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Saturday, May 30, 2020

क्यों शलभ कुछ तो बता



क्यों शलभ कुछ तो बता,
पास जाकर दीप के क्या मिल गया
क्या यही था लक्ष्य तेरे प्रेम का
फूल सा नाज़ुक बदन यूँ जल गया !

क्यों शलभ कुछ तो बता,

लाज ना आई ज़रा भी दीप को
प्रेम के प्रतिदान में क्या फल दिया
तनिक भी ना कद्र की इस प्यार की
प्रेम की अवहेलना पर बल दिया !

क्यों शलभ कुछ तो बता,

एक दम्भी दीप के अनुराग में
क्यों भला उत्सर्ग यूँ जीवन किया
क्या मिला तुझको सिला बलिदान का
दीप की लौ का कहाँ कुछ भी गया !

बंधु तुम क्यों पूछते हो क्या मिला ?

ध्येय दीपक का बड़ा निष्पाप है
जगत से तम को मिटाना है उसे
अहर्निश जलती है बाती दीप की
पंथ आलोकित बनाना है उसे !

बंधु तुम क्यों पूछते हो क्या मिला ?

थी न मुझको लालसा प्रतिदान की
और थी ना भावना बलिदान की
मैं तो केवल एक आहुति ही बना
यज्ञ में बाती के अनुष्ठान की !

बंधु तुम क्यों पूछते हो क्या मिला ?

अलौकिक आनंद है उत्सर्ग में
जो प्रिया के वास्ते मैंने किया
पंथ को निष्कंट करने के लिए
तुच्छ यह तन ही तो बस मैंने दिया !



साधना वैद

Thursday, May 28, 2020

मानवता की बात वहाँ बेमानी है






भरा हुआ हो कलुष मनुज के हृदयों में
संस्कार की बात वहाँ बेगानी है
घर घर में बसते हों रावण कंस जहाँ
मानवता की बात वहाँ बेमानी है !

मूल्यहीन हो जिनके जीवन की शैली
आत्मतोष हो ध्येय चरम बस जीवन का
नहीं ज़रा भी चिंता औरों के दुःख की
आत्मनिरीक्षण की आशा बेमानी है !

परदुख कातरता, पर पीड़ा, करुणा का
भाव नहीं हो जिनके अंतर में तिल भर
पोंछ न पाए दीन दुखी के जो आँसू
वैष्णव गुण का ज्ञान वहाँ बेमानी है !

कोई तो समझाए इन नादानों को
जीवनमूल्य सिखाये इन अनजानों को
जानेंगे जब त्याग, प्रेम की महिमा को  
मानेंगे निज हित चिंता बेमानी है ! 


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद



Tuesday, May 26, 2020

बदले हुए सुर



“अरे पकड़ लपक के राजू ! जाने ना पाए !  धर के लगा पीठ पे चार छ: लातें ! नंबर नोट कर लीयो बाइक का  ! कस के पकड़ कर रखियो आ रहे हैं हम भी ! सारी हेकड़ी निकालते हैं सा....... की!”
खिड़की के बाहर से कॉलोनी के फुर्सतिया लड़कों के चिल्लाने और भागने दौड़ने की आवाजें आईं तो बिट्टू ने झाँक कर खिड़की से देखा और एकदम उसने भी दरवाज़े के बाहर सरपट दौड़ लगा दी !
“अरे अब तू कहाँ जा रहा है ?” बिट्टू की माँ उर्मिला गुस्से से बौखला गयीं !
“चैन नहीं है ज़रा भी इन कमबख्ती मारों को ! सारे दिन सड़कों पर डोलते हैं ! ना पढ़ना न लिखना बस आवारागर्दी करा लो सारे दिन ! खुद तो बिगड़े हैं ही हमारे बिट्टू को भी बिगाड़े दे रहे हैं ! कोई न कोई खुराफात चलती ही रहती है इनके दिमाग में ! बिट्टू के पापा से कह कर एक बार थाने में शिकायत करवाउँगी तब पीछा छूटेगा इन लफंगों से !” बिट्टू की माँ का गुस्से के मारे खून खौल रहा था ! कल बिट्टू का अंग्रेज़ी का इम्तहान है !
तभी अपनी बहन गुड़िया को सहारा देकर लाते हुए बिट्टू ने कमरे में प्रवेश किया ! उसके साथ कॉलोनी के वही ‘फुरसतिया लफंगे’ दोस्त भी थे ! गुड़िया का दुपट्टा तार तार हो रहा था ! कोहनी से खून बह रहा था और घुटने छिल गए थे ! सहमी हुई गुड़िया ज़ार ज़ार रो रही थी ! उर्मिला ने घबरा कर गुड़िया को सम्हाला ! “ये क्या हो गया ? ऐसी हालत कैसे हो गई तेरी गुड़िया ?” 
“अम्माँ बदमाश इसका पीछा करते करते यहाँ तक आ गए थे ! वो तो अच्छा हुआ इन लोगों ने समय रहते देख लिया और उन गुंडों को पकड़ लिया ! अभी थाने में हो रही होगी उनकी जम के ठुकाई ! राजू और मोहन लेकर गए हैं उन्हें थाने !” 
उर्मिला का चेहरा घबराहट से फक हो गया था ! दिल से दुआएँ निकल रहीं थी ‘फ़ुरसतिया लफंगे’ लड़कों के लिए ! “साक्षात हनुमान का अवतार हैं ये तो ! खूब फलो फूलो बच्चों ! ऐसे ही सबका सहारा बनो ! भगवान् तुम्हें खूब तरक्की दे तुम्हारी हर आस पूरी करे ! जो तुम न होते तो आज जाने क्या हो जाता !” उर्मिला का गला रुँध हुआ था और आँखों से अविरल आँसू बह रहे थे !


