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Wednesday, February 24, 2021

अब तो आ जाओ




अब तो आ जाओ 

युग युगांतर से   

तुम्हारा इंतज़ार करते करते 

तुम्हें ढूँढ़ते ढूँढते न जाने 

कितनी सीढ़ियाँ चढ़ कर 

आ पहुँची थी मैं फलक तक 

और बुक कर लिया था 

आसमान का सबसे शानदार 

सबसे मंहगा चन्द्रमहल 

हमारे तुम्हारे लिए !

उसकी सबसे खूबसूरत 

बड़ी सी छत पर 

बिछा लिया था मैंने  

यह सितारों टंका आलीशान कालीन

हमारे तुम्हारे शयन के लिए ! 

दिन पर दिन बीतते गए 

पर तुम न आये ! 

मैं किराया न दे पाई 

और ये चाँद भी रूठ गया 

मेरा सारा सामान  

बाहर फेंक दिया उसने और 

अपने चन्द्र महल के लगभग 

सारे ही कमरे बंद कर लिए  !

बड़ी मिन्नत और चिरौरी के बाद 

बस दो दिन की और 

मोहलत दी है उसने 

देख रहे हो ना मुझे 

कितनी थक गयी हूँ मैं 

जूझते जूझते !

बड़ी मुश्किल से टिकी हुई हूँ 

दूज के इस चाँद का 

एक दरवाज़ा थामे 

इन दो दिनों में भी  

जो तुम न आये तो 

यह दरवाज़ा भी बंद हो जाएगा 

चन्द्रमहल दृष्टि से ओझल हो जाएगा 

और मैं आसमान से नीचे 

गिर जाउँगी धरा पर 

फिर कभी न उठने के लिए 

इसलिए अब तो आ जाओ ! 


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद 

Saturday, February 20, 2021

कह दो कान्हा

 


पत्थर की मूरत से पीड़ा कौन कहे
न के दावानल की ज्वाला कौन सहे 
सारे जग की पीर तुम्हें यदि छूती है
तो कान्हा क्यों मेरे दुःख पर मौन रहे !
  
विपथ जनों को राह तुम्हीं दिखलाते हो
पर्वत जैसी पीर तुम्हीं पिघलाते हो 
भवतारण दुखहारन करुणाकर कान्हा
मेरे अंतर का लावा किस ओर बहे !

नैनों में बस एक तुम्हीं तो बसते हो
मधुर मिलन की सुधियों में तुम हँसते हो
वंंशी के स्वर के संग जो बह जाती थी
उर संचित उस व्यथा कथा को कौन गहे !

बने हुए क्यों निर्मोही कह दो कान्हा
फेर लिया क्यों मुख मुझसे कह दो कान्हा
चरणों में थोड़ी सी जगह मुझे दे दो
राधा क्यों अपने माधव से दूर रहे !

श्याम तुम्हारे बिन यह जीवन सूना है
क्यों साधा यह मौन मुझे दुःख दूना है
थी तुमको भी प्रीत अगर बतलाओ तो
कैसे तुम अपने स्वजनों से दूर रहे !

साधना वैद

Monday, February 15, 2021

कुछ कह न पायेंगे

 



किस्सा कहा जो दर्द का वो सह न पायेंगे,
हर इक बयाँ पे रोये बिना रह न पायेंगे !

हर रंग है जफा का मेरी दास्ताँ में दोस्त,
इलज़ाम खुद पे एक भी वो सह न पायेंगे !

सदियों से जिन किलों में मेरी रूह कैद है,
छोटे से एक छेद से वो ढह न पायेंगे !

फौलाद में तब्दील जिन्हें वक्त कर चुका,
आँसू हमारी आँख से वो बह न पायेंगे !

बर्दाश्त हैं ज़ुल्म-ओ-सितम दुनिया के सब हमें,
इक अश्क उनकी आँख में हम सह न पायेंगे!
 
हर लफ्ज़ है रूदाद मेरे दर्द की ए दोस्त,
ना पूछिये कुछ और हम कुछ कह न पायेंगे !


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद

Wednesday, February 10, 2021

मैं जान जाती हूँ

 


जब सुबह की समीर पहले की तरह
ना तेरे गीत गुनगुनाती है
ना ही तेरी खुशबू लेकर आती है
मैं जान जाती हूँ
आज अभी तक तेरी सुबह नहीं हुई है !
जब दिन की फिजां पहले की तरह
चुस्त दुरुस्त नज़र नहीं आती
ना ही सूरज से हमेशा की तरह
वह अविरल ताप झरता है
मैं जान जाती हूँ
आज ज़रूर तेरी तबीयत नासाज़ है !
जब खुशनुमां शामों की तमाम
मीठी सी सरगोशियों के बाद भी
ना किसी बात से मन बहलता है
ना ही कोई मधुर गीत दिल को छूता है
मैं जान जाती हूँ
आज तू बहुत उदास है !
जब रात अपनी सारी गहनता के साथ
नीचे उतर आती है,
जब चाँद सितारे आसमान में
एकदम मौन स्तब्ध अपने स्थान पर
रत्न की तरह जड़े से दिखाई देते हैं,
जब पास से आती पत्तों की
धीमी सी सरसराहट भी
अनायास ही बेचैन कर जाती है
मैं जान जाती हूँ
नींद तेरी आँखों से कोसों दूर है !
बस इतनी सी ख्वाहिश है
जैसे तेरे बारे में इतनी दूर रह कर भी
मैं सब कुछ जान जाती हूँ
काश तुझे भी खबर होती
डाल से टूटने के बाद 
ज़मीन पर गिरे फूल पर
क्या गुज़रती है !
 


