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Friday, November 30, 2018

आवाज़ें



एक वक्त था जब
ज़रा सा शोर, ज़रा सी हलचल
या ज़रा सी भी आवाज़
नागवार गुज़रती थी
लिखना पढ़ना हो
चिंतन मनन करना हो
या फिर विश्राम ही क्यों न करना हो
बिलकुल पिन ड्राप साइलेंस ही
अच्छी लगती थी !
परम शान्ति में दत्तचित्त हो
पूरी एकाग्रता से काम करना
अच्छा लगता था
कोलाहल या हल्ले गुल्ले का संसार
बड़ा बेगाना लगता था !
लेकिन अब इन आवाज़ों की   
ऐसी आदत पड़ चुकी है कि
अब सन्नाटे डराने लगे हैं
और हर तरह के शोर,
हर किस्म के कोलाहल
मन को सहलाने लगे हैं !
भोर की बेला में पंछियों के
मधुर कलरव और
मंदिर की घंटियों की जगह
अब स्कूल जाने से पहले
माँ और बच्चों की चख चख,
कारों स्कूटरों के बेसुरे हॉर्न
प्रभाती से लगने लगे हैं 
घड़ियों में अलार्म लगाने की 
ज़रुरत ही कहाँ रही 
हम तो हर रोज़ अब 
इन्हीं आवाजों से जगने लगे हैं ! 
रसोई से अगर मिक्सी का शोर
और प्रेशर कुकर की सीटी ना सुनाई दे
तो घर में मनहूसियत सी पसर जाती है !
और वाशिंग मशीन के हूटर की आवाज़
संजीवनी का सा काम कर जाती है !
सारे उपकरण जब पूरी ताकत से
बज रहे होते हैं तो घर में 
परम शान्तिका अहसास होता है !
सबके मूड अच्छे रहते हैं  
और उत्सव का सा माहौल बना रहता है !  
टी वी पर बजते तेज़ संगीत
और चौबीसों घंटे चलने वाले
पारिवारिक धारावाहिकों के
अति नाटकीय बेहूदे संवाद
सुनाई ना दें तो मन
अनमना सा हो जाता है
न्यूज़ चैनल पर चलने वाली
अनंत बहसों का शोर
सारे वजूद को अवसन्न कर जाता है !  
रात को सोते समय भी
पंखे की आवाज़, टी वी का शोर
गली के कुत्तों का गुर्राना
अब लोरी सा लगता है  
हमें तो नींद ही तब आती है 
जब सारा संसार जागा सा लगता है !  
अब तो ये सारी आवाज़ेंं दिनचर्या में 
इस तरह शुमार हो चुकी हैंं कि
किसी दिन अगर लाईट चली जाए
और हर उपकरण शांत हो जाए तो  
तो घर में शोक का सा आलम  
व्याप्त हो जाता है और
बिजली के आते ही 
इनसे निकलने वाला शोर 
सबके अधरों पर बड़ी मीठी सी 
मुस्कान ले आता है ! 



साधना वैद



Tuesday, November 27, 2018

"एक फुट के मजनूमियाँ" आदरणीया रश्मि प्रभा जी की नज़र से

 

# "एक फुट के मजनूमियाँ"
Sadhana Vaid
साधना वैद जी
============== ने दो किताबें भेजीं, एक मेरे लिए, एक कुनू ,अमु के लिए । कुनू ,अमु का नाम पढ़ते ही आप समझ गए होंगे कि किताब छोटे बच्चों के लिए होगी, जी हाँ, "एक फुट के मजनूमियाँ"।
आज मैंने कुनू ,अमु की किताब उठाई, भूमिका वगैरह के बाद पहली कहानी पढ़ी, "आलसी लालची मकड़ी " फिर कुनू को सुनाया, अमु अभी पास में नहीं, हो सकता है मैं रिकॉर्ड करके भेजूँ, लेकिन मुझे देखते हुए मुझसे सुनने में और बिना मुझे देखे सुनने में फर्क होगा, ... ख़ैर, तो पहली कहानी पढ़कर बड़ा मजा आया, सीख भी अच्छी मिली बच्चों को और काम से भागनेवाले बड़ों को ।
बच्चों के लिए लिखी गई कहानी किसी जादू से कम नहीं होती । शेर,चीते,भालू,खरगोश,गिलहरी,मकड़ी ... सब बोलने लगते हैं, कोई चालाकी दिखाता है, कोई समझदारी ।
पंचतंत्र की कहानियाँ, गुलज़ार की बच्चों के लिए लिखी गई कहानियों,कविताओं से, किसी रशियन किताब से कम दिलचस्प यह किताब नहीं । सबके घर में यह किताब होनी चाहिए, क्योंकि कई बातें हम बच्चों को ऐसे नहीं समझा पाते,पर काल्पनिक कहानियों के माध्यम से उनके नन्हें से दिल को बहुत कुछ बता सकते हैं, और ये कहानियाँ मस्तिष्क के किसी कोने में जगह बना लेती हैं, तभी तो फिर नानी/दादी की पिटारियों में ढेर सारी कहानियाँ मिलती हैं ।
अभी तो शुरू हुई है कहानी, और पहली कहानी के बाद कह रही हूँ, अपने बच्चों के लिए,अपने लिए आज ही इसे मंगवाएं । शरमाना क्यों, दिल तो सबका बच्चा है जी और सबको भविष्य में नानी/दादी, दादा/नाना/मामा/मौसी बनना ही है, तो बस मंगा लीजिए । फिर न कहिएगा, हमने बताया नहीं |
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बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार आपका रश्मि प्रभा जी इतनी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए ! कहानी में कुनू को मज़ा आया मैं इम्तहान में पास हुई ! आपका दिल से शुक्रिया ! 
आप सभी की सुविधा के लिए अमेज़न का लिंक दे रही हूँ जिस पर यह किताब 'एक फुट के मजनूमियाँ' उपलब्ध है ! 


