Followers

Saturday, July 29, 2017

प्रतिकार



खेल शुरू हुआ था एक दूसरे पर गुलाब की पाँखुरियाँ फेंकने से ! खुशबूदार, रेशम सी कोमल, स्निग्ध, चिकनी, मुलायम पाँखुरियाँ ! सुखद अहसास जगातीं ! स्वयं को विशिष्ट होने का भान करातीं ! मन को आल्हाद से भरतीं फूलों की पाँखुरियाँ ! फिर जब पंखुरियाँ ख़त्म हो गयीं तो उनकी जगह फूल फेंके जाने लगे ! पाँखुरियाँ तोड़ने में वक्त जो लगता ! कौन समय बर्बाद करे ! सो यह भी देखने की ज़हमत किसीने न उठाई कि इन फूलों के साथ काँटे भी हैं ! बड़े-बड़े काँटों सहित फूल यहाँ वहाँ हल्की सी चोट देते ! कभी कहीं हलके से तो कभी कहीं ज़ोर से चुभते काँटे झुँझलाहट और रोष जगाने लगे ! विशिष्ट होने का सुखद अहसास शनै शनै मिटने लगा !
फूल ख़त्म हो गए पर अब खेल में मज़ा आने लगा ! अब एक दूसरे को सम्मानित करने में नहीं अपमानित करने में ! एक दूसरे को चोट पहुँचाने में ! अब खेल शुरू हुआ कंकड़ों से पत्थरों से ! अब जीतना परम ध्येय था ! येन केन प्रकारेण सामने वाले को धूल चटाना भी मकसद बन गया ! एक कंकड़ फेंकता तो दूसरा ढेला ! एक ढेला फेंकता तो दूसरा पत्थर ! बिना यह देखे कि सामने वाले को कितनी चोट लगी !
कब यह खेल आदत बन गया ! कब स्वभाव बन गया और फिर कब एक जुनून बन गया पता ही नहीं चला ! खेल में सब बराबर होते हैं ! नियम भी सबके लिए एक समान ही होते हैं ! न कोई छोटा न कोई बड़ा ! तो फिर कैसे रिश्ते, किसका लिहाज़ ! कैसी मान मर्यादा, कैसी लोक लाज ! अब तो सवाल जीतने का है ! और खेल में जीतता वही है जिसके पास छल बल कौशल है, ताकत है और है समर्थन अपने से भी अधिक शक्तिशाली का ! लेकिन बीतते वक्त के साथ उम्र भी तो बढ़ती है ! दोनों खिलाड़ी हमउम्र हों तो खेल बराबर का चलता रहता है लेकिन अगर उम्र का फासला बहुत अधिक हो तो एक की ताकत चुकने लगती है ! छोटा खिलाड़ी जो ताकतवर भी है और अभ्यस्त भी उसके सामने दूसरे वाले पाले में खड़ा निर्बल, असहाय, जर्जर हो चुका खिलाड़ी भला कैसे जीत सकता है जिसके पास न अब बल बाकी है, न जोश, और न होश !
खेल का एक नियम यह भी है कि खेल बराबर वालों में होता है लेकिन कभी-कभी खेल के मैदान में नियमों को ताक पर रख दिया जाता है ! सर्वमान्य आधिकारिक नियमों की जगह खिलाड़ी अपने नियम खुद बना लेते हैं क्योंकि उस वक्त उनमें बदला लेने की भावना सर्वोपरि हो जाती है ! यह भी तय है कि जीत उसीकी होती है जो ताकत में सामने वाले से कहीं अधिक बलशाली है ! वह जब ऐसे कमज़ोर पर, जो अब प्रतिकार में फूलों की पाँखुरी भी नहीं उठा सकता, भारी पत्थर से वार करेगा तो वह तो कुचल ही जाएगा ना ! लेकिन क्या यह जीत सच में जश्न मनाने लायक है ? ज़रा सुनें तो अपनी अंतरात्मा की आवाज़ अगर आपके पास अंतरात्मा बची हुई है कुछ सोच विचार के लिए !

