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Thursday, August 30, 2018

कौन है बैरी



कौन है बैरी
किसे माने वह अपना बैरी
उस माँ को जिसने उसे जीवन दिया
एक कच्ची मिट्टी के ढेर को
आकार दे उसकी सुन्दर मूरत गढ़ी 
सद्शिक्षा और सद्संस्कार दे
उसके व्यक्तित्व को निखारा सँवारा
संसार के सारे सुख और खुशियाँ दीं
और जीवन संगीत की मधुर स्वर लहरी में
अपना सुर जोड़ उसे गाना सिखाया !
या बैरी माने वह अपने पिता को
जिन्होंने विद्यालयों और महाविद्यालयों
की शिक्षा के साथ-साथ उसे
सदा मर्यादा और अनुशासन का
पाठ पढ़ाया और शिक्षित बना दिया,
जीवन की कड़ी धूप में घना साया बन
जिन्होंने सदा उसकी रक्षा की
और कभी उसे कुम्हलाने नहीं दिया !
फिर कहाँ कमी रह गयी कि
हर प्रकार से सर्वगुण संपन्न,
सक्षम, सुयोग्य, सुशिक्षिता यह नारी
आज हारी हुई खड़ी है  
कौन है उसका बैरी ?
क्या भाग्य ? या यह समाज ?
या कुसंस्कारी हैवानों की गंदी सोच
और घटिया मानसिकता ?
क्यों वह आज निर्भय होकर
बाहर निकल नहीं सकती ?
क्यों वह ‘इंसानों’ की इस भीड़ में
स्वयं को सुरक्षित नहीं पाती ?
क्यों ‘इंसानों’ की इस भीड़ में उसे
कोई अपना दोस्त नहीं मिलता ?
क्यों ‘इंसानों’ की इस भीड़ में हर शख्स
उसे अपना बैरी दिखाई देता है ?
कोई बताएगा
कहाँ क्या ग़लत है
और है तो वह क्यों ग़लत है ?




चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद 





Saturday, August 25, 2018

वो आँखें






नहीं भूलतीं वो आँखें !

मुझे छेड़तीं, मुझे लुभातीं,
सखियों संग उपहास उड़ातीं,
नटखट, भोली, कमसिन आँखें !

हर पल मेरा पीछा करतीं,
नैनों में ही बाँधे रहतीं,
चंचल, चपल, विहँसती आँखें !

मुझे ढूँढतीं, मुझे निरखतीं,
मुझे देख कर खिल-खिल उठतीं,
इंतज़ार में व्याकुल आँखें !

मुझ पर फिर अनुराग जतातीं,
कभी रूठतीं, कभी मनातीं,
स्नेह भार से बोझिल आँखें !

प्रथम प्रणय के प्रथम निवेदन 
पर लज्जा से सिहर-सिहर कर 
सकुचाती, शर्माती आँखें !

कभी बरजतीं, कभी टोकतीं,
कभी मानतीं, कभी रोकतीं,
मर्यादा में सिमटी आँखें !

विरह व्यथा से अकुला जातीं,
बात-बात में कुम्हला जातीं,
नैनन नीर बहाती आँखें !

पर पीड़ा से भर-भर आतीं,
चितवन से ही सहला जातीं,
करुणा कलश लुटाती आँखें !

जिनके भावों में भाषा है,
जिनकी भाषा में कविता है,
मौन, मुखर, मतवाली आँखें !

जिनमें रह कर जीना सीखा,
जिनमें बह कर तरना सीखा,
अंतर पावन करती आँखें !

साधना वैद

चित्र - गूगल से साभार

तुम आओगे ना




रात ने अपनी अधमुँदी आँखे खोली हैं
सुबह ने अपने डैने पसार अँगड़ाई ली है ।
नन्हे से सूरज ने प्रकृति माँ के आँचल से मुँह घुमा 
संसार को अपनी उजली आँखों से देखा है ।

दूर पर्वत शिखरों पर देवताओं की रसोई में
सुर्ख लाल अँगीठी सुलग चुकी है ।
कल कल बहते झरनों का आल्हादमय संगीत
सबको आनंद और स्फूर्ति से भर गया है ।

सुदूर गगन में पंछियों की टोली पंख पसार
अनजाने अनचीन्हे लक्ष्य की ओर उड़ चली है ।
फूलों ने अपनी पाँखुरियों से ओस के मोती ढुलका
बाल अरुण को अपना मौन अर्घ्य दिया है ।

मेरे मन में भी एक मीठी सी आशा अकुलाई है
मेरे मन में भी उजालों ने धीरे से दस्तक दी है ।
मेरे मन ने भी पंख पसार आसमान में उड़ना चाहा है
मेरे कण्ठ में भी मीठी सी तान ने आकार लिया है ।

मेरी करुणा के स्वर तुम तक पहुँच तो जायेंगे ना !
झर झर बहते अश्रुबिन्दु का अर्घ्य तुम्हें स्वीकृत तो होगा !
मैंने अंतर की ज्वाला पर जो नैवेद्य बनाया है प्रियतम
उसे ग्रहण करने को तो तुम आओगे ना !

