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Friday, October 26, 2018

तेरी याद आई



बंद घर के दरवाज़े,
बंद दिल के दरवाज़े
घंटी बजा जब भी अन्दर आई
पग ठिठके, मन उमड़ा,
हूक सी उठी दिल में और
जाने क्यों अम्मा तेरी
बहुत याद आई !

कीमती फानूस, मंहगा कालीन
बीच में सोफे में जड़े बौने से हम
ऐसे में न जाने क्यों अम्मा
आँगन में बीचों बीच पड़ी
तेरी बान की वो झूले सी खटिया
और तेरी गोद में सिर धरे की हुई
दुनिया जहान की वो ढेर सारी बातें   
बहुत याद आईं !

शिमला मसूरी से ठन्डे कमरे
तरह तरह के शरबत जूस ड्रिंक्स
काँच की कीमती क्रॉकरी और
सेवादारों की फ़ौज इन सबके बीच
जाने क्यों अम्मा हौदी के पानी से
तराई किया हुआ सोंधी-सोंधी
खुशबू से महकता आँगन
और मिट्टी के कुल्हड़ में
तेरे हाथ की बनी खुशबूदार लस्सी
बहुत याद आई !

अचानक जो पहुँचे तो
सतही बातों के संग रेस्टोरेंट का
ज़ायकेदार खाना और बाज़ार की
मंहगी मिठाई जब खाई तो  
जल्दी-जल्दी में पकी तेरे हाथों की
चूल्हे की गरमागरम रोटी
आलू मटर की चटपटी सब्ज़ी,
धनिये की चटनी और
गुड़ मक्खन की छोटी सी डली
बहुत याद आई !

औपचारिक हेलो हाय और
रस्मी स्वागत भी जब मेज़बान की
खीझ और ऊब ना छिपा पाए तो
असीम प्यार के साथ 
माथे पर जड़ी तेरी 
अनगिनत पप्पियाँ 
और खुशी से छलछलाती 
तेरी आँसू भरी आँखें  
बहुत याद आईं !

युग बदल गए अम्मा
रिश्ते भले ही ना बदले हों
इंसान बदल गए
तौर तरीके बदल गए  
रस्मो रिवाज़ बदल गए और  
लोगों के अंदाज़ बदल गए !  
इंसान की हैसियत और औकात 
भले ही बढ़ गयी लेकिन
उसकी कीमत घट गयी क्योंकि
अब जो कुछ है उसके पास
सब सतही है, दिखावटी है
और बनावटी है
न वहाँ अपनापन है 
न आत्मीयता
जानती हो क्यों अम्मा ?
वो इसलिए कि अब इंसान की
फितरत बदल गयी !


साधना वैद  

Tuesday, October 23, 2018

एक फुट के मजनूमियाँ - भूमिका आदरणीय प्रतुल वशिष्ठ जी




बच्चे युगों-युगों से अपने बड़ों से कहानी सुनते आ रहे हैं ! अच्छे मनोरंजन के साथ सुनते-सुनते उनमें दूसरी तमाम क्षमताओं का विकास भी होता है ! सभी मानते हैं कहानियों से बच्चा न केवल व्यावहारिकता सीखता है अपितु उसकी कल्पनाशीलता उसे संवेदनशील बनाने में मदद भी करती है !

प्रस्तुत पुस्तक की कहानियाँ पुस्तक बनने से पहले लेखिका के अपने ब्लॉग ‘सुधिनामा’ पर प्रकाशित होती रहीं और मैं उनका ऐसा पाठक था जिसे उन कहानियों की तलाश थी जो बच्चों को सुनाते हुए उबाए नहीं ! जिस दुनिया में  ‘बालमन घूमते हुए कभी न थके; जहाँ मनमौजीपने को सम्मान और उपहार मिलें; जहाँ हर जीव-जंतु की ज़रूरतें, कार्य और भाव अपने समाज जैसे हों; जहाँ चिढ़ना-चिढ़ाना, रूठना-मनाना, शेखी बघारना, बात-बात में गाना हो; जहाँ किरदार का चलते-चलते घिस जाना, बड़े का छोटे से हार जाना किसीको अचम्भा न लगे; जहाँ सरकंडों की गाड़ी को चूहे खींचते हों; जहाँ चिड़ा-चिड़िया दाल चावल के एक-एक दाने से खिचडी बना लें; जहाँ कूए के अन्दर परियाँ मिलें, कान तहखाना बन जाए – ऐसी दुनिया की सैर करते हुए कौन बाहर आना चाहेगा !