साधना वैद  




Thursday, July 27, 2017

कारगिल दिवस पर विशेष - नमन है तुमको





टूटी चूड़ियाँ
धुल गयी मेंहदी
वीर की वधु



कैसा सावन
तुम बिन साजन
विष सा मधु



माता बेहाल
कैसी चिर निंद्रा में
सोया है लाल



झुके से कंधे
डगमगाती चाल
बापू का हाल



गर्व से ऊँचा
मस्तक है चाहे हो
मन में पीर



सीने पे झेला
हर वार शत्रु का
ऐसा था वीर



झुका है सर
नमन है तुमको
वीर जवान


याद रखेगा
शहादत तुम्हारी
सारा जहान


साधना वैद

Sunday, July 23, 2017

एक पिता की फ़रियाद



हमने भी जिया है जीवन ! मर्यादाओं के साथ ! मूल्यों के साथ ! सीमाओं में रह कर ! अनुशासन के साथ !

जीवन तुम भी जी रहे हो ! लेकिन अपनी शर्तों के साथ ! नितांत निरंकुश होकर ! बिना किसी दखलंदाजी के ! बिलकुल अपने तरीके से !

असहमति तब भी थी ! असंतोष तब भी था ! झुँझलाहट तब भी थी ! विरोध तब भी था ! हर नयी पीढ़ी का अपने से पुरानी पीढ़ी से कुछ न कुछ, कम या ज्यादह मतभेद स्वाभाविक है ! 
हर युग में होता है ! लेकिन हर युग में उसे व्यक्त करने के तरीके बदल जाते हैं !

तब असभ्यता नहीं थी ! उच्श्रन्खलता नहीं थी ! उद्दंडता नहीं थी और निर्लज्जता नहीं थी !

रिश्तों का सम्मान था ! छोटे बड़े का लिहाज़ था ! मर्यादा का मान था ! अनुशासन का ज्ञान था !

विरोध था लेकिन विद्रोह नहीं था ! असहमति थी लेकिन असभ्यता नहीं थी ! असंतोष था लेकिन जोड़ने और जुड़े रहने की भावना प्रबल थी ! गुस्से में यदि कभी मुँह खुल भी गया तो पश्चाताप भी था मानसिक अनुताप भी था ! झुकने से परहेज़ नहीं था ! माफी माँग लेने से कोई गुरेज़ नहीं था !

तुम्हारी छोटी छोटी भूलों और नादान शरारतों पर दूसरों के गुस्से से  
तुम्हें बचाने के लिए हम औरों से लड़ पड़ते थे ! अब औरों की
बड़ी बड़ी गलतियाँ और गुनाह छिपाने के लिए तुम हम से लड़ पड़ते हो !   

तुम्हारी हर छोटी से छोटी फरमाइश को पूरा करने के लिए मैंने लगभग हर रोज़ ओवरटाईम किया ! रोज़ रात को अपनी जेब खाली कर गिनता था कि तुम्हारे मुख की मुस्कान खरीदने के लिए अभी कितने रुपयों की ज़रुरत और है ! हिसाब तुम भी रोज़ लगाते हो कि आज दिन भर में मैंने चाय के कितने कप पिये और कितनी रोटियाँ अधिक बनानी पडीं ताकि गृहस्थी पर पड़े बोझ की चर्चा कर तुम मेरे मुख की मुस्कान छीन सको !

अब युग बदल गया है अब अपनी ही संतान अपने माता पिता से हिसाब माँगती है कि बचपन में उन्होंने अपने बच्चों के लिए क्या किया, कितना किया और जितना किया सिर्फ उतना ही क्यों किया ! माता पिता ने जो किया वह भी कैसे किया यह जानने की शायद उन्हें ज़रुरत ही नहीं !

लेकिन डंके की चोट पर दिन भर सबके सामने यह गाने और जतलाने में उन्हें कोई एतराज़ नहीं कि, भले ही महीने दो महीने ही सही, अपने वृद्ध, बीमार और असहाय माता पिता को ज़िंदा रखने की प्रक्रिया में उन्होंने कितना हाथ पैरों से काम किया और कितना धन व्यय किया !

जिन माता पिता ने जीवन भर संघर्ष कर अपना पेट काट अपनी हर इच्छा को मार बच्चों को सीने से लगा पैरों पर खड़ा कर दिया उनके वे ही दुलारे बच्चे उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी देर नहीं लगाते !

यह कलयुग है भाई यहाँ दूसरों की आँखों के तिनके गिनने के सब अभ्यस्त हैं लेकिन अपनी ही आँखों के शहतीर हटाना या तो उन्हें आता नहीं या वे इसकी ज़रुरत ही नहीं समझते !   