साधना वैद

चित्र - गूगल से साभार

Friday, August 17, 2018

कर दिया परिचित मुझे




है बड़ा उपकार तेरा
हम तो कुछ वाकिफ न थे
ज़िंदगी की तल्खियों से
हो गया परिचय मेरा !

कर दिया तूने मुझे परिचित
कठिन उस राह से
जिसमें केवल ठोकरें थीं,
कष्ट थे और शूल भी
कर लिए स्वीकार मैंने
जान कर तोहफा तेरा
वरना मेरी राह में
खुशियाँ भी थीं और फूल भी !

कर दिया तूने मुझे परिचित
विवश उस कैद से
जिसमें केवल दर्द था
आँसू भी थे और रंज भी
कर लिया स्वीकार पिंजरा
छोड़ कर नीला गगन  
   वरना उड़ने को बहुत था     
हौसला और पंख भी !

कर दिया तूने मुझे परिचित
व्यथा के नाम से
जहाँ थी पीड़ा सघन
बेनाम और बेआस सी,
कर लिया स्वीकार मैंने
इसको भी खामोश हो
वरना थी कोई कमी 
   ना हर्ष ना उल्लास की !  


साधना वैद





Wednesday, August 15, 2018

उलझन




अभी तक समझ नहीं पाई कि 
भोर की हर उजली किरन के दर्पण में 
मैं तुम्हारे ही चेहरे का 
प्रतिबिम्ब क्यों ढूँढने लगती हूँ ?
हवा के हर सहलाते दुलराते 
स्नेहिल स्पर्श में
मुझे तुम्हारी उँगलियों की 
चिर परिचित सी छुअन 
क्यों याद आ जाती है ?
सम्पूर्ण घाटी में गूँजती 
दिग्दिगंत में व्याप्त 
हर पुकार की 
व्याकुल प्रतिध्वनि में 
मुझे तुम्हारी उतावली आवाज़ के 
आवेगपूर्ण आकुल स्वर 
क्यों याद आ जाते हैं ?
यह जानते हुए भी कि 
ऊँचाई से फर्श पर गिर कर 
चूर-चूर हुआ शीशे का बुत 
क्या कभी पहले सा 
जुड़ पाता है ? 
धनुष की प्रत्यंचा से छूटा तीर 
लाख चाहने पर भी लौट कर
क्या कभी विपरीत दिशा मेंं 
मुड़ पाता है ? 
वर्षों पिंजरे में बंद रहने के बाद 
रुग्ण पंखों वाला असहाय पंछी
दूर आसमान में अन्य पंछियों की तरह
क्या कभी वांछित ऊँचाई पर 
उड़ पाता है ?
मेरा यह पागल मन 
ना जाने क्यूँ 
उलझनों के इस भँवर जाल में
आज भी अटका हुआ है । 


साधना वैद

Friday, August 10, 2018

शहीदों को नमन



धन्य हो गई
धरा जहाँ तुमने
रक्त बहाया !

याद रखेंगे
तुम्हारा बलिदान
हमारे प्राण !

नैनों में नीर
हृदय अभिमान
वीर जवान !

ऋणी रहेंगे
हिफाज़त के लिये
सदा तुम्हारे !

किया अर्पण
तन मन जीवन
देश के हित !

गर्वित किया
किया रक्ताभिषेक 
भारत माँ का !

सब भुलाया
  रिश्ता निभाया सिर्फ  
शमशीर से !

हार न मानी
 शत्रु को मैदान में  
धूल चटाई !

वीर जवान
करें भारतवासी
तुम्हें सलाम !

नहीं भूलेगा
तुम्हारी शहादत
कृतज्ञ राष्ट्र !



साधना वैद

  

Thursday, August 9, 2018

यह कैसी भक्ति है ?