साधना वैद



Thursday, May 21, 2020

विरक्ति




 नहीं लुभाती अब
पूर्णिमा के चाँद की
दुग्ध धवल सी
रुपहली ज्योत्सना और
माथे को सहला कर
प्यार से जगातीं 
उगते सूरज की नर्म
  मुलायम सुनहरी किरणें !
नहीं सुहातीं अब
ग्रीष्म की तपती
झुलसती शामों में
आसमान में हर ओर से
उमड़ घुमड़ कर गहराती
 आतीं श्याम घटायें और  
खिड़की से बाहर निकली
हथेलियों पर गिरतीं
रिमझिम फुहारों की
  नन्ही-नन्ही शीतल बूँदें !
नहीं मन चाहता अब
गुलमोहर, पलाश और
अमलतास के लाल पीले
  फूलों से लदे वृक्षों को  
घंटों अपलक निहारना
और बाग के सुन्दर
सुगन्धित फूलों पर मँडराती
खूबसूरत तितलियों का  
दूर तक पीछा करना !
नहीं आकर्षित करते अब
हिमाच्छादित उन्नत
पर्वत शिखर और उन पर
रक्तिम आभा बिखेरतीं
सूर्योदय और सूर्यास्त की
रक्तवर्णी किरणें !
नहीं लगते अब कुछ 
मन की बातें 
कहते सुनाते से  
पहाड़ के सीने को चीर
झर-झर बहते 
गाते गुनगुनाते झरने और
पतली उथली वेगवान  
पहाड़ी नदियाँ !
नहीं अच्छी लगतीं अब
आसमान में उड़तीं
आकाश से बातें करतीं
रंग बिरंगी खूबसूरत पतंगें
और अपनी मस्ती में चूर
जोश और उमंग से
नभ में ऊँची उड़ान भरतीं
एक के पीछे एक  
 सुन्दर चहचहाते पंछियों की  
अनगिनती टोलियाँ !
  नहीं जानती मैं कि  
उम्र बीत चली है या
फिर मन ही इतना
विरक्त हो गया है
कि अब दिल को
 कुछ भी छू नहीं पाता  
बस इतना जानती हूँ कि
अंतर के इस वीराने में
एक अंतहीन तप्त मरुथल
पसरा हुआ है और
  पसरा हुआ है एक  
कभी न खत्म होने वाला
भयावह सन्नाटा
जहाँ अपनी ही
पदचाप सुन कर मैं
 सिहर-सिहर जाती हूँ !


साधना वैद





Saturday, May 16, 2020

कोमल किसलय




देख रहे हो मुझे ?
कितना सुन्दर है मेरा रूप
कितना खुशनुमां है मेरा रंग
कितना कोमल है मेरा बदन
और कितनी मादक है मेरी खुशबू !
नन्हा सा अवश्य हूँ लेकिन
हौसला बहुत है मुझमें
इतने बड़े वृक्ष के इतने सारे
इतने पुराने फल फूल पत्ते
मेरा मुकाबला नहीं कर सकते !
हवा के एक हल्के से झोंके से
असंख्य पत्ते धराशायी हो जाते हैं
लेकिन मैं नन्हा सा कोमल किसलय
अपनी डाल पर मजबूती से टिका रहता हूँ
बड़ी से बड़ी आँधी भी मुझे
न डरा पाती है, न झुका पाती है,
न ही धरा पर गिरा पाती है !
मुझमें अपार संभावनाएं हैं
बढ़ने की, विकसित होने की
संसार को कुछ देने की !
कोमल हूँ पर कमज़ोर नहीं
नन्हा हूँ पर नगण्य नहीं
वृक्ष का अस्तित्व मुझसे है
वृक्ष का सौन्दर्य मुझसे है
वृक्ष की जान मुझमें है !
मैं जीवन का प्रतीक हूँ !
मैं नन्हा कोमल किसलय हूँ !
जिस भी किसी दिन वृक्ष में
अंकुर फूटना रुक जाएगा
नव पल्लवों का उगना बंद हो जायेगा
वह धीरे-धीरे सूखने लगेगा,
वह बीमार हो जाएगा
और एक दिन वह मर जाएगा !