प्रस्तुत पुस्तक की कुछ कहानियों को मैंने अलग-अलग विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं की कक्षायी प्रक्रिया के दौरान सुनाया और कुछ दिनों बच्चों की बातचीत में उसका प्रभाव भी देखा ! क्योंकि मैं इन कहानियों का स्वयं वाचक भी रहा हूँ तो कह सकता हूँ कि ‘एक थी चिड़िया’, ‘मजनूमियाँ’ जैसी विचित्र कल्पनाओं वाली कहानियाँ आज भी असरकारक हैं ! इन कहानियों में बच्चों के हिसाब से बदलने का एक अजब गुण भी है जो कहानीकार, कथावाचक की गुणग्राहकता पर निर्भर है !

पुस्तक की कहानियाँ जबरन सीख की पैरवी नहीं करतीं, स्वाभाविक सीख देती हैं ! विचित्र कल्पनाओं से स्वस्थ मनोरंजन करती हैं ! बालोचित भाव भंगिमाओं को कहानियों के किरदारों में पाकर पढ़ते हुए गुदगुदाती भी हैं !

दो साल पहले वंडररूम बाल पुस्तकालय के कहानी-कुनबा सत्रों में ‘चना न चब्बूँ क्या ?’ और ‘जैसी मेरी टोपी वैसी राजा की भी नहीं’ कहानियों ने बच्चों की जुबान पर इनके गीति वाक्यों की धुन लगा दी थी ! आज जब फिर से ये कहानियाँ सामने आईं तो अपनी सबसे करीबी गीतकहानी परीक्षणशाला ‘बेटी’ पर दो कहानियों को आजमाया ! कहानी और वाचन दोनों का उसको आनंद लेता देख भूमिका लिखना सहज हुआ !

लेखिका ‘साधना वैद’ ने जो कहानियाँ अपनी दादी-नानी से सुनीं और बरसों तक मानस में जिन्हें संजो कर रखा, समय-समय पर उन्हीं मानस मोतियों को नाती-पोतों को दिखाते हुए आज पुस्तकाकार रूप में वो सुधि पाठकों के बीच लेकर आई हैं ! मेरा विश्वास है कि इन बीस कहानियों की सरिता का श्रुति परम्परा से पाठ्य परम्परा के सागर में आना सभीको रास आयेगा !

प्रतुल वशिष्ठ
बाल साहित्यकार
(वंडररूम बाल पुस्तकालय,
राजीव गाँधी फाउन्डेशन)
दिल्ली     

Saturday, October 20, 2018

बेवजह



कहाँ माँगे थे चाँद और सितारे कभी  

तुम यूँ ही हमसे नज़रें चुराते रहे !


न रही जब ज़ुबानी दुआ और सलाम

बेवजह ख्वाब में आते जाते रहे !


तुम हमारी वफाओं पे हँसते रहे

हम जफा पे तेरी मुस्कुराते रहे !


तेरी यादों ने गाफिल किया इस तरह

बेखुदी में भी तुझको बुलाते रहे ! 


हम तुम्हें याद कर कर के जीते रहे

तुम हमें आदतन बस भुलाते रहे !


जितने नश्तर चुभोये ज़ुबां ने तेरी

हम उन्हें कुल जहाँ से छिपाते रहे ! 


ग़म के सहरा में जलती हुई रूह को  

आँसुओं की नमी से जिलाते रहे !


हम तो मरहम हैं लाये तुम्हारे लिये

तुम अंगारों पे हमको चलाते रहे !
  

वक्त की इन फिज़ाओं में नग़मे तेरे

शाख से टूट कर गुनगुनाते रहे !




