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Friday, December 31, 2010

स्वागतम् नव वर्ष

नया साल २०११ आप सभीके लिये मंगलमय हो और आपकी हर मनोकामना पूर्ण हो यही शुभकामना है !


हर्ष और उल्लास का बन कर प्रतीक
सुबह का सूरज गगन पर है चढ़ा,
अश्रु आँखों में लिये बोझिल हृदय
चाँदनी का काफिला आगे बढ़ा ।

भोर की पहली किरण के साथ में
अल्पना के बेल-बूटे हैं सजे ,
खेत पोखर पनघटों के रास्ते
उल्लसित मन ग्रामवासी हैं चले ।

झूम कर प्रकृति सजाती साज है
है वसंती भाव स्वागत गान में,
नत वदन है खेत में सरसों खड़ी
गा रहे पंछी सुरीली तान में ।

ओस की हर जगमगाती बूँद में
और कल कल छलकती जलधार में,
बालकों की निष्कपट मुस्कान में
मन्दिरों में गूँजते प्रभुगान में ।

घन चलाते हाथ के आघात में
लपलपाती भट्टियों की ज्वाल में,
भोर के सूरज तेरी अभ्यर्थना
बोझ लादे हर श्रमिक की चाल में ।

आँख से पर्दे हटा अज्ञान के
चीर दे अवसाद का यह अंधकार,
जगमगा दे विश्व ज्ञानालोक से
दूर कर दे मनुज चिंतन के विकार ।

मान लेना तू मेरी यह प्रार्थना
हो तेरा अनुग्रह हमारी श्वास पे,
विश्व सारा कर रहा स्वागत तेरा
इसी आशा और इस विश्वास पे ।

साधना वैद्

यह साल भी आखिर बीत गया

साल का अंत हमें हमेशा पीछे मुड़ कर देखने के लिये मजबूर करता है और कम से कम मुझे तो उदास कर जाता है ! कल नया वर्ष आरम्भ होगा हम उत्साह और जोश से भर कर उसका स्वागत करेंगे ! लेकिन इस पर भी विचार करना ज़रूरी है कि बीते वर्ष का हमारा हासिल क्या रहा !

यह साल भी आखिर बीत गया ।

कुछ खून बहा, कुछ घर उजड़े,
कुछ कटरे जल कर राख हुए,
कुछ झीलों का पानी सूखा,
कुछ सुर बेसुर बर्बाद हुए ।
कुछ विरहा से कुछ तीली से
जल जीवन का संगीत गया ।

यह साल भी आखिर बीत गया ।

कुछ आँचल फट कर तार हुए,
कुछ दिल ग़म से बेज़ार हुए,
कुछ बहनों की उजड़ी माँगें,
कुछ बचपन से लाचार हुए ।
मौसम तो आये गये बहुत
दहशत का मौसम जीत गया ।

यह साल भी आखिर बीत गया ।

कुछ लोगों ने जीना चाहा
कुछ जानों का सौदा करके,
कुछ लोगों ने मरना चाहा
कुछ सिक्कों का सौदा करके ।
कुछ वहशत से कुछ नफरत से
खुशियों का हर पल रीत गया ।

यह साल भी आखिर बीत गया ।

सभी शहीदों को मेरा भावभीना नमन !

साधना वैद

Tuesday, December 28, 2010

वेदना की राह पर

वेदना की राह पर
बेचैन मैं हर पल घड़ी ,
तुम सदा थे साथ फिर
क्यों आज मैं एकल खड़ी !

थाम कर उँगली तुम्हारी
एक भोली आस पर ,
चल पड़ी सागर किनारे
एक अनबुझ प्यास धर !

मैं तो अमृत का कलश
लेकर चली थी साथ पर ,
फिर भला क्यों रह गये
यूँ चिर तृषित मेरे अधर !

मैं झुलस कर रह गयी
रिश्ते बचाने के लिये ,
मैं बिखर कर रह गयी
सपने सजाने के लिये !