साधना वैद







Wednesday, May 13, 2020

व्योम के उस पार




दूर क्षितिज तक पसरे
तुम्हारे कदमों के निशानों पर
अपने पैर धरती
तुम तक पहुँचना चाहती हूँ !
सारी दिशाएँ खो जायें,
सारी आवाजें गुम हो जायें,
सारी यादें धुँधला जायें,
मेरी डायरी में लिखे
तुम्हारे पते की स्याही
वक्त के मौसमों की मार से
भले ही मिट जाये
मेरे मन की मरुभूमि की रेत पर
अंकित ये निशान आज भी
उतने ही स्पष्ट और ताज़े हैं
जितने वो उस दिन थे
जब वर्षों पहले मुझसे
आख़िरी बार मिल कर
तुम्हारे पल-पल दूर जाने से
मेरे मन पर बने थे !  
तुम्हारे कदमों के
उन्हीं निशानों पर पैर रखते हुए
चलते रहना मुझे बहुत
अच्छा लगता है !
विरह की ज्वाला 
कुछ शांत होने लगती है 
आस पास की हवा 
महकती सी लगती है 
फासले कुछ कम होते से
लगते हैं और
उम्मीद की शाख हरी
होने लगती है !
जानती हूँ राह अनन्त है
मंज़िल का कोई ओर छोर भी
दिखाई नहीं देता
लेकिन मुझे विश्वास है
तुम्हारे पैरों के इन निशानों पर
पैर रखते हुए मैं
एक न एक दिन ज़रूर  
तुम तक पहुँच जाऊँगी
फिर चाहे यह मुलाक़ात
इस लोक में हो या
व्योम के उस पार !


साधना वैद    

Tuesday, May 12, 2020

छन्न पकैया छन्न पकैया



छन्न पकैया छन्न पकैया 
कठिन हो गया जीना 
कोरोना के डरने सबसे 
छीना खाना पीना !

छन्न पकैया छन्न पकैया 
सूनी हैं सब गलियाँ
ना मिलते फल फ्रूट हाट में 
ना मिलतीं औषधियाँ !

छन्न पकैया छन्न पकैया 
हर सुख इसने छीना 
कहाँ जाएँ है कौन सुने जो 
दुखते मन की बीना ! 

छन्न पकैया छन्न पकैया
भूखे श्रमिक बिचारे  
काम काज सब बंद हो गया 
फिरते दर दर मारे ! 

छन्न पकैया छन्न पकैया 
आ जाओ गिरिधारी 
संकट में हैं ग्वाल बाल सब 
हर लो विपदा सारी ! 




साधना वैद 

Thursday, May 7, 2020

तुम्हारा मौन




नहीं जानती
तुम्हारा यह मौन  
वरदान है या अभिशाप
कवच है या हथियार
आश्रय है या भटकाव
संतुष्टि है या  संशय
सांत्वना है या धिक्कार
आत्म रक्षा है या प्रहार
आश्वासन है या उपहास  
पुरस्कार है या दण्ड
जो भी है
सिर माथे है ,
अवसान की इस बेला में
जब सूरज डूब चुका है ,
रोशनी भी मद्धम है ,
हवा किसी श्रंखला में जकड़ी 
विवश बंदिनी सी कैद है ,
आसपास के तरुवर  
प्रस्तर प्रतिमा की तरह  
कोई भी हरकत किये बिना
निर्जीव से खड़े हैं ,
आसमान में इक्का दुक्का तारे
यहाँ वहाँ सहमते सकुचाते
जुगनू की तरह
टिमटिमा रहे हैं ,
सारी कायनात
जाने किस अनिर्दिष्ट
आतंक से भयभीत हो
एकदम खामोश है 
संजीदगी का तुम्हारा यह 
अनचीन्हा सा बाना 
मेरी समझ से 
नितांत परे है ! 
ऐसे में जाने क्यों जब
साँसें भी बहुत कम  
हो चली हैं ,
दृष्टि भी धुँधला चली है 
और हाथों की पकड़ से 
सब कुछ
छूटता सा लगता है ,  
तुम्हारी हर बेरुखी
तुम्हारा हर अन्याय
मुझे मन प्राण से 
स्वीकार है !




साधना वैद 

चित्र - गूगल से साभार