साधना वैद

Thursday, October 18, 2018

बाल कहानियों की पुस्तक - एक फुट के मजनूमियाँ


शुभ समाचार
आप सबको बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरी बाल कहानियों की किताब 'एक फुट के मजनूमियाँ' अब अमेज़न पर उपलब्ध है ! पढ़ने के इच्छुक पाठक इसे आर्डर देकर मँगवा सकते हैं ! बच्चों के लिए इस पुस्तक में वह सभी कुछ है जो उन्हें न केवल भरपूर मनोरंजन एवं आनंद दे वरन उनकी कल्पना शक्ति को भी निखारे और उनमें संवेदनशीलता एवं मानवीय गुणों को भी विकसित करे !
साधना वैद
बचपन की कहानियाँ .....

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EK FUT KE MAJNU MIYA


साधना वैद 

Wednesday, October 17, 2018

जीने की वजह




जीने की वजह

पहले थीं कई

अब जैसे कोई नहीं !

बगिया के रंगीन फूल,

और उनकी मखमली मुलायम पाँखुरियाँ !

फूलों पर मंडराती तितलियाँ,

और उनके रंगबिरंगे सुन्दर पंख !

बारिश की छोटी बड़ी बूँदें,

और टीन की छत पर

सम लय में उनके गिरने से

उपजा संगीत !

खिड़की के शीशों पर बहती

बूँदों की लकीरें,

और उन लकीरों पर उँगली से लिखे

हमारे तुम्हारे नाम !

नंगे पैरों नर्म मुलायम दूब पर

बहुत हौले-हौले चलना,

और हर कदम के बाद

मुड़ कर देखना

कहीं दूब कुचल तो नहीं गयी !

आसमान में उमड़े श्वेत श्याम  

बादलों की भागमभाग,

और गगनांगन में चल रहे   

इस अनोखे खेल का स्वयं ही

निर्णायक हो जाना !

बारिश के बाद खिली धूप 

और आसमान में छाया सप्तरंगी इन्द्रधनुष

चाँद सूरज के साथ पहरों बतियाना,   

और उनकी रुपहली सुनहरी किरणों को

उँगलियों में रेशम के धागों की तरह

लपेटने की कोशिश में जुटे रहना !

संध्या के सितारे,

पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें,

मंद समीर के सुरभित झोंकों से

मर्मर करते पेड़ों के हर्षित पत्ते, 

रंग बिरंगी उड़ती पतंगें 

झर-झर झरते झरने,

कल-कल बहती नदियाँ,  

हिमाच्छादित पर्वत शिखर,

आसमान में उड़ते परिंदे,

पेड़ों की कोटर से झाँकते नन्हे-नन्हे पंछी 

और सुबह सवेरे उनका सुरीला कलरव

कितना कुछ था जीवन में

जो कभी अकेला होने ही नहीं देता था !

अब भी शायद है यह सब कुछ

यहीं कहीं आस पास

लेकिन शायद मैं ही इन्हें

मह्सूस नहीं कर पाती 

नहीं जानती

यह जीवन से वितृष्णा का प्रतीक है

या फिर उम्र के साथ अहसास भी

वृद्ध हो चले हैं कि अब

जीने की कोई वजह ही

नज़र नहीं आती !