सावन का महीना है ! हर तरफ भोले बाबा के जयकारे लग रहे हैं ! सारा भारत इन दिनों शिवमय हो रहा है और भोले भंडारी की भक्ति में लीन है ! परम भक्ति भाव से लाखों की संख्या में काँवड़िये बड़े कष्ट झेल कर भगवान शिव की यात्रा निकालते हैं और नंगे पाँव चल कर सैकड़ों मील की दूरी तय करते हैं ! उनकी यह आस्था और भक्ति देख कर मन असीम श्रद्धा से भर उठता है !
काँवड़ियों की इस यात्रा में कोई व्यवधान ना आये इसके लिए समाज के लोग भी सजग एवं सतर्क रहते हैं एवं प्रशासन भी हर संभव प्रयास करता है कि उनकी यात्रा में बाधा न आये और उनका काफिला निर्द्वद्व भाव से निकल जाए ! स्थान - स्थान पर उनकी सेवा परिचर्या एवं खाने पीने की व्यवस्था का ध्यान रखते हुए अनेकों शिविर लगाए जाते हैं और प्रशासन भी उनकी प्राथमिकताओं का ध्यान रखते हुए चाक चौबस्त रहता है ! उनके जत्थों के निकलने के समय पर अक्सर ट्रैफिक डाइवर्ट कर दिया जाता है और ध्यान रखा जाता है कि उन सडकों पर यथासंभव कम आवाजाही हो जहाँ से उन्हें निकलना होता है ! कई शहरों में तो स्कूल इत्यादि भी बंद कर दिए जाते हैं कि सड़कें खाली रहें ! लेकिन कभी न कभी कहीं न कहीं से किसी दुर्घटना या किसी अप्रिय प्रसंग के समाचार सुनने को मिल ही जाते हैं !

दिल्ली के मोतीनगर में और बुलंद शहर में हुई घटनाएं हमें सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे साल छिपे रहने वाले असामाजिक तत्व धर्म और आस्था की आड़ लेकर इन्हीं दिनों हमारे बीच सक्रिय हो जाते हैं और भक्ति भाव के मुखौटों में छिपे उनके असली चेहरों को लोग पहचान नहीं पाते ! ऐसा क्यों होता है कि उनको देख कर हमारी पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था इतनी लाचार और भीरु हो जाती है कि उपद्रवकारी निरंकुश हो हिंसा और गुंडागर्दी पर उतर कर सरे आम मार काट पर उतर आते हैं और वे सिर्फ तमाशाई बन खड़े रह जाते हैं ! काँवड़ियों का यह उपद्रव किसी भी दृष्टिकोण से सही एवं क्षम्य नहीं है ! धार्मिक गतिविधि से जुड़े होने का यह अर्थ कदापि नहीं कि वे सामान्य नागरिक से ऊपर हो गए हैं या सारा अनुशासन एवं कायदा क़ानून उनकी जेब में आ गया है ! ऐसी स्थिति आये तो पुलिस को पूरी सख्ती के साथ उपद्रवकारियों से निबटना चाहिए और आवश्यक्ता हो तो उन्हें दण्डित भी करना चाहिए ताकि जन धन की हानि को रोका जा सके !
कोई धर्म हिंसा की हिमायत नहीं करता ! फिर काँवड़ियों के इस अधार्मिक कृत्य को क्यों नज़रअन्दाज़ किया जाता है ! हर धर्म दया, करुणा, प्रेम और क्षमा का मार्ग दिखाता है हिंसा का नहीं ! फिर ये किस धर्म का पालन कर रहे हैं ?

साधना वैद

Wednesday, August 8, 2018

कितना चाहा




कितना चाहा
कि अपने सामने अपने इतने पास
तुम्हें पा तुम्हें छूकर तुम्हारे सामीप्य की अनुभूति को जी सकूँ,
लेकिन हर बार ना जाने कौन सी
अदृश्य काँच की दीवारों से टकरा कर 
मेरे हाथ घायल हो जाते हैं
और मैं तुम्हें छू नहीं पाती ।
कितना चाहा
कि बिन कहे ही मेरे मन की मौन बातों को तुम सुन लो
और मैं तुम्हारी आँखों में उजागर
उनके प्रत्युत्तर को पढ़ लूँ,
लेकिन हर बार मेरी मौन अभ्यर्थना तो दूर
मेरी मुखर चीत्कारें भी समस्त ब्रह्मांड में गूँज
ग्रह नक्षत्रों से टकरा कर लौट आती हैं
लेकिन तुम्हारे सुदृढ़ दुर्ग की दीवारों को नहीं बेध पातीं ।
कितना चाहा
कि कस कर अपनी मुट्ठियों को भींच
खुशी का एक भी पल रेत की तरह सरकने ना दूँ,
लेकिन सारे सुख न जाने कब, कैसे और कहाँ
सरक कर मेरी हथेलियों को रीता कर जाते हैं
और मैं इस उपमान की परिभाषा को बदल नही पाती ।
कितना चाहा
कि मौन मुग्ध उजली वादियों में
सुदूर कहीं किसी छोर से हवा के पंखों पर सवार हो आती
अपने नाम की प्रतिध्वनि की गूँज मैं सुन लूँ
और वहीं पिघल कर धारा बन बह जाऊँ,
लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाता
और मैं अपनी अभिलाषा को कभी कुचल नहीं पाती ।