साधना वैद 

Sunday, February 7, 2021

शिशिर की भोर


शिशिर ऋतु की सुहानी भोर
आदित्यनारायण के स्वर्ण रथ पर
आरूढ़ हो धवल अश्वों की
सुनहरी लगाम थामे
पूर्व दिशा में शनैः शनैः
अवतरित हो रही है !
पर्वतों ने अपना लिबास
बदल लिया है !
कत्थई रंग के हरे फूलों वाले
अंगवस्त्र को उतार
लाल और सुनहरे धागों से कढ़े
श्वेत दुशाले को अपने तन पर
चारों ओर से कस कर
लपेट लिया है !
पर्वत शिखरों के देवस्थान पर
रविरश्मियों ने अपने जादुई स्पर्श से
अंगीठी को सुलगा दिया है !  
वहाँ पर्वत की चोटियों पर देवता
और यहाँ धरा पर हम मानव
गरम चाय की प्याली
हाथ में थामे शीत लहर से
स्पर्धा जीतने के लिये
स्वयं को तैयार कर रहे हैं !
कल-कल बहती जलधारायें
सघन बर्फ की मोटी रजाई ओढ़
दुबक कर सो गयी हैं !
सृष्टि की इस मनोहारी छटा पर
मुग्ध हो दूर स्वर्ग में बैठे
देवराज इंद्र ने मुक्त हस्त से
अनमोल मोतियों की दौलत
न्यौछावर करने का आदेश
सजल वारिदों को दे दिया है !
नभ में विचरण करते
ठिठुरते श्यामल बादलों के
कँपकँपाते हाथों से छिटक कर
ओस के मोती नीचे धरा पर
यत्र यत्र सर्वत्र बिखर गये हैं !
धन्य धरा ने विनीत भाव से
हर कली, हर फूल,
हर पत्ते, हर शूल
यहाँ तक कि
नर्म मुलायम दूर्वा के
हर तिनके की खुली मंजूषा में
इन मनोरम मोतियों को  
सहेज कर रख लिया है !
शीत ऋतु का यह सुखद
शुभागमन है और प्रकृति के
इस नये कलेवर का
हृदय से स्वागत है,
अभिनन्दन है,
वंदन है !

साधना वैद

Thursday, February 4, 2021

दिन था रविवार

 

 


 

पूजा जी ने पूछा एक सवाल

किसने कैसे मनाया अपना रविवार,

सुनाना चाहा जो हाले दिल तो

बन गयी यह कविता मज़ेदार !

 दिन था रविवार

एक तो वैसे ही घर में रहती है

किस्म-किस्म के कामों की भरमार,

उस पर अगर बच्चों की छुट्टी हो तो

घर में माहौल ऐसा हो जाता है

जैसे चल रहा हो कोई

बड़ा सा उत्सव या त्यौहार !

तरह तरह की फरमाइशें

तरह तरह के इसरार,

एक खत्म हुई नहीं कि

दूसरी का इज़हार !

ऐसे में भला कौन निभा सकता है

रजाई से अपना प्यार,

उस पर आने जाने वालों का 

तांता बेशुमार !

चेहरे पर कभी सच्ची तो कभी झूठी

मुस्कराहट लिये 

हम करते रहे  

सबका स्वागत हर बार,

खड़े रहे किचिन में 

ड्यूटी पर झख मार

बनाते रहे और पीते पिलाते रहे

सबको चाय बार-बार !

और हसरत भरी निगाहों से 

किचिन से ही निहारते रहे

अपनी प्यारी रजाई को मन मार,

जो सुबह एक बार तहाने के बाद

शाम होने तक खुली ही नहीं थी 

एक भी बार !

याद आते हैं बचपन के

दिन वो सुहाने बार बार,

जब जाया करते थे स्कूल

और दिन भर रेडियो पर

नाटक, फ़रमाइशी गीत और साउड ट्रैक

सुन सुन कर मनाया करते थे

अपना इतवार !

बनवाया करते थे अपनी मम्मी से

गरमागरम चाय और पकौड़े

दौड़ाया करते थे नौकर को

हलवाई की दूकान से टिक्की समोसे लाने,

होती थी खूब रौनक और पार्टी घर में

और आसमान तक ऊँची आवाज़ में

 गाया करते थे फ़िल्मी तराने !

निभाते थे साथ दिन भर

रजाई और उपन्यासों का

नहीं होता था खौफ ज़माने का !

मनाते थे दिन भर इतवार की छुट्टी

न होती थी चिंता रसोई की

न झंझट झमेला था नोट कमाने का !

खो गए हैं वो प्यारे प्यारे दिन

अतीत की गहराइयों में,

अब न आता वैसा रविवार मज़ेदार

न अब है वो मज़ा ठन्डी ठन्डी सी

अनखुली रजाइयों में !

 

साधना वैद