साधना वैद

Friday, October 12, 2018

असमंजस

तुम तो मेरे नयनों के हर आँसू में समाये हो
जिन्हें मैं पलकों के कपाटों के पीछे
बड़े जतन से छिपा कर रखती हूँ
कि कहीं तुम उन आँसुओं की धार के साथ
बह कर बाहर ना चले जाओ !
तुम तो मेरे हृदय से निसृत
हर आह में बसते हो जिसे मैं
दांतों तले अपने अधरों को कस कर
दबा कर बाहर निकलने से रोक लेती हूँ
कि कहीं तुम भी उस आह के साथ
हवा में विलीन ना हो जाओ !
तुम तो अंगूठे से लिपटे आँचल की
हर सिलवट में छिपे हो
जिसे मैं कस कर मुठ्ठी में भींच लेती हूँ
कि कही तुम इस नेह्बंध से
मुक्त होकर अन्यत्र ना चले जाओ !
तुम तो मेरी डायरी में लिखी
नज़्म के हर लफ्ज़ में निहित हो
जिसे मैं बार-बार सिर्फ इसीलिये
पढ़ लेती हूँ कि जितनी बार भी
मैं उसे पढूँ
उतनी बार तुम्हें देख सकूँ !
तुम तो मेरे अंतस में
एक दिव्य उजास की तरह विस्तीर्ण हो
मेरे मन को आलोकित करते हो
और उस प्रकाश के दर्पण में ही
मैं अपने अस्तित्व को पहचान पाती हूँ !
लेकिन कैसी उलझन है यह !
मैं जहाँ हूँ
वह जगह मुझे साफ़
दिखाई क्यों नहीं देती !
मुझे पहचान में क्यों नहीं आती !
एक गहन वेदना
एक घनीभूत पीड़ा
और एक अंतहीन असमंजस के
दोराहे पर मैं खुद को पाती हूँ
जहाँ से आगे बढ़ने के लिये हर राह
बंद नज़र आती है !


चित्र - गूगल से साभार 
साधना वैद

Sunday, October 7, 2018

आमंत्रण


सुना है
तुमने किसी बुत को छूकर
उसमें प्राण डाल दिये
ठीक वैसे ही जैसे सदियों पहले
राम ने अहिल्या को छूकर
उसे जीवित कर दिया था !
सुना है तुम जादूगर हो
तुम्हें फ़िज़ा में तैरती
सुगबुगाहटों की भाषा को
पढ़ना भी आता है !
यहाँ की सुगबुगाहटों में भी
कुछ खामोश अनसुने गीत हैं
यहाँ के सर्द सफ़ेद इन
संगमरमरी बुतों में भी
कुछ धड़कने दफ़न हैं
कुछ सिसकियाँ दबी हैं
कुछ रुंधे स्वर छैनी हथौड़ी की
चोट से घायल हो
खामोश पड़े हैं
तुम्हें तो खामोशियों को
पढ़ने का हुनर भी आता है ना
तो कर दो ना साकार
इन आँखों के भी सपने,
दे दो ना आवाज़
इन पथरीले होंठों पर मचलते
हुए खामोश नगमों को,
छू लो न आकर इन बुतों को
अपने पारस स्पर्श से
कि बेहद कलात्मकता से तराशे हुए
इन संगमरमरी जिस्मों को भी
चंद साँसें मिल जायें,
कि इनकी यह बेजान मुस्कान
सजीव हो जाये,
कि इनकी पथराई हुई आँखों में
नव रस का सोता फूट पड़े !
सदियों से प्रतीक्षा है इन्हें
कि कोई मसीहा आयेगा
और इन्हें छूकर इनमें
प्राणों का संचरण कर जाएगा !
यूँ तो हर रोज़ हज़ारों आते हैं
लेकिन लेकिन ये बुत ज़माने से 
ऐसे ही खड़े हैं 
अपनी आँखों में वीरानी लिए हुए 
और अपने अधरों पर यह 
पथरीली मुस्कान ओढ़े हुए 
इनकी आँखों में
किसका ख्वाब है
किसकी प्रतीक्षा है
कौन जाने !


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद

     


Wednesday, October 3, 2018

हौसला




क्यों है हताशा साधना का
फल नहीं जो मिल सका,
क्यों है निराशा वंदना का
फूल जो ना खिल सका
हैं अनगिनत संभावनायें
राह में तेरे लिये,
दीपक जला ले आस का,
तम दूर करने के लिये !

हार कर यूँ बैठना
तेरी तो यह आदत नहीं,
भूल अपना पंथ
पीछे लौटना फितरत नही,
हौसला अपना जुटा ले
लक्ष्य बिलकुल पास है,
जीतना ही है तुझे
संकल्प तेरे साथ है !

ले ले दुआ उनकी
भरोसा है जिन्हें तदबीर पर,
तू थाम उनका हाथ
कातर हैं जो तेरी पीर पर,
जो जीतना ही है जगत को
हौसला चुकने ना दे,
होगी सुहानी भोर भी
तू रात को रुकने ना दे !


साधना वैद