधे
सुख के चंद शीतल पल
न जाने कब फिसल कर
हथेलियों को रीता कर गए
पता ही नहीं चला !
बस एक नमी सी ही 
बाकी रह गयी है जो
इस बात का अहसास
करा जाती है कि भले ही
क्षणिक हो लेकिन कभी
कहीं कुछ ऐसा भी था
जीवन में जो मधुर था,
शीतल था, मनभावन था !
वरना अब तो चहुँ ओर
मेरे सुकुमार सपनों और
परवान चढ़ते अरमानों की
प्रचंड चिता की भीषण आग है,
अंगारे हैं, चिंगारियाँ हैं
और है एक
कभी खत्म न होने वाली
जलन, असह्य पीड़ा और
एक अकल्पनीय घुटन
जो हर ओर धुआँ भर जाने से  
मेरी साँसों को घोंट रही है
और जिससे निजात पाना
अब किसी भी हाल में
मुमकिन नहीं !

साधना वैद