किसी विशाल हिमखण्ड के नीचे
मंथर गति से बहती
सबकी नज़रों से ओझल
एक गुमनाम-सी जलधारा हूँ मैं !
अनंत आकाश में चहुँ ओर
प्रकाशित अनगिनत तारक मंडलों में
एक टिमटिमाता-सा धुँधला सितारा हूँ मैं !
निर्जन वीरान सुनसान वादियों में
कंठ से फूटने को व्याकुल
विदग्ध हृदय की एक अधीर
अनुच्चरित पुकार हूँ मैं !
सुदूर वन में सघन झाड़ियों के बीच
खिलने को आतुर दबा छिपा
एक संकुचित नन्हा-सा फूल हूँ मैं !
वेदना के भार से बोझिल
कलम से कागज़ पर शब्दबद्ध
होने को तैयार किसी कविता का
एक अनभिव्यक्त भाव हूँ मैं !
करुणा से ओत प्रोत किसी
निश्छल, निष्कपट, निर्मल हृदय की
अधरों की कैद से बाहर
निकलने को छटपटाती
किसी मासूम प्रार्थना की
एक अस्फुट प्रतिध्वनि हूँ मैं !
वक्त की चोटों से जर्जर, घायल, विच्छिन्न
किन्तु हालात के आगे डट कर खड़े
किसी मुफलिस की आँख से
टपकने को तत्पर
एक अश्रु विगलित मुस्कान में छिपा
विद्रूप का रुँधा हुआ स्वर हूँ मैं !
इस अंतहीन विशाल जन अरण्य में
अपनी स्थापना के लिये संघर्षशील
नितांत अनाम, अनजान,
अपरिचित एवं विस्मृत प्राय
एक नगण्य-सी शख्सियत हूँ मैं !
साधना वैद
नितांत अनाम, अनजान,
ReplyDeleteअपरिचित एवं विस्मृत प्राय
एक नगण्य सी शख्सियत हूँ मैं !
अपना आंकलन कम मत कीजिये ...आप भले ही नन्हा स फूल बने रहिये ..उसकी सुरभि चारों ओर फैलेगी ..स्वयं को अभिव्यक्त करती सुन्दर प्रस्तुति
यह मासूम प्रार्थना ...रुंधा हुआ स्वर ही....अर्थ देते हैं...जीवन को और उसे परिपूर्ण बनाते हैं...ये नगण्य नहीं...सबसे महत्वपूर्ण हैं...क्यूंकि ये स्थूल नहीं सूक्ष्म है...जो हमेशा अक्षुण रहते हैं..
ReplyDeleteबेहतरीन...अभिव्यक्ति
वेदना के भार से बोझिल
ReplyDeleteकलम से कागज़ पर शब्दबद्ध
होने को तैयार किसी कविता का
एक अनभिव्यक्त भाव हूँ मैं !
आज आपकी कविता पढ़ कर मन का आँगन सीला सीला सा हो गया है और एक भाव बड़ी तीव्रता से अंतस में समां गया....हें नारी तेरी हर युग में यही कहानी...आँचल में है दूध....आँखों में है पानी..
बस साधना जी शब्द कुछ बंधनों में बंध जाते है...और आगे कुछ नहीं लिखा जाता..बहुत ही मार्मिक व्यथा कथा लिखी है नारी के अंतस की.
करुणा से ओत प्रोत किसी
ReplyDeleteनिश्छल, निष्कपट, निर्मल हृदय की
अधरों की कैद से बाहर
निकलने को छटपटाती
किसी मासूम प्रार्थना की
एक अस्फुट प्रतिध्वनि हूँ मैं !
फिर भी अपरिचित अविस्मृत और नग्ण्य शख्सियात । कितनी बडी त्रास्दी है नारी जीवन। बहुत सशक्त भावमय कविता। शुभकामनायें।
क्या कह डाला आपने आज ,एक नगण्य सी शख्सियत आप नहीं वरन इस मासूमियत की क़द्र न जानने वाला दिखने में विशाल पर मन से कंजूस तो वह है जिसने इस कस्तूरी की गंध ही नहीं पहचानी |
ReplyDeleteमन बहुत भावुक हो उठा है बस अब लिखा नहीं जाता | इतनी पीड़ा से तो बेहतर था कि नारी जन्म ही न लेती |
यह संवेदक रचना आपकी सृजनशक्ति की महानता से परिचय करा रही है।
ReplyDeleteनिर्जन वीरान सुनसान वादियों में
ReplyDeleteकंठ से फूटने को व्याकुल
विदग्ध हृदय की एक अधीर
अनुच्चरित पुकार हूँ मैं !
अत्यन्त सुन्दर पन्क्तियां………।
इस अंतहीन विशाल जन अरण्य में
ReplyDeleteअपनी स्थापना के लिये संघर्षशील
नितांत अनाम, अनजान,
अपरिचित एवं विस्मृत प्राय
एक नगण्य सी शख्सियत हूँ मैं !
अपनी पहचान ,अपना परिचय पाने को आतुर नारी के या कहिये हर शख्स के ह्रदय के भावों को शब्दो मे बेहद सुन्दरता से पिरोया है……………आज हर कोई अपना परिचय पाने के लिये ही तो भटक रहा है…………बेहतरीन अभिव्यक्ति।
"एक गुमनाम धारा सी हूँ मैं "
ReplyDeleteभुत सुंदरता से पिरोए गए हैं शब्द |अच्छी पोस्ट बहुत बहुत बधाई
आशा
गुमनाम जलधारा , टिमटिमाता सितारा....
ReplyDeleteअनुछारित पुकार , संकुचित नन्हा फूल ...
क्या बस यही परिचय है मेरा ...
जीवन के आड़े तिरछे रास्ते से गुजरते कई बार लगता है ...
मैं गर गुल हूँ तो वो नहीं जो सदाबहार है
मैं गर खर हूँ तो वो नहीं जो गुलों का हिफ़ाज़ती है ....
कही भीतर तक भिगो गयी ....!