रात का अंतिम पहर
अब अस्त होने को चला ,
पर दुखों की राह का
कब अंत होता है भला !

चल रही हूँ रात दिन
पर राह यह थमती नहीं ,
कल जहाँ थी आज भी
मैं देखती खुद को वहीं !

थक चुकी हूँ आज इतना
और चल सकती नहीं ,
मंजिलों की राह पर
अब पैर मुड़ सकते नहीं

कल उठूँगी, फिर चलूँगी
पार तो जाना ही है ,
साथ हो कोई, न कोई
इष्ट तो पाना ही है !

साधना वैद

Saturday, December 25, 2010

क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें

 


आज आप सभी का परिचय एक बाल कवि से करवा रही हूँ ! यह है मेरा नन्हा सा पोता श्रेयस ! २७ दिसंबर को यह सात वर्ष का होने जा रहा है ! लेकिन अभी से इसमें कवितायें बनाने का शौक आकार ले रहा है ! इसकी बनाई कम्पोज़िशंस इसकी मम्मी कॉपी में लिखती रहती हैं और मेरे पास भेज देती हैं क्योंकि अभी वह खुद इतना लिख नहीं पाता ! श्रेयस अमेरिका में ही रहता है और उसे हिन्दी कम आती है ! उसकी कंपोजिशंस अंग्रेज़ी में ही होती हैं ! आज की रचना सामयिक है इसलिए मैंने सोचा इसे आप सबके साथ शेयर करूँगी तो आप सबको भी अवश्य प्रसन्नता होगी ! मुझे पूरा विश्वास है यह आपको ज़रूर पसंद आयेगी !

I am a snowman
I love my hat
But one day
My hat flew away,
I was so sad
Because it was my favorite hat.

Then Santa came over,
He saw my hat,
He gave me a lift
To a giant tree top.
And that's how
I found my hat.
My favorite hat.
I am a snowman
I love my hat.

Shreys Vaid
Posted by Picasa

Friday, December 24, 2010

गुत्थी

कभी-कभी
नितांत अजनबी,
अपरिचित चेहरों पर
जैसा अपनत्व,
जैसी गहन आत्मीयता,
और जैसी
एक कोमल सी अंतरंगता का
मधुर सा प्रतिबिम्ब झलक जाता है
वह उन चेहरों की रुखाई
और अजनबियत से कितना
अलग होता है ना
जिन्हें ईश्वर ने
आपका सगा संबंधी बना कर
इस धरती पर भेजा है,
और जिनके लिये आपने
ना जाने
कितनी कसमसाती रातों के
अंधेरों की दहशत
और कितने सुलगते दिनों की
तपती धूप को
उनकी हर विपदा में
उनके साथ झेला है ?

कभी-कभी
किसी नितांत अजनबी,
अपरिचित की वाणी में
कितनी मिठास,
कितना अपनापन और
कितनी सच्चाई महसूस होती है ना
जो आप अपने उन तथाकथित
‘अपनों’ की वाणी में ढूँढने का
बारम्बार भागीरथ प्रयास
करते रहते हैं
लेकिन हर बार
निराशा ही
आपके हाथ लगती है ?

कभी-कभी
कुछ लम्हों की
क्षणिक मुलाक़ात में ही
ना जाने कैसे
किसी अनजान अपरिचित के सामने
आपको अपना हृदय उड़ेल कर
रख देने की प्रेरणा मिल जाती है ना
जिसकी थाह
सदैव आपके साथ रहने वाले
आपके निकटतम संबंधी भी
कभी नहीं ले पाते ?

बहुत सोचती हूँ
ऐसा क्यों हो जाता है ,
ऐसा कैसे हो जाता है ,
लेकिन यह गुत्थी
मैं कभी
सुलझा नहीं पाती !

साधना वैद

Sunday, December 12, 2010

मुझे आता है

मुझे खुशियों के संदेशों
के भीतर दबी
दर्द की इबारतों को
पढ़ना और उस
दर्द में छिपी
अनकही व्यथा कथा को
गुनना आता है !