साधना वैद  

Thursday, July 20, 2017

सुबह हुई





सुबह हुई 
हमसफ़र चाँद 
घर को चला


देखो तो ज़रा 
क्षितिज के किनारे 
कौन है आया


दानी आदित्य 
लुटा रहा प्रकाश 
सहस्त्र हाथों


रवि रश्मियाँ 
सहलाएं तन को 
पुलकी धरा


दिव्य रश्मियाँ 
उतरीं धरा पर 
साक्षी हैं वृक्ष


स्वागत करे 
भुवन भास्कर का 
मुग्ध वसुधा


मौन पर्वत 
झर झर झरने 
करे नमन


पग पखारें 
कल कल नदियाँ 
मुदित मन


करे प्रकृति 
सुन्दर सुवासित 
पुष्प अर्पित


लदे हुए हैं 
फलों से तरुवर 
भोग के लिए


मुखर हुई 
विहगों के गान में 
ईश वन्दना


नत मस्तक 
झुकी अभ्यर्थना में 
धरा सुन्दरी


आँखें तो खोलो 
धन्य करो नयन 
दिव्य दृश्य से


जागी संसृति 
मन में आस लिए 
भोर हो गयी



साधना वैद

Monday, July 17, 2017

कुण्डली हाइकू - अभिनव प्रयोग




हार गयी मैं
और कितने गूँथूँ
फूलों के हार

दिये जलाये
प्रसन्न हो प्रभु ने
दर्शन दिये

दीवान लिखे
अत्याचारी राजा का
क्रूर दीवान

सोया जो बोया
रह गया बापू का
नसीब सोया

माँग थी छोटी
भर दें पिया मेरी
मोती से माँग

जंग हो बंद
हथियारों में लगे
भले ही जंग

पानी पिला दूँ
नानी याद करा दूँ
उतारूँ पानी

पान कराये
षठ रस व्यंजन
खिलाया पान

आम जन का
सबसे प्रिय फल
रसीला आम

खोया सिरे से
मिठाई की मंडी में
विशुद्ध खोया

 पीली चुनरी
लगने लगी नीली
थोड़ी जो पी ली !

सोना है पाना
तो करो परिश्रम
त्याग दो सोना

जीना शान से
सफल हो चढ़ना
  यश का जीना  

संग दिल हैं
प्रियतम फिर भी
रहूँ मैं संग


साधना वैद



  

Thursday, July 13, 2017

उपकार तुम्हारा



धुँधली सी रोशनी है 
धीमी सी आहट है 
मन के क्षितिज पर 
कोई सूरज उदित होने को है !
कल्पना का पंछी 
उड़ान भरने को बेकल है 
हे मेरे आराध्य 
उसके डैनों में 
इतनी शक्ति भर देना कि 
अपने गंतव्य तक पहुँचने में
उसे कोई बाधा न आये 
और प्रात की इस बेला में 
उसका मन उल्लास से 
उत्साह से भर जाए ! 
उपकार होगा तुम्हारा !




साधना वैद

Tuesday, July 11, 2017

बोलो, करोगे मुझसे दोस्ती ?





ऐ चाँद 
निरभ्र गगन में 
जगत के सामने अपनी 
शक्ति और सामर्थ्य का तुम चाहे 
जितना भी प्रदर्शन कर लो 
अपनी सम्पूर्ण भव्यता,
अप्रतिम सौन्दर्य और 
पूरी आन बान शान के साथ
पूरे दम ख़म से चाहे 
जितना भी चमक लो 
मैं जानती हूँ कि आज तुम 
कितने एकाकी हो 
कितने विकल हो 
बिलकुल मेरी ही तरह !
मैं जानती हूँ कि 
तुम्हारे पास भी कोई नहीं है 
जिसके कंधे पर सर रख कर 
तुम दो अश्रु बहा लो 
जिसकी ममता भरी गोद में 
मुख छिपा तुम अपने सारे दुःख 
सारी चिंताएं भुला 
दो घड़ी विश्राम कर सको ! 
मुझसे दोस्ती करोगे ? 
अगर करना चाहते हो 
तो अपना सारा दंभ 
सारा अहम् वहीं छोड़ 
नीचे आ जाओ ! 
देख रहे हो न तुम 
सागर की उत्ताल तरंगे भी 
कैसे व्याकुल होकर 
बुलाती हैं तुम्हें !
वहाँ गगन में ही चढ़े रहोगे तो 
निश्चित रूप से तुम 
अकेले ही रह जाओगे 
नीचे आ जाओगे तो तुम्हें 
खूब सारे साथी मिल जायेंगे ! 
हम दुनिया वालों को 
सबके दुःख दर्द बांटना 
आता भी है और भाता भी है 
बस शर्त यही है कि तुम्हें भी 
हमारी तरह ही बनना होगा 
एक सर्व साधारण सा आम इंसान ! 
राजसी ठाठ बाट से चिपके रहोगे 
तो अकेले ही रह जाओगे ! 
अब फैसला तुम्हारा है !



