नहीं लुभाती अब
पूर्णिमा के चाँद की
दुग्ध धवल सी
रुपहली ज्योत्सना और
माथे को सहला कर
प्यार से जगातीं
उगते सूरज की नर्म
मुलायम सुनहरी किरणें !
नहीं सुहातीं अब
ग्रीष्म की तपती
झुलसती शामों में
आसमान में हर ओर से
उमड़ घुमड़ कर गहराती
आतीं श्याम घटायें और
खिड़की से बाहर निकली
हथेलियों पर गिरतीं
रिमझिम फुहारों की
नन्ही-नन्ही शीतल बूँदें !
नहीं मन चाहता अब
गुलमोहर, पलाश और
अमलतास के लाल पीले
फूलों से लदे वृक्षों को
घंटों अपलक निहारना
और बाग के सुन्दर
सुगन्धित फूलों पर मँडराती
खूबसूरत तितलियों का
दूर तक पीछा करना !
नहीं आकर्षित करते अब
हिमाच्छादित उन्नत
पर्वत शिखर और उन पर
रक्तिम आभा बिखेरतीं
सूर्योदय और सूर्यास्त की
रक्तवर्णी किरणें !
नहीं लगते अब कुछ
मन की बातें
कहते सुनाते से
नहीं लगते अब कुछ
मन की बातें
कहते सुनाते से
पहाड़ के सीने को चीर
झर-झर बहते
गाते गुनगुनाते झरने और
पतली उथली वेगवान
पहाड़ी नदियाँ !
नहीं अच्छी लगतीं अब
आसमान में उड़तीं
आकाश से बातें करतीं
रंग बिरंगी खूबसूरत पतंगें
और अपनी मस्ती में चूर
जोश और उमंग से
नभ में ऊँची उड़ान भरतीं
एक के पीछे एक
सुन्दर चहचहाते पंछियों की
अनगिनती टोलियाँ !
नहीं जानती मैं कि
उम्र बीत चली है या
फिर मन ही इतना
विरक्त हो गया है
कि अब दिल को
कुछ भी छू नहीं पाता
बस इतना जानती हूँ कि
अंतर के इस वीराने में
एक अंतहीन तप्त मरुथल
पसरा हुआ है और
पसरा हुआ है एक
कभी न खत्म होने वाला
भयावह सन्नाटा
जहाँ अपनी ही
पदचाप सुन कर मैं
सिहर-सिहर जाती हूँ !
साधना वैद
साधना वैद
बहुत सुँदर...मन को छू गई💕
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद उषा जी ! आभार आपका !
Deleteबहुत खूब|मन को छूती रचना |
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जी ! दिल से आभार आपका !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteभयावह सन्नाटा
ReplyDeleteजहाँ अपनी ही
पदचाप सुन कर मैं
सिहर-सिहर जाती हूँ !
बहुत सुंदर बिम्ब!
हार्दिक धन्यवाद विश्वमोहन जी ! स्वागत है !
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनुराधा जी! बहुत बहुत आभार आपका !
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