Saturday, November 24, 2018

पन्नों में दबी एक रूमानी कहानी




पन्नों के बीच
सूखी सी पाँखुरियाँ
गीली सी यादें

 तुम्हारी बातें
जब आती हैं याद
जगातींं रातें 

भीगी सड़क
रिमझिम फुहार
हाथों में हाथ

जहाँ हों पास 
ज़मीन आसमान
जाना था साथ


तोड़ा गुलाब
अलकों में सजाया
मन हर्षाया 

सारे जग का
प्यार जैसे आँखों में
उतर आया

कितनी बातें
रूमानी कहानी में
कितने किस्से

प्रेम रंग में
तर ब तर हुए
सारे ही हिस्से

  उठाई गयीं   
ढेर सारी कसमें
ढेर से वादे

मन से सच्चे
समर्पित थे दोनों
वो सीधे सादे

बातों बातों में
जाने कब आ गयी
विदा की बेला

बिछड़ा साथी
नैनों से बह चला
आँसू का रेला

डूबा संसार
हुआ मन अकेला
छूटा जो हाथ

जी भर आया
धीमे से सहलाया
लाल गुलाब

 प्यारा तोहफा  
किताब में दबाया
पन्नों के बीच 

स्वप्न सरि में
विचरने लगी वो
नैनों को मींच

हुआ विछोह
अलग हुई राहें
फिर ना मिले

प्रेम के फूल
सूखी उस डाली पे
फिर ना खिले

व्यस्त हो गये
अपने संसार में
सदियाँ बीतीं

जीवन रीता
रीते सुबहो शाम
रातें थीं रीती

 बरसों बाद
मिली जो अचानक
वही किताब

भीगी पलकें
छुल गया हाथ से
सूखा गुलाब

कितना कुछ 
जो बीता मन पर
ध्यान आ गया 

विरहाग्नि में
पल-पल जलना
याद आ गया

याद आ गया 
प्रेम का उपहार 
लाल गुलाब 


छाई बदली
उमड़ा नयनों से
छिपा सैलाब



साधना वैद





Wednesday, November 21, 2018

मैं खड़ी हूँ आज भी उस मोड़ पर





जिस्म ने तय कर लिये कई फासले ,
उम्र भी है चढ़ चुकी सीढ़ी सभी ,
रूह उस लम्हे में लेकिन क़ैद है ,
जो  बीता था बीता है कभी !

जब हवाएं ठिठकती थीं द्वार पर ,
जब फुहारें भिगोती थीं आत्मा ,
जब सितारे चमकते थे नैन में ,
चाँद सूरज हाथ में थे जब सभी !

एक सूखा पात अटका है वहाँ ,
गुलमोहर के पेड़ की उस शाख पर ,
जो धधकता था सिंदूरी रंग में ,
अस्त होती सूर्य किरणों से कभी !

गीत अब भी गूँजता है अनसुना ,
भावना के पुष्प बिखरे हैं वहाँ ,
नेह की लौ जल रही है आज भी ,
जो बुझी थीना बुझेगी अब कभी !

थीं कभी तुमसे मिलीं सौगात में ,
मोह की उन श्रंखलाओं से बँधी ,
मैं खड़ी हूँ आज भी उस मोड़ पर ,
पलट कर तो देखते तुम भी कभी !

ज़िंदगी के तिक्त सागर में समा ,
प्रेम की सरिता भी खारी हो गयी ,
खो गयी रूमानियत जाने कहाँ ,
कह सके ना चाह कर तुमसे कभी ! 

अब कभी फिर लौट कर आ जाओ तो 
जी उठेंगे पल वो रूमानी सभी 
सो गये थे राह तक थक हार के 
विवश होकर गहन निन्द्रा में कभी !

साधना वैद