साधना वैद

Saturday, August 4, 2018

कल रात ख्वाब में


कल रात ख्वाब में
मैं तुम्हारे घर के कितने पास
पहुँच गयी थी !
तुम्हारी नींद ना टूटे इसलिये
मैंने दूर से ही तुम्हारे घर के
बंद दरवाज़े को
अपनी नज़रों से सहलाया था
और चुपके से
अपनी भीगी पलकों की नोक से
उस पर अपना नाम उकेर दिया था !
सुबह को जब तुमने दरवाजा खोला होगा
तो उसे पढ़ तो लिया था ना ?

तुम्हारे घर की बंद खिड़की के बाहर
मैंने अपने आँचल में बंधे
खूबसूरत यादों के सारे के सारे पुष्पहार
बहुत आहिस्ता से नीचे रख दिये थे !
सुबह उठ कर ताज़ी हवा के लिये
जब तुमने खिड़की खोली होगी
तो उनकी खुशबू से तुम्हारे
आस पास की फिजां
महक तो उठी थी ना ?

तुम्हारे घर के सामने के दरख़्त की
सबसे ऊँची शाख पर
अपने मन में सालों से घुटती एक
लंबी सी सुबकी को
मैं चुपके से टाँग आई थी
इस उम्मीद से कि कभी
पतझड़ के मौसम में
तेज़ हवा के साथ
उस दरख़्त के पत्ते उड़ कर
तुम्हारे आँगन में आकर गिरें तो
उनके साथ वह सुबकी भी
तुम्हारी झोली में जा गिरे !

तुम अपने बगीचे की क्यारी में
पौधे रोपने के लिये जब
मिट्टी तैयार करोगे तो
तुम वहाँ मेरे आँसुओं की नमी
ज़रूर महसूस कर पाओगे
शायद मेरे आँसुओं से सींचे जाने से
तुम्हारे बाग के फूल और स्वस्थ,
और सुरभित, और सुन्दर हो जायें !

अपने मन में उठती भावनाओं को
गीतों में ढाल कर मैंने
खामोशी के स्वरों में
मन ही मन दोहरा लिया था !
कहीं मेरी आवाज़ से, मेरी आहट से
तुम्हारी नींद ना टूट जाये
मैं चुपचाप दबे पाँव वापिस लौट आई थी !
मेरे वो सारे गीत सितारे बन के
आसमान में चमक रहे हैं
तुम जब आसमान में देखोगे
तो हर तारा रुँधे स्वर में
तुमसे मेरी ही बात करेगा
तुम उन बातों को समझ तो पाओगे ना ?

साधना वैद

Thursday, August 2, 2018

सपने



रफ्ता-रफ्ता सारे सपने पलकों पर ही सो गये ,
कुछ टूटे कुछ आँसू बन कर ग़म का दरिया हो गये !

कुछ शब की चूनर के तारे बन नज़रों से दूर हुए ,
कुछ घुल कर आहों में पुर नम बादल काले हो गये !

कुछ बन कर आँसू कुदरत के शबनम हो कर ढुलक गये ,
कुछ रौंदे जाकर पैरों से रेज़ा रेज़ा हो गये !

कुछ दरिया से मोती लाने की चाहत में डूब गये ,
कुछ लहरों ने लीले, कुछ तूफ़ाँ के हवाले हो गये !

कुछ ने उड़ने की चाहत में अपने पर नुचवा डाले ,
कुछ थक कर अपनी ही चाहत की कब्रों में सो गये !

कुछ गिर कर शीशे की मानिंद चूर-चूर हो बिखर गये ,
कुछ जल कर दुनिया की तपिश से रेत का सहरा हो गये !

अब तक जिन सपनों के किस्से तहरीरों में ज़िंदा थे ,
क़ासिद के हाथों में पड़ कर पुर्ज़ा-पुर्ज़ा हो गये !

अब इन आँखों को सपनों के सपने से डर लगता है ,
जो बायस थे खुशियों के रोने का बहाना हो गये !




साधना वैद