साधना वैद

Sunday, July 9, 2017

नफ़रत की आँधी

                                                                              


कितने जतन से तुमसे जुड़ी सारी
मधुर स्मृतियों को गहरे अतीत की 
निर्जन वीथियों में घुस कर मैं सायास
बीन बटोर कर सहेज लाई थी !
जिनमें शामिल थीं तुम्हारी बेतरतीब
भोली भाली तोतली बातें, तुम्हारा गुस्सा,
तुम्हारी मासूम शरारतें, तुम्हारी जिदें,  
तुम्हारी ढेर सारी चुलबुली शैतानियाँ,
टूटे दाँतों वाली तुम्हारी निश्छल मुस्कान और 
अतुलनीय स्नेह से सिक्त कुछ भीगे पल !   
कितनी गर्वित थी मैं अपने इस
अनमोल खजाने पर !
रोज़ कितने मान से कितने प्यार से
दुलार लेती थी इन मधुर पलों को !
इनका मृदुल स्पर्श झुठला देता था
वर्तमान की उन सारी कड़वी अनुभूतियों को,
कटु वचनों के ज़हर बुझे नश्तरों से
छलनी कर देने वाले तीखे प्रहारों को,  
और हृदय के उन सारे कसकते ज़ख्मों को
जो आज तक मेरे अंतर में रिसते रहे हैं !
तुमसे जुड़ी मधुर स्मृतियों से भरी
यह छोटा सी मंजूषा मेरे जीवन की
सबसे अनमोल निधि है,
सबसे अनुपम उपलब्धि है !
स्वर्गिक सुख की इस अनुभूति को मैं
आँखें मूँदे आत्मसात ही तो कर रही थी
जब अचानक ही नफ़रत भरे शब्दों की
तेज़ आँधी आई और उड़ा ले गयी
एक ही पल में मेरे उस अनमोल खजाने को
जिसको भली प्रकार से मैं
अभी सहेज भी न पाई थी !
सारी कोमल यादें. भीगे पल,
मीठी मधुर बातें, मृदुल स्पर्श
सब पल भर में ही न जाने कहाँ-कहाँ
इस चक्रवाती झंझा में उड़ने लगे हैं !  
मैं जी जान से अपनी समूची शक्ति लगा
उन्हें समेटने में लगी हुई हूँ कि
किसी तरह मेरे पास भी कुछ तो ऐसा
ठहर जाए जो उम्र के इस मुकाम पर
मेरे जीने का संबल बन जाए !
लेकिन क्षुद्र तिनके सी तितर बितर हो
उड़ती जातीं ये मधुर यादें मेरी आँखों से
प्रति पल ओझल होती जा रही हैं !
और मैं व्यथित, थकित, चकित सी
बिलकुल खाली हाथ खड़ी
यह सोच रही हूँ कि सच क्या था ?
अतीत का वह पावन नाता और
वो भूले बिसरे चंद मधुर पल  
या आज की यह मर्मान्तक
नफ़रत की आँधी ?


साधना वैद



Thursday, July 6, 2017

सूखा पेड़




वृद्ध होकर मैं धरा पर एक दिन गिर जाउँगा 
जानता हूँ मैं किसीके काम फिर ना आउँगा ! 

अब नहीं फलते रसीले आम मेरी शाख पर 
लग रहा बट्टा मेरी ऐश्वर्यशाली साख पर !

हैं नहीं पावन मुलायम पात वन्दनवार को 
पोंछने को हैं न पत्ते पथिक की श्रम धार को ! 

दे नहीं सकता हवा अब मैं किसी भी क्लांत को 
तनिक छाया दे न पाऊँ श्रांत से दिग्भ्रांत को ! 

संकुचित होते विहग भी बैठने में डाल पर 
पड़ न जाए काल की दृष्टि सुखी संसार पर ! 

है झुलाया जिनको वर्षों लोग वो डरने लगे 
टूट ना जाएँ मेरी सूखी भुजा कहने लगे ! 

किन्तु फिर भी हूँ खड़ा मैं आज भी अभिमान से 
हूँ अकिंचन आज पर जीवन जिया है शान से ! 

आज भी है हौसला और जोश भी कुछ कम नहीं 
दिया जो अब तक जगत को मान उसका कम नहीं !

जगत की अवहेलना का दंश चुभता है मुझे 
लिया जिसने ज़िंदगी भर दे सकेगा क्या मुझे ! 

जग मुखर सामर्थ्य पर अवसान पर वह मौन है 
वृद्ध दुर्बल जर्जरों का इस जगत में कौन है ! 

कोई समझे या न समझे है ‘उसे’ सबकी फिकर 
अनवरत संघर्ष पर मेरे ‘उसे’ होता फखर !

किया अभिनन्दन मेरा देकर मुझे सम्मान यह 
है मुझे स्वीकार मन और प्राण से वरदान यह ! 

मुकुट से जो दीखते हैं पात मेरे शीश पे 
किया है श्रृंगार प्रभु ने प्रेम से आशीष दे !



साधना वैद
चित्र - गूगल से साभार

Wednesday, July 5, 2017

ओ दाता मेरे




ओ दाता मेरे 
दरकार है मुझे
तेरी मेहर


जानता हूँ मैं 
रखता तू खबर 
शामो सहर


भुलाए दुःख 
तेरे ही कदमों में 
रख के सर


काहे का डर 
जब करता है तू
मेरी फिकर


जब भी हारा 
तूने दिया सहारा 
तेरा करम


हारीं मुश्किलें 
मिटी हैं मुसीबतें 
तेरा रहम


तू है सहारा 
निगहबाँ हमारा 
दीनो धरम


झोली पसारे
हैं दर पे तिहारे 
कैसी शरम


करें पुकार 
बख्श देना खताएं 
दे बस प्यार


नादाँ बड़े हैं 
भँवर की सफीना 
लगा दे पार


दिखा दे राह 
है उलझन बड़ी 
बन्दानवाज़


तू है करीम 
परवरदिगार 
सुन आवाज़



साधना वैद


Saturday, July 1, 2017

वापिसी




अभी तो लौटी हूँ !
मैं गयी तो थी निश्चित रूप से
यही सोच कर कि मैं
मंदिर में ही जा रही हूँ !
लेकिन वहाँ जो कुछ देखा
वह मुझे भ्रमित कर गया !
देवार्पण के लिए पूजा के थाल में
सुरभित सुगन्धित ताज़े फूलों की जगह
सूखी मुरझाई बासी पाँखुरियाँ थीं और
नैवेद्य के लिए मधुर फल और
सरस मिष्ठान्न के स्थान पर
विषैले फल और दूषित मिष्ठान्न
थाल में संजोया हुआ था !  
आरती के लिए सजाया गया वह दीप
शुद्ध घी का पावन दीप नहीं था !
उसे तैयार किया गया था
ऐसे भीषण ज्वलनशील पदार्थ से
जिसके जलते ही सर्वस्व जल कर
भस्म हो जाये और सबके हृदय
भयाक्रांत हो जायें !
प्रभु के माथे पर तिलक का
श्रृंगार करने के लिए वहाँ
चन्दन और कुमकुम का
शीतल लेप नहीं था वहाँ था
ऐसा लेप जो अंतिम समय में
तैयार करते समय शवों के ललाट पर
लगाया जाता है उनके
महाप्रस्थान से पहले !  
प्रार्थना के मंत्रों और श्लोकों में  
न विनय थी, न भक्ति,
न दीनता थी, न करुणा    
स्वरों में जो स्पष्ट रूप से
ध्वनित हो रही थी वह थी
किसी अघोरी तांत्रिक की
प्रेत साधना की ऐसी हुंकार,
ऐसी ललकार, ऐसी चुनौती
जो किसी का भी कलेजा चीर दे !
पूजा की ऐसी सारी विधियाँ  
किसी प्रेम, किसी सामंजस्य,  
किसी श्रद्धा, किसी समर्पण को
परिभाषित नहीं कर रही थीं  
वे तो परिभाषित कर रही थीं बस
ऐसे अलगाव को, ऐसी टूटन को,
ऐसे बिखराव, ऐसे विघटन को
जिसके बाद कुछ भी समेटना
नितांत असंभव हो जाए !
मन में इतनी अशांति और द्वन्द्व है  
कि सोच ही नहीं पा रही हूँ
मैं किसी मंदिर से लौटी हूँ या
फिर किसी श्मशान से !


साधना वैद