रात-रात भर मन के
वीराने में
खामोशी की चादर ओढ़
चुपचाप अकेली
चलती रहती हूँ ,
यामिनी के अश्रु जल
से भीगे
अपने आँचल की नमी को
अपने ही जिस्म पर
चहुँ ओर लिपटा हुआ
महसूस कर हर पल
सिहरती रहती हूँ !
हर पल हरसिंगार सी
झरती
यादों की सुकुमार
पाँखुरियों में
अतीत की मीठी मधुर
स्मृतियों की खुशबू
को
ढूँढती रहती हूँ ,
धरा पर बिखरे इन कोमल
फूलों को
रिश्तों की टूटी
माला के
दूर छिटक गये मनकों
की तरह
प्राण प्राण से
सहेजती रहती हूँ !
पत्तों पर क्षण भर
को ठहरी
ओस की नन्ही सी बूँद
के दर्पण में
अपने ही प्रतिबिम्ब
को निहार
खुश होती रहती हूँ ,
फिर अगले ही पल ओस
कण के
माटी में विलीन हो
जाने पर
स्वयं के पंचतत्व
में विलीन
हो जाने के अहसास से
हतप्रभ हो
बिखरती रहती हूँ !
साधना वैद
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (08-02-2020) को शब्द-सृजन-7 'पाँखुरी'/'पँखुड़ी' ( चर्चा अंक 3605) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रवीन्द्र जी ! सादर वन्दे !
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ReplyDeleteजब भी प्राकृतिक बिंबों को लेकर कविताएं रची जाती है .वो कविताएं बहुत ही मनोहारी दृश्य तो उत्पन्न करती ही है साथ ही जीवन के प्रति जो सत्य है उसका एहसास कराती है.. सुंदर भाव अभिव्यक्ति आपके द्वारा बधाई🙏
हार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! आपको रचना अच्छी लगी मेरा लिखना सार्थक हुआ ! आभार आपका !
Deleteबहुत ही सुंदर दी , सादर नमस्कार
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद कामिनी जी ! आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार !
Deleteहर पल हरसिंगार सी झरती
ReplyDeleteयादों की सुकुमार पाँखुरियों में
अतीत की मीठी मधुर
स्मृतियों की खुशबू को
ढूँढती रहती हूँ ....साधना जी बहुत ही खूबसूरती से आपने हरसिंंगारऔर स्मृतियों को एक कर दिया है ... दोनों में ही अपनी अपनी ''खुश्बू'' होती है...जो अंतर तक छिपी भी रहती हैं और महकती भी रहती है
azl
हार्दिक धन्यवाद अलखनंदा जी ! आभार आपका !
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