मुझे आँसुओं के गहरे
समंदर में उतर
सब्र की सीपियों से
मिथ्या मुस्कुराहट के
नकली मुक्ताओं को
चुनना और
उन्हें चुन कर
अपने लिये माला
पिरोना आता है !

स्कूल कॉलेज की
किताबों की पढ़ाई ने
चाहे कभी
सिखाया हो या नहीं
किन्तु जीवन के
अनुभवों की पढ़ाई ने
मुझे जी जी कर मरना
और मर मर कर जीना
अच्छी तरह
सिखाया है!
और शायद इसीलिये
अब मुझे
ज़िंदा लाशों और
मुर्दा इंसानों में फर्क
करना बखूबी
आ गया है !

साधना वैद

Wednesday, December 8, 2010

एक सवाल

वाराणसी के धमाके ने एक बार फिर सबको दहला दिया है ! यह सब
हमारे यहाँ शायद इतनी आसानी से इसलिए घटित हो जाता है क्योंकि
अत्यंत धीमी न्याय प्रक्रिया की वजह से आतंकवादी बखौफ रहते हैं और
उन्हें स्थानीय लोगों की निर्बाध सहायता मिल जाती है जो क्षुद्र स्वार्थों की
पूर्ति के लिये अपने देश के साथ गद्दारी करने से ज़रा भी नहीं हिचकिचाते !

एक सवाल

कल फिर बनारस में एक
धमाका हुआ ,
एक माँ की गोद सूनी
एक पिता के मन के आँगन में
सन्नाटा हुआ !
एक नन्हीं सी जान ने
नफ़रत और आतंक के
घातक वार को
अपनी छाती पर झेला है !
उसकी बलि लेकर
शायद उन नर पिशाचों के
कलेजे में ठंडक पड़ गयी हो
जिन्होंने दरिंदगी भरा
यह घिनौना खेल खेला है !
जिन हाथों ने
इस बम को लगाया होगा
क्या उन्होंने भी कभी
अपनी मासूम बच्ची को
अपने सीने से लगा कर
उसके बालों को प्यार से
सहलाया होगा ?
जिन उँगलियों ने
इस बेजान रिमोट के
विध्वंसक ट्रिगर को
दबाया होगा
क्या उन्होंने भी कभी
दर्द से बिलखते
अपने बच्चे के
आँसुओं को पोंछ कर
रूमाल से
सुखाया होगा ?
कैसे कोई इतना
बेरहम हो सकता है ?
कैसे कोई सर्वशक्तिमान
उनके इस गुनाह को
उनके इस अक्षम्य पाप को
माफ कर सकता है ?
यहाँ तो उन्हें सज़ा मिलने में
शायद सालों लग जाएँ
लेकिन हे ईश्वर !
अगर तू कहीं है
तो कब उस अबोध नन्हीं बच्ची को
न्याय मिल पायेगा
जो इस जघन्य काण्ड की
अकारण शिकार हुई है !


साधना वैद

Friday, December 3, 2010

मेरा दिल तब-तब रोता है

अपनी इस रचना में मैंने अपने आस पास के जीवन से उद्धृत दो विभिन्न प्रकार के दृश्यों को चित्रित करने का प्रयास किया है ! ये दृश्य हम प्रतिदिन देखते हैं और शायद इतना अधिक देखते हैं कि इनके प्रति हमारी संवेदनाएं बिलकुल मर चुकी हैं ! लेकिन आज भी जब इतने विपरीत विभावों को दर्शाती ऐसी तस्वीरें मेरे सामने आती हैं मेरा मन दुःख से भर जाता है ! समाज में व्याप्त इस असमानता और विसंगति को मिटाने के लिये क्या हम कुछ नहीं कर सकते ? क्या करें कि सारे बच्चे एक सा खुशहाल बचपन जी सकें खुशियों से भरपूर, सुख सुविधा से संपन्न ! जहाँ उनके लिये एक सी अच्छी शिक्षा हो, सद्विचार हों, अच्छे संस्कार हों, स्वस्थ वातावरण हो और सबके लिये उन्नति के सामान अवसर हों ! क्या ऐसे समाज की परिकल्पना अपराध है ? क्या ऐसे समाज की स्थापना के लिये हम कुछ नहीं कर सकते ? क्या ऐसे सपनों को साकार करने के लिये किसीके पास कोई संकल्पना, सुझाव या सहयोग का दिशा निर्देश नहीं ? क्या आपका हृदय ऐसे दृश्य देख कर विचलित नहीं होता ? इस रचना में 'उनका' शब्द सुख सुविधा संपन्न अमीर वर्ग के लिये प्रयुक्त किया गया है !

मेरा दिल तब-तब रोता है

एक छोटा बच्चा अपने सर पर
भारी बोझा ढोता है,
और उनके बच्चों के हाथों में
बॉटल बस्ता होता है !
मेरा दिल तब-तब रोता है !

एक भूखे बच्चे का नन्हा सा
हाथ भीख को बढ़ता है,
और उनके बच्चों के हाथों में
बर्गर बिस्किट होता है !
मेरा दिल तब-तब रोता है !

एक बेघर बच्चा सर्दी में
घुटनों में सर दे सोता है
और उनके बच्चों के कमरे में
ए सी , हीटर होता है ,
मेरा दिल तब-तब रोता है !

एक छोटा बच्चा गुण्डों की
साजिश का मोहरा होता है
और उनका बच्चा अपने घर
महफूज़ मज़े से होता है !
मेरा दिल तब-तब रोता है !

एक नन्हा बच्चा बिलख-बिलख
माँ के आँचल को रोता है
और उनका बच्चा हुलस हुमक
माँ की गोदी में सोता है
मेरा दिल तब-तब रोता है !

जब छोटे बच्चे के हाथों में
कूड़ा कचरा होता है
और उनके बच्चे के हाथों में
खेल खिलौना होता है !
मेरा दिल तब-तब रोता है !

बच्चों की किस्मत का अंतर
जब पल-पल बढ़ता जाता है ,
और सबकी आँखें बंद
जुबाँ पर ताला लटका होता है
मेरा दिल तब-तब रोता है !

साधना वैद

Wednesday, December 1, 2010

मेरा परिचय




किसी विशाल हिमखण्ड के नीचे
मंथर गति से बहती
सबकी नज़रों से ओझल
एक गुमनाम-सी जलधारा हूँ मैं !

अनंत आकाश में चहुँ ओर
प्रकाशित अनगिनत तारक मंडलों में
एक टिमटिमाता-सा धुँधला सितारा हूँ मैं !

निर्जन वीरान सुनसान वादियों में
कंठ से फूटने को व्याकुल
विदग्ध हृदय की एक अधीर
अनुच्चरित पुकार हूँ मैं !

सुदूर वन में सघन झाड़ियों के बीच
खिलने को आतुर दबा छिपा
एक संकुचित नन्हा-सा फूल हूँ मैं !

वेदना के भार से बोझिल
कलम से कागज़ पर शब्दबद्ध
होने को तैयार किसी कविता का
एक अनभिव्यक्त भाव हूँ मैं !

करुणा से ओत प्रोत किसी
निश्छल, निष्कपट, निर्मल हृदय की
अधरों की कैद से बाहर
निकलने को छटपटाती
किसी मासूम प्रार्थना की
एक अस्फुट प्रतिध्वनि हूँ मैं !

वक्त की चोटों से जर्जर, घायल, विच्छिन्न
किन्तु हालात के आगे डट कर खड़े
किसी मुफलिस की आँख से
टपकने को तत्पर
एक अश्रु विगलित मुस्कान में छिपा
विद्रूप का रुँधा हुआ स्वर हूँ मैं !

इस अंतहीन विशाल जन अरण्य में
अपनी स्थापना के लिये संघर्षशील
नितांत अनाम, अनजान,
अपरिचित एवं विस्मृत प्राय
एक नगण्य-सी शख्सियत हूँ मैं !

साधना वैद