शिशिर ऋतु की सुहानी भोर 
आदित्यनारायण के स्वर्ण रथ पर
आरूढ़ हो धवल अश्वों की 
सुनहरी लगाम थामे
पूर्व दिशा में शनैः शनैः 
अवतरित हो रही है !
पर्वतों ने अपना लिबास 
बदल लिया है !
कत्थई रंग के हरे फूलों वाले 
अंगवस्त्र को उतार
लाल और सुनहरे धागों से कढ़े
श्वेत दुशाले को अपने तन पर 
चारों ओर से कस कर 
लपेट लिया है !
पर्वत शिखरों के देवस्थान पर 
रविरश्मियों ने अपने जादुई स्पर्श से 
अंगीठी को सुलगा दिया है !  
वहाँ पर्वत की चोटियों पर देवता
और यहाँ धरा पर हम मानव 
गरम चाय की प्याली 
हाथ में थामे शीत लहर से 
स्पर्धा जीतने के लिये 
स्वयं को तैयार कर रहे हैं ! 
कल-कल बहती जलधारायें 
सघन बर्फ की मोटी रजाई ओढ़ 
दुबक कर सो गयी हैं ! 
सृष्टि की इस मनोहारी छटा पर 
मुग्ध हो दूर स्वर्ग में बैठे 
देवराज इंद्र ने मुक्त हस्त से 
अनमोल मोतियों की दौलत 
न्यौछावर करने का आदेश 
सजल वारिदों को दे दिया है ! 
नभ में विचरण करते 
ठिठुरते श्यामल बादलों के 
कँपकँपाते हाथों से छिटक कर 
ओस के मोती नीचे धरा पर 
यत्र यत्र सर्वत्र बिखर गये हैं ! 
धन्य धरा ने विनीत भाव से 
हर कली, हर फूल, 
हर पत्ते, हर शूल 
यहाँ तक कि 
नर्म मुलायम दूर्वा के 
हर तिनके की खुली मंजूषा में
इन मनोरम मोतियों को  
सहेज कर रख लिया है ! 
शीत ऋतु का यह सुखद 
शुभागमन है और प्रकृति के 
इस नये कलेवर का 
हृदय से स्वागत है, 
अभिनन्दन है, 
वंदन है ! 
साधना वैद 

 
 
No comments :